सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

कृष्ण की सोलह कलाएँ : गोवर्धनधारण के बहाने एक दीर्घ शोध"

"कृष्ण की सोलह कलाएँ : गोवर्धनधारण के बहाने एक दीर्घ शोध"


सुना है,
कृष्ण की सोलह कलाएँ हैं,
क्या हैं, कहीं गिनती मिलती है,
क्यों हैं, इनकी किंचित् व्याख्या भी मिलती है,
पर बहुत सटीक नहीं लगती.
वैसे तो चरित्र की बजाय चरित को देखें,
तो कृष्ण के साथ सोलह कलाओं की बजाय आठ अंक अधिक जुड़े दिखते हैं-
-अष्टमी को जन्म हुआ,
-आठवें पुत्र के रूप में हुआ,
-आठवें अवतार के भी रूप में हुआ,
-बालकाल में पशुरूप आठ असुरों का वध भी किया-
(वकासुर, अघासुर, वत्सासुर, धेनुकासुर, अरिष्टासुर, वृषासुर, प्रलंबासुर और केशि.)
-आठ भार्याएँ रहीं-
(रुक्मिणी, सत्यभामा, मित्रवृंदा, जाम्बवती, कालिंदी, भद्रा और लक्ष्मणा.)
-आठ भार्याओं से आठ पुत्र हुए.
संयोग से अब तक ऊपर जिन 8 अंकों का मुख्य संयोग बताया गया,
वे भी कुल 8 ही होते हैं.
कुछ ने गणित आगे तक जोड़ा है.
-उनकी 16100 रानियाँ थीं,
जिसका आंकिक योग 8 होता है।
-उनकी वर्णित आयु 125 वर्ष थी,
जिसका आंकिक योग भी 8 होता है।
-इसके आगे भी उनका देहावसान आयु के 8वें माह के 8वें दिन हुआ था.
उनका प्रसिद्ध अवतारवादी श्लोक
"संभवामि युगे-युगे" भी चतुर्थ अध्याय का 8वाँ श्लोक है।
पर यह सब कुछ खींचतान लगता जाता है।
जन्म संयोग से साल के छठे माह में हुआ,
दो माह बाद होता, तो 8वें माह में होता.
वैसे कम ही लोग ध्यान देते हैं कि
साल के 8वें माह में भी कृष्ण से जुड़ा एक व्रत मनाया जाता है,
कृष्ण जन्माष्टमी के ठीक दो माह बाद यह व्रत आ जाता है।
लोक परंपरा के अनुसार यह 'अहोई' माता का व्रत है।
यह अहोई शब्द अष्टमी से बना है।
जैसे कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी चौथ माता बन गई,
वैसे ही कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी आहोई माता बन गई.
अष्टमी का संबंध दुर्गा से भी है,
पर सर्वाधिक संबंध कृष्ण से है।
संभवतः व्रत बहुत लोकप्रिय नहीं है।
कम से कम बहुत व्यापक तो नहीं ही है।
व्रत के विधान व कहानी दोनों करवा चौथ से हूबहू मिलते से लगते हैं,
बस मुख्य अंतर है कि
करवा चौथ मूलतः पति के लिए है,
अहोई संतान के लिए.
कल्पना या कामना यह रही होगी कि
मेरी संतान कृष्ण सी हो.
सोलह कलाओं की ओर लौटते हैं.
ऐसे तो गणना में भगवान के भी छ: ऐश्वर्य ही हैं,
जिनमें कुछ इन कलाओं में समाहित भी हैं,
तो शायद यहाँ कृष्ण की भगवत्ता भगवान से भी बढ़कर दिखानी रही हो.
कोई और अवतार सोलह कलाओं वाला नहीं है।
कृष्ण को इसीलिए कुछ भक्त पूर्ण अवतार मानते हैं,
अन्य को अंशमात्र.
ईश्वर मानव बने, तो कुछ मानव की कलाएँ भी तो जुड़ेंगी,
केवल उसकी दुर्बलताएँ ही थोड़े ही जुड़ेंगी.
