मंगलवार, 22 मई 2018

वसंत : प्रथम ऋतु के तीन आयाम


वसंत : प्रथम ऋतु के तीन आयाम

भारतीय काल गणना परंपरा अपने बारहमासे में षड्ऋतुओं का विधान करती है।
इन छ: ऋतुओं में वसंत की स्थिति कुछ अप्रतिम सी है,
तीन ऋतुओं में तीन मौसम स्पष्ट समाहित हैं-
शीत, ग्रीष्म और वसंत.
वसंत ऋतु से अधिक ऋतुसंधि है।
शीत और ग्रीष्म के मध्य स्थित.
अब यदि वह ऋतुसंधि है,
तो साल में एक नहीं, दो वसंत होंगे,
एक, शीत के आरंभ में,
दूसरा, शीत के अंत में.

परंपरा केवल द्वितीय को वसंत मानती है,
प्रथम वसंत की बजाय शरद ऋतु कही जाती है,
पर वह अघोषित रूप में है तो वसंत ही.
वसंत को ऋतु मानें, तो वह प्रथम ऋतु है,
उसे ऋतुसंधि मानें, तो वह चतुर्थ ऋतु है।

वसंत प्रथम ऋतु है, क्योंकि वेदों के अनुसार वसंत संवत्सर का मुख है।
मुख होने के दो अर्थ हो सकते हैं-
वर्ष का वसंत से प्रारंभ होना
और
वर्ष की वसंत से पहचान होना.

इनमें पहला अर्थ तो प्रमुख भी है और लगभग सर्वमान्य भी.
शायद इसीलिए चैत्र से आरंभ होते वर्ष के लिए कहा गया-
"चैत्र-वैशाखयोर्वसन्त:". वैदिक मास जरा अलग हैं, वहाँ यह मधुमास व माधवमास है।

वैसे चैत्र तक ग्रीष्म ऋतु अपनी धमक थोड़ी तेज कर देती है।
तब लगता है कि वसंत को तो फाल्गुन मास तक प्रवेश कर लेना चाहिए। पर प्रश्न तो यह उठता है कि ऋतु की गणना कहां से करें। इसके लिए कोई प्राइम मेरिडियन या ग्रीनविच मीन टाइम तो है नहीं. अब यदि गणना मध्य हिमालय प्रदेश करें, तो इस क्षेत्र में वसंत के रूप में चैत्र-वैशाख बिल्कुल ठीक हैं, किंतु मध्य भारत व उससे नीचे चले जाएं, तो लगेगा कि वसंत को लाने में हमने देर कर दी।
संभवतः इसी विसंगति को देखते हुए कभी माघ की पञ्चमी को वसञ्तपञ्चमी कहा गया, जबकि शास्त्रों में यह शिशिर-ऋतु है,

मन में जब भी वसन्त-ऋतु की कल्पना उठती है,
परंपरा के तीन आयाम सबसे मुखर हो उपस्थित हो जाते हैं-
पहला- प्रेम का आयाम. यहाँ वसंत की ऋतु जनमानस में प्रीति की ऋतु सहस्राब्दियों से है, मिथकों के साथ. वे मिथक जहाँ काम व रति के रूपक हैं, साहित्य से आगे, धर्म तक फैले हुए.
इसी से जुड़ा सांस्कृतिक पर्व है- होली, जो कि वसंत का दूसरा आयाम लिए है। होली, जो वसंतोत्सव है, मदनोत्सव के रंग लिए रही है।
तीसरा आयाम जरा अलग से और बहुत अस्पष्ट होकर सामने आता है, वह है- देवी सरस्वती का, जो वसञ्तपञ्चमी की मूल अधिष्ठात्री देवी हैं.

प्रारंभ वसंत के ऋतु होने से करते हैं, विशेषत: उसके प्रेम की ऋतु होने से.
वसंत में ऋतु सबसे अधिक सुखद होती है, प्रकृति सबसे अधिक पुष्पित होती है, ऐसे में वह प्रेम की ऋतु तो सहज ही बन जाती है।

पर मन को तर्कातीत करने वाले वसंत में भी तर्कवादी मन सबसे पहले पूछता है,
वसञ्तपञ्चमी माघ में कैसे आई और उससे भी बढ़कर यह कि वह पञ्चमी को क्यों आई.