किसी समय मानव की चौंसठ कलाएँ गिनी गईं थीं,
अब तो असंख्य हो गई होंगी।
जब हर हुनर कला बन जाए,
तो वह चौंसठ भर कैसे रहेगा?
दृश्य व श्रव्य ही नहीं, हर इंद्रियानुभूति में कला आ सकती है।
पर संस्कृति कहती है कि मानव बने इस ईश्वर की भी सोलह ही कलाएँ थीं.
छ: भगवान की और दस मानव की ऐसी गणना तो उचित नहीं.
वैसे छ: ऐश्वर्य की गणना भी तार्किक नहीं,
न ईश्वरीय रूप से, न मानवीय रूप से.
बस वह किसी काव्यात्मक कल्पना से आई है।
यह कहना कठिन है कि
ये सोलह कलाएँ मानवीय हैं या ईश्वरीय,
प्राकृतिक या अलौकिक,
समस्त में या विशिष्ट.
कहीं ईश्वर की सोलह कलाओं की गणना में अष्टसिद्धियों की तरह अलौकिक क्षमताएँ भी दी गई हैं-
अतिशायिनी, विपरिणामिनी, संक्रामिणी, प्रभ्वी, कुण्ठिनी, विकासिनी, मर्यादिनी, आह्लादिनी, स्वरूपावस्थिति, परिपूर्ण आदि,
पर ये भी न व्यवस्थित हैं, न तार्किक.
कुछ श्रुतियाँ ब्रह्म की सोलह कलाएँ बताते हुए कहती हैं कि
परमात्मा की सोलह कलाओं में एक कला अन्न में मिलकर अन्नमय कोश के द्वारा प्रकट हुई-
षोडशानां कलानामेका कलाऽतिशिष्टाभूत् साऽन्ने-नोपसमाहिता प्रज्वालीत्।
यजुर्वेद कहता है कि
मनुष्य के सोलह विशिष्ट गुणों या शक्तियों को भी षोडशकला कहते है-
“सचते स षोडशी”—-(यजुर्वेद–8.36)
शतपथ ब्राह्मण स्पष्टत: कहता है,
यह चंद्रमा, यह मानव, यह ब्रह्म, सब कुछ षोडशकला युक्त हैं-
—(षोडशकलो वै चन्द्रमः, षोडशकलो वै पुरुषः, षोडशकलो वै ब्रह्म, षोडशकलं वा इदं सर्वं —शतपथ ब्राह्मण)
प्रश्नोपनिषद् के छठे प्रश्न में पंचेंद्रियों के साथ प्राण और कतिपय अन्य गुणों व तत्वों की संख्या जोड़कर सोलह कलाएँ बनाई गई हैं,
पर वे सुसंगत नहीं लगतीं.
ऋग्वैदिक पुरुष सूक्त में पुरुष रूप में ब्रह्म के चार चरण हैं.
ब्रह्म के तीन चरण उर्ध्व में विद्यमान है और एक चरण ही इस विश्व में है।
कुछ विचारकों ने इन चार चरणों में प्रत्येक के चार उपचरण मानकर सोलह कलाएँ दिखाने की कोशिश की है.
बहुत सुसंगत न होने पर भी यह सोलह की संख्या तो पहुँचा ही देता है।
कहने को सोलह की संख्या में षोडश मातृकाएँ भी हैं,
पर कृष्ण को उनसे जोड़ना कठिन होगा।
उन्हें माताओं की बजाय प्रियाओं से जोड़ा जाए,
तो संख्या सोलह हजार से चौसठ हजार तक
या फिर सोलह लाख तक भी पहुँचाई जा सकती है,
पर माताएँ दो से अधिक जुड़नी बढ़नी कठिन हो जाती हैं.
एक अन्य तर्क है कि
कृष्ण की जितनी लीलाएँ प्रसिद्ध हैं,
वे सोलह वर्गों में रखी जा सकती हैं-
-कारागार में दैवीय जन्म व मुक्ति की, यमुना पारगमन की,
-नंद-यशोदा का लाल बनने की, माता के साथ बाललीला की, बालगोपाल संग मक्खनचोरी की, मुख में ब्रह्मांडदर्शन कराने की, यमलार्जुन मुक्ति की
-पूतनावध, कंसवध व अन्य असुरवध की, कालियादमन की, रणछोड़ बन कालयवनवध की, नरकासुर वध की,