कह सकते हैं कि
कभी वसंत ऋतु चैत्र की बजाय माघ से प्रारंभ होती रही हो.
कालांतर में ऋतुपरिवर्तनवश चैत्र से प्रारंभ किया गया हो,
ऐसे में माघ की पञ्चमी को वसञ्तपञ्चमी मान लिया जाना बहुत असंगत नहीं,
क्योंकि हजारों सालों में मौसम बदल गया,
आहार-विहार की ऋतुचर्या बदल गई,
फिर ऋतुगणना भी ही बदल गई होगी।

दूसरी संभावना ऋतुपरिवर्तन की बजाय संस्कृति परिवर्तन की है,
विशेष रूप से वैदिक के स्थान पर लौकिक रंग लिए पौराणिक संस्कृति के आगमन से जुड़ी.
माघपञ्चमी को श्रीपञ्चमी व ऋषिपञ्चमी मनाने का प्राचीन उल्लेख मिलता है। यह बहुत कुछ वैदिक पर्व रहा होगा। कालांतर में ऋषि की श्री सरस्वती ही मान ली गई होंगी, तब ऋषिपञ्चमी की जगह सरस्वती की पञ्चमी आ गई, जबकि तब तक सरस्वती वसंत की अधिष्ठात्री देवी बन गई होंगी और फिर माघ की पञ्चमी को वसञ्तपञ्चमी नामकरण हो गया होगा।

परंतु प्रश्न इस अनुमान से आगे भी जाता है और वह माघ की पञ्चमी को वसञ्तपञ्चमी मानने को लेकर नहीं है,
अपितु "पंचमी" को ही वसंतोत्सव मानने को लेकर है।
आखिर पंचमी की ही तिथि क्यों?

यहाँ हमने पहले ही माघपञ्चमी के दिन वसंत की देवी रही सरस्वती के पूजन की पुरातन शास्त्र-मान्य परंपरा का तर्क ले रखा है, जिसके अनुसार कालांतर में भ्रमवश या संयोगवश माघपञ्चमी को वसञ्तपञ्चमी माना गया होगा.
परंतु संस्कृति के अनजाने में भ्रमित होने की बात जँचती नहीं,
वह भी तब, जबकि वह निमिष और पल तक का मान रखती है।
वैसे ऐसी ही व्याख्या के लिए पौराणिक मान्यता है कि
माघ मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि को ही सरस्वती का जन्म हुआ था.

वस्तुतः सरस्वती के साथ विरोधाभास माघ का नहीं, वसंत का है।
इसके समाधान के लिए स्वयं सरस्वती की मिथकीयता का विश्लेषण करेंगे, परंतु उससे पहले पंचमी के लिए कुछ अतिरिक्त उत्तर.

सबसे पहले और सबसे सरल उत्तर आता है कि
अधिकांशत: पीला रंग ही वासंती रंग माना गया है,
जो शायद इन दिनों सरसों के फूले पीले रंग का विस्तार देखकर चुना गया हो
और इस मौसम में प्रकृति में इसी रंग की प्रधानता मान ली गई हो.
सात रंगों के वर्णक्रम में पीला रंग पाँचवें स्थान पर आता है,
शायद इसलिये भी पंचमी जुड़ गई हो. विज्ञान से संस्कृति को जोड़ना जरा दूर की कौड़ी हो सकती है।

दूसरा विकल्प है कि वसंत का स्वरूप पंचम से कुछ अधिक ही गहरे से जुड़ा है।
साहित्य में 'ऋतूनां कुसुमाकरःकहे गए ऋतुराज वसंत के नायक
पुष्पधन्वा कामदेव को संस्कृति में पंचशर कहा गया है.
उसके अनुसार पुष्पधन्वा कामदेव के तरकश में पाँच बाण हैं,
आम, अशोक, चंपा, नीलकमल, श्वेतकमल.
संभव है, पंचमी के सूत्र यहाँ से भी जुड़े हों.