-गोवर्धनधारण कर इंद्र से गोकुल की रक्षा करने की, नवधर्मप्रवर्तन की,
-गोपिकाओं के चीरहरण, केलि, महारास की,
-राधा संग प्रीति की,
-संदीपनि आश्रम गमन व सुदामा मैत्री की,
-रुक्मिणीहरण व शिशुपालवध की,
-स्यमंतकमणि का लांछन पाने की, शेष-सप्तभार्यावरण की,
-गोकुलवृंदावन छोड़ द्वारकाधीश बनने की,
-द्रौपदी के चीरहरण में वस्त्रदान कर लज्जा निवारण की,
-दुर्योधन के समक्ष संधिप्रस्ताव लाने पर विराट्-रूप दिखाने की,
-पांडव वनवास काल में दुर्वासा के दस हजार शिष्यों को अक्षयपात्र से भोजन कराने की,
-महाभारत युद्ध में सेना कौरव पक्ष में भेज सारथि बन अर्जुन के साथ युद्ध का सूत्रधार बनने की,
-अर्जुन विषाद में विश्वरूप दर्शन की,
-युद्धोपरांत कुलसंहार के साथ महाप्रयाण करने की,
पर यह वर्गीकरण भी न पूर्णसंतोषजनक नहीं है।
एक सरल कल्पना है कि
कृष्ण चंद्रवंशी हैं,
और
चाँद की सोलह हैं,
तो उनकी क्यों न हों?
यह तर्क अभिमान से आ सकता है, प्रेम से नहीं.
प्रेम तो कहेगा,
चंद्रवंशी होने से हों न हों,
जब चाँद में है,
चाँद जैसे में क्यों न हों?
अब चाँद की सोलह कलाएँ क्या हैं-
तिथिवार उसकी बदलती आकृतियाँ.
यों तो तिथियाँ पंद्रह होती हैं;
किंतु प्रतिपदा से चतुर्दशी तक 14 तिथियाँ दोनों पक्षों मे उभयनिष्ठ हैं।
इनमें चंद्रमा के घटने -बढने की 14 कलाएँ होती हैं।
अमावस्या और पूर्णिमा ये दोनों दो कलाएँ हो गयीं ।
अतः चंद्रमा की सोलह कलाएँ हुईं ।
चंद्रमा के कलाओं का वर्णन कुछ इस प्रकार है:-
1. अमृता
2. मानदा
3. पूषा
4. तुष्टि
5. पुष्टि
6. रति
7. धृति
8. शशिनी
9. चन्द्रिका
10. कान्ति
11. ज्योत्स्ना
12. श्री
13. प्रीतिरङ्गा
14. पूर्णा या पूर्णामृता
कहीं इनके अतिरिक्त दो और का वर्णन मिलता है- स्वरजा और अंगदा, पर अमा और पूर्णिमा को वही नाम देना ठीक है.
वैसे ये नामकरण न तो कृष्ण के लिहाज से पूरी तरह सटीक बैठते हैं,
न ही चाँद के लिहाज से.
व्याख्या में जरा खींचतान कर लें,
यह और बात है.
एक और सरल कल्पना हो सकती है कि
यह कला सौंदर्य की हो सकती है,
पर सोलह श्रृंगार तो स्त्रियाँ करती रहती थीं,
षोडशी होने के बाद वही बने रहने में सुखानुभूति पाती थीं.
कृष्ण के सौंदर्य में भी वैसा ही शृंगार है.
कोई कह सकता है,
सौंदर्य की कला का भगवत्ता में ऐसे पृथक् स्मरण क्यों कर.
पर मन का एक हिस्सा कहता है,
जिसके भी सौंदर्य में चाँद देखा जा सकता है,
उसके सौंदर्य में सोलह श्रृंगार देखा जा सकता है.
सच कहूं तो
मन यदि कलाएँ तर्क भरे दर्शन से खोजे,
तो वह उलझा रह जाएगा।
वह यदि प्रेम की दृष्टि से देखे,
तो हृदय में आठ प्रहर उस कलामय सुंदरतम के दर्शन पाएगा-
काजल लागे किरकरो, सुरमा सहा न जाए।
जिन नैनन में कृष्ण बसे, दूजा कौन समाये।।

1 टिप्पणी:

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