यह भी संभव है कि वसंत ऋतु पंच इंद्रियों व उनके तन्मात्र
(शब्द, स्पर्श, गन्ध, रूप और रस) के लिए सुंदरतम या सुखदतम मान ली गई हो. यहाँ से पंचमी की बात निकल आई हो.
तर्क यह भी हो सकता है कि वसंत जितना प्रेम का प्रवर्तक है, उतना ही कला का प्रतीक भी, विशेषत: आनंद में मत्त कर देने वाली संगीत व नृत्य कला का. संगीत के सप्त स्वरों के सरगम में सुरों का पंचम "पिक या कोयल" का है और वही वसंत की स्वर साम्राज्ञी है। नृत्य के सुंदरतम प्रतीक मयूर के पंचशिख कहने से भी पंचमी ध्वनित हो जाती है। दोनों को जोड़ें, तो वसंत के लिए पंचमी तिथि के चयन का अतिरिक्त प्रतीकात्मक आधार मिल जाता है। आगे हम पाएँगे कि सरस्वती कभी ज्ञान से अधिक कला व संगीत की देवी रही हैं, तब पंचमी का आधार और प्रबल हो जाता है।

परंतु जहाँ तक वसंत ऋतु के प्रेम की ऋतु बनने की बात है, वह इतना स्पष्ट है कि किसी अतिरिक्त पुष्टि की आवश्यकता नहीं दिखती. अधिक से अधिक हम यही कह सकते हैं कि प्रेम भला किसी ऋतु से कैसे बँध सकता है। वह तो सबके हृदयद्वार का मनचाहा अतिथि है,
जो अचानक ही अनाहूत चला आता है
और अज्ञात रूप से ही तीर चला जाता है,
ऐसे कि आगे सारा जीवन अपनी ऋतुचर्या करते ही बीते-
कभी रोमों के पुलकित शरद में,
कभी हृदय के तप्त ग्रीष्म में,
तो कभी आँखों की अनवरत वर्षा में.

परंतु ऐसे तमाम प्रतितर्कों में भी वसंत ही प्रेम का श्रेष्ठ ऋतु-प्रतीक सिद्ध होगा।
हमने प्राचीन काल से प्रेम को काम कहते हुए उसे ही वसंत का नायक माना हुआ है।
कामदेव, जो पराक्रमी तो नहीं, परंतु लगभग अपराजेय धनुर्धर है।
धनुर्धर भी ऐसा कि बाण पुष्पों के चलाए.
लोग भी ऐसे कि जो पत्थर का हृदय पाएँ, वे भी फूल से विचलित हो जाएँ.
वसंत ऋतु के आधार पर या स्वयं प्रेम की प्रकृति के आधार पर
पुष्पधन्वा मानना समुचित रूपक है,
परंतु पाँच बाण संभवतः प्रतीक हैं,
पंच इंद्रियों व उनके तन्मात्र के, जिनपर या जिनके माध्यम से कामभाव प्रभावी होता है। कुछ के अनुसार ये प्रतीक हैं,
मारण, स्तम्भन, जृम्भन, शोषण, व उम्मादन (मन्मन्थ) के,
जो प्रेम के विकार बन जाते हैं।

संस्कृति में और उसमें भी विशेष रूप से संस्कृत में प्रेम से अधिक काम शब्द का प्रयोग है।
कालांतर में प्रेम शब्द काम से अधिकाधिक स्वतंत्र होता गया और बाद में मन और हृदय से अधिक देह प्रधान मान लिया गया.
परंतु प्राचीन काल वह इतने सीमित संकुचित अर्थ का न रहा होगा।
तब काम भी देव था, गंधर्व सा और रति भी देवी थी, अप्सरा सी.

दोनों के नाम में भी कुछ उनकी प्रकृति ध्वनित सी होती है।
काम में बहुत कुछ कामना सा है, वह पुरुषोचित है, वहाँ बहुत कुछ दृप्त है।
रति में बहुत कुछ सुरति सा है, वह स्त्रियोचित है, वहाँ बहुत कुछ अव्यक्त सा है।
परंतु इस किंचित भेद के बावजूद कामदेव और रति युगल प्रेम के दैहिक और हार्दिक दोनों पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

कामदेव कंदर्प कहलाते हैं। वे गंधर्व योनि के हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने गंधर्व और कंदर्प को एक ही भाव के दो उच्चारण माना है।
वे फूलों का बाण चलाने वाले हैं, अत: पुष्पधन्वा कहलाते हैं। गंधर्वों का संस्कृति में प्रवेश जरा बाह्य दिखता है। यही बात कामदेव के पाँच बाण बने फूलों की भी है, जिनका एक समय से पहले कोई बहुत उल्लेख नहीं मिलता. ऐसे में वे भी उसी संस्कृति से आए या महत्ता पाए हो सकते हैं। परंपरा अनुसार कामदेव का धनुष इक्षु या गन्ने का बना होता है, जिसमें मधु की रस्सी लगी है। यह संभवतः वैदिक मधुमास की कल्पना को पोषित करती कल्पना है। माना जाता है कि
इस धनुष की टंकार स्वरविहीन होती है अर्थात् जब कामदेव जब अपने कमान से तीर छोड़ते हैं, तो उसकी आवाज नहीं होती है। यह प्रेम के मौन में पर्यवसित होने की ही प्रतीकात्मता है।

यहां ध्यातव्य है कि काम के लिए वसंत उसके तमाम माध्यमों में से एक माध्यम है। वे परस्पर पूरक हैं, अनिवार्य नहीं. मुद्गल पुराण के अनुसार कामदेव के लिए प्रकृति और व्यक्ति दोनों के सौंदर्योपादान सहायक बनते हैं। मानव के रूप, यौवन, शृंगार, गीत, संसर्ग ही नहीं, प्रकृति के उपादान रहे फूल, जल, हवा, कलरव, सुगंध, सौंदर्य सब ही.
यौवनं स्त्री च पुष्पाणि सुवासानि महामते:।
गानं मधुरश्चैव मृदुलाण्डजशब्दक:।।
उद्यानानि वसन्तश्च सुवासाश्चन्दनादय:।
सङ्गो विषयसक्तानां नराणां गुह्यदर्शनम्।।
वायुर्मद: सुवासश्च वस्त्राण्यपि नवानि वै।
भूषणादिकमेवं ते देहा नाना कृता मया।।
स्पष्ट है,
ऐसे में वसंत श्रेष्ठ साधक इसलिए बन जाता है, क्योंकि वह प्रकृति के अधिकांश उपादान सबसे बेहतर रूप में सजा कर ले आता है।

परंपरा में काम-रति की कथा है, जिसमें पुष्पधन्वा के दहने और अनंग बनने की मिथकीय गाथा है।
काम व रति मनोभाव थे, पर पहले मूर्त रूप में थे,
दैहिक ही नहीं, मानवीय रूप में भी.
माना जाता है कि
वे देवराज इंद्र के सभासद व सेवक हैं,
जब देवराज को कभी ऐसा लगता है कि
कोई ऋषि या मुनि अपने तपबल से उन्हें सिंहासन से अपदस्थ कर सकता है,
तो वे उसके तप को भंग करने के लिए रति की प्रतिकृति किसी अप्सरा को भेज देते हैं
और साथ ही ऋषि पर बाणसंधान के लिए कामदेव को.
और यह एक अचूक तरीका बना रहा, युगों तक.
संस्कृति कहती है, सृष्टि चलती रही, कामदेव के बाण चलते रहे,
इसका उल्टा भी सच है. कामदेव के बाण चलते रहे, अत: सृष्टि भी चलती रही.

पर अचानक कुछ अप्रत्याशित घटा.
शिव की पत्नी दाक्षायणी अपने पिता के यज्ञ में पति का अपमान देख यज्ञ कुंड में कूद कर सती हो गईं.
प्रकृति देवता शिव विकृति में संहार के देवता बन गए,
रुके, तो योग की अखंड समाधि में चले गए.
किन्तु उनके बिना सृष्टि ही थम गयी.

हार कर सृजन के देवता को उनकी प्रिय को उनके जीवन में ही वापस देने का अप्रत्याशित निर्णय लेना पडा.
सती पार्वती के रूप में जन्मी--
विगत जीवन की पूर्ण स्मृति और प्रीति के साथ,
लेकिन अब शिव तो अनंत की तपस्या में लीन थे.
उन्हें जगाना था, उनमें प्रीति जगानी थी.

मूढ़ देवों ने तपस्या भंग करने के लिए "काम" देव को भेजा.
कामदेव नहीं जानते थे कि
वह किसी विक्षुब्ध हठयोगी के पास नहीं,
एक विशुद्ध प्रेमयोगी के पास आया है.

तप में लीन शिव पर कामदेव ने बाण चला दिया।
शिव का ध्यान भंग हुआ।
क्रुद्ध होकर उन्होंने कामदेव को तीसरे नेत्र से देखा,
जिसमें प्रलय की अग्नि बसती थी. अंतत: कामदेव भस्म हो गया।

काम का अंत होते देख उसकी प्रेयसी रति करुण भाव से शिव के समक्ष याचना लेकर पहुँची, सुहाग की भीख मांगी.
शिव द्रवित हुए. बोले-
काम की देह तो दहन हो गई, वह अब पुनरुत्पन्न नहीं हो सकती,
पर कामदेव पुनर्जीवित हो सकता है, अनंग होकर, विदेह होकर, अदृश्य होकर.
रति ने स्वीकार कर लिया। तब से काम अमूर्त रहकर प्रेम का राज चला रहा है। रति सहचरी बनी उसका साथ दे रही है।

यहाँ तो कहानी इतनी ही है और इतनी ही होनी भी चाहिए.
पर आगे कुछ पौराणिक कथाएं ऐसी भी हैं,
जिनके अनुसार कामदेव व रति बस एक बार के लिए मानव देह में पुनः जन्मे.
शिव द्वारा कामदेव को भस्म करने पर रति विलाप से द्रवित शिव ने कामदेव के पुनः कृष्ण और रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न के जन्म लेने का वरदान दिया. रति तब प्रद्युम्न की प्रेयसी मायावती के रूप में जन्मी.
मन प्रश्न करता है, कृष्ण और गोपिकाएँ क्यों नहीं काम व रति के अवतार बने, उनमें क्या कमी रह गई.
तर्क एक ही है और वह यह कि तब तक काम को दैहिक ही मान लेने की रूढ़ि इतनी प्रबल हो गई कि कृष्ण व राधा या गोपियों को उनके रूपक के रूप में देखना अनुचित लगने लगा होगा.

काम के अनंग होने से ही पंचमी के लिए एक मिलता जुलता सा तर्क है-
काम अपने पंचम निनाद में पहुँच कर प्रेम बन जाता है,
देह से हृदय तक की यात्रा करता हुआ वहाँ पहुँच जाता है,
जहाँ प्रीति रागमय नहीं, धवल है,
आसक्तिमयी नहीं, करुणामयी है,
कामनापरक नहीं, विवेकपरक है,
आबद्धकारिणी नहीं, मुक्तिदायिनी है.
वह काम के साथ जन्म लेता है, यह और बात है,
पर सच तो यही है कि वह काम को चुनौती देकर जन्म लेता है।

काम व प्रेम के रूपक को विराम देते हुए पुन: सरस्वती की ओर लौटते हैं, जहाँ विदेहात्मकता सबसे मुखर है।
परंपरा में सरस्वती कभी राग की देवी नहीं दिखतीं.
कथानुसार वे ब्रह्मा की सृष्टि हैं, पर ब्रह्मा को सीख दे जाती हैं,
विराग की. कहते हैं, स्रष्टा ब्रह्मा ने सृष्टि का सृजन तो कर दिया था,
लेकिन न वहाँ ज्ञान था, न कला, न ही विवेक.
कहानी तो यहाँ तक है कि
ब्रह्मा स्वयं अपने सृजन पर मोहांध हो गए थे,
पर सरस्वती ने विवेक कायम रखा.
फिर सरस्वती प्रेम की नहीं, विवेक की देवी बन गईं.

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि हमारे यहाँ तीन देवियों की कल्पना बहुत पहले से है,
तीनों का संबंध हमारे तन-मन-धन से है, परंतु तन से दुर्गा का कुछ अधिक, मन से सरस्वती का बहुत अधिक और धन से लक्ष्मी का सबसे अधिक.
सरस्वती मन से सबसे गहरे तक जुड़ी हैं, पर उनके लिए हृदय का पक्ष बहुत महत्वपूर्ण नहीं दिखता और देह का पक्ष तो सर्वथा उपेक्षित दिखता है। लगता है, वह पक्ष कहीं दमित या विस्मृत हुआ है।

यहाँ रूपकों व मिथकों के जगत् में विचरण करते हुए मन सर्वप्रथम सहज ही प्रश्न करता है कि सरस्वती मूलतः नदी थी, वैदिक काल की सबसे प्रधान व पवित्र नदी, फिर वह विद्या की देवी कैसे बनी.

नदी को माँ और देवी के रूप में कल्पित कर लेना सरल है और स्वाभाविक भी.
वे उर्वरता की, समृद्धि की, कृषि ही नहीं, वाणिज्य की भी देवी बनतीं,
तो विस्मय नहीं होता,
परंतु इसकी अधिकांश प्रतीकात्मकता तो लक्ष्मी ले गईं और सरस्वती विद्या की देवी बन गईं,
शायद ब्रह्मा से जुड़ने के कारण.

सरस्वती त्रिदेवियों में प्रथम होनी चाहिए,
त्रिदेवों में प्रथम परिगणित ब्रह्मा के समानांतर उन्हें भी प्रथम देवी के रूप में स्पष्ट मान्यता होनी चाहिए थी,
किंतु ऐसा है नहीं.

देवियों की कल्पना में उनकी माँ के रूप में कल्पना सबसे मुखर रही है और यही छवि सबसे बाद तक प्रभावी रही है।
ऐसे में तीनों देवियाँ मातृ शक्तियाँ हैं.
परंतु इसमें सरस्वती के साथ सबसे अस्पष्ट मातृ छवि है।
"शक्ति की आराधना" करते मानव मन ने जितनी सुस्पष्टता और सबलता से दुर्गा या काली को माँ कह कर पुकारा,
सरस्वती में वह छवि क्यों प्रबल न हो पाई,
जबकि रूपछवि में वे सर्वाधिक मातृछवि लिए हैं,
सादगी के कारण भी, विद्यादायिनी के कारण भी.

शक्ति देवीरूप में आराध्या रही है,
बहुतेरे अस्त्रों और आभरणों से युक्त भी,
या फिर बहुत आदिम और अनावृत्त भी,
बहुत भयानक और वीभत्स आकृतियों में भी,
बहुत मोहक और मादक देहयष्टि में भी.
स्पष्ट है कि वे वैसी नहीं हैं, जैसी कि ममता की छाँव होती है,
जैसी कि शैशव की गोद भरी ठाँव होती है।
जगदम्बा के हाथों में अस्त्रों शस्त्रों के लिए अधिक स्थान है,
क्रोड में शिशु के लिए कम.
वहाँ सब स्वर्णिम है, उसमें सादगी का वैभव नहीं है,
वहाँ बहुत कुछ रक्तिम है, करुणा का प्रवाह नहीं.

धर्म के क्षेत्र में माँ की कल्पना में लौकिक माँ की सबसे कम कल्पना दिखती है। सच कहूँ, जब जन को सच में चुनना हो,
सब चुनेंगे, दुर्गा और लक्ष्मी ही, न कि श्वेतवसना सरस्वती,
सिंधु संस्कृति की सरस्वती से भी
काँसे की निर्वसना नर्तकी, न कि अनगढ़ सी मिट्टी की मातृदेवी,
जगत् के जीवन में भी
मधुरिम रागमयी प्रिया ही, न कि अनपढ़ सेवामयी माँ.

धर्म में देवियों की तो आराधना होती ही रही है, अनगिनत रूपों में,
विद्यारूप में भी, बलरूप में भी; संपदारूप में भी, सौंदर्यरूप में भी; कलारूप में भी, कामरूप में भी. वे बहुश: माँ की हो सकती हैं, पर बहुश: माँ सी नहीं हैं. वे जगदम्बा की हैं, पर अम्बा सी नहीं हैं. इनमें सरस्वती ही सर्वाधिक अम्बा सी हैं.

सरस्वती का चित्रण सदा सरल और सादगी भरा होता है,
वैसा नहीं, जैसी कि कोई केसरिया रंग में एकतारे में लीन कोई जोगन हो,
वरन् लगभग वैधव्य की सीमा तक निर्लिप्तता लिए,
निरीहता भरी, नीरवता में खोई,
वासंती नहीं, अपितु कौशेय सी.

विद्यादायिनी ऐसी हो, अनुचित नहीं,
किंतु वीणापाणि ऐसी हो, यह समुचित नहीं.
हंसवाहिनी सदा श्वेतांबरा हो, यह समीचीन है,
किंतु मयूरनृत्यरुचिरा बस श्वेतांबरा हो, यह औचित्यपूर्ण नहीं.
ज्ञान की शारदा तुषारस्तंभित हो, यह बहुत असंगत नहीं,
किंतु कला व संगीत की स-रस-वती के पदकमल दोलायमान न हों,
यह सर्वथा सुसंगत नहीं.
ब्रह्म की श्रुति अंत:सलिला बने,यह स्वाभाविक है,
ब्रह्मवर्त की सरिता ऐसी नि:शेषतरंगिणी हो, यह नैसर्गिक नहीं.

सरस्वती की मिथकीयता सबसे अनूठी है।
वह अन्य देवियों में सर्वाधिक वैश्विक है।
इसे दो रूपों में समझ सकते हैं-
सरस्वती को बहुत ही धवल रूप में चित्रित किया जाता है,
संभवतः कर्पूर गौर शिव से भी अधिक, बर्फ की तरह.
उनकी प्रार्थना में ही इसकी पुष्टि है-
"या कुन्देन्दुतुषारहारधवला"
सरस्वती शुभ्रवस्त्रावृता और श्वेतपद्मासना तो बाद में हैं,
कुन्देन्दुतुषारहारधवला पहले हैं.

यहाँ कुछ अनूठे संकेत छिपे हैं-
मानव की मूलतः तीन आदिम प्रजातियाँ हैं-
नीग्रोयड, काकेशाॉयड व मंगोलॉयड.
इनमें नीग्रोयड मूलतः काले रंग की, काकेशाॉयड सफेद रंग की व मंगोलॉयड पीले-लाल रंग की प्रधानता लिए माने जाते हैं।
एक दृष्टि से इन तीन भारतीय देवियों में मानव की तीन मूल प्रजातियों की छवि समाहित हैं-
काली में नीग्रोयड का सा काला रंग है।
लक्ष्मी तो थी ही यक्ष मूल की, जो मंगोलॉयड प्रजाति के माने जाते हैं।
सरस्वती का श्वेत वर्ण काकेशाॉयड या गोरों से इतना मिलता है कि
लगता है कि कहीं न कहीं वे इस संस्कृति में भी मान्य रही होंगी.

एक अन्य संकेत भी मिलता है-
त्रिशक्ति की कल्पना को समाहित किये हुए दुर्गा का तांत्रिक मंत्र है -
"ओम् ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे"
ऐं ह्रीं क्लीं तीन बीजमंत्र भी हैं।
बीजमंत्र में किसी देवता का नाम अत्यंत संक्षिप्त व सांकेतिक रूप में लिया जाता है, ऐसे कि कुछ प्रकट भी हो जाए, कुछ अप्रकट भी रहे.

यहाँ प्रश्न उठता है कि
"ऐं ह्रीं क्लीं" किस प्रकार तीन देवियों के बीज मंत्र हैं.
परंपरा के अनुसार ये क्रमशः सरस्वती, लक्ष्मी और काली के बीजमंत्र हैं. अब भाषा विज्ञान व व्याकरण के अनुसार काली का क्लीं हो जाना सहज है,
श्री रूपा लक्ष्मी का ह्रीं हो जाना भी स्वाभाविक है,
क्योंकि स का कतिपय जगहों पर ह के रूप उच्चारण किया जाता है.
सप्ताह से हफ्ता और सिंधु से हिंदू ऐसे ही बना.
वैदिक काल में भी श्री का ह्री हो जाता था.
इनमें ऐं सरस्वती का बीज मंत्र है,
पर इसे ध्वनित करने के लिए सरस्वती के पर्याय नहीं दिखते हैं।
तब इसका स्रोत कहाँ है.
एक प्रबल मान्यता है कि यह ज्ञान की ग्रीक देवी एथेना को ध्वनित करता है। यदि यह सच है तो इस ऐं शब्द के बहाने आज तक
विद्या की ग्रीक देवी एथेना की छवि भारतीय संस्कृति में शेष है.
वैसे आज जो भाषा व राष्ट्र की दूरी है,
वह पहले अपेक्षाकृत कम थी.
शासक, संत व सौदागर सदा से एक से दूसरी जगह आते-जाते रहे.
तब सामग्री के साथ संस्कृति भी साझा होती रही.
सरस्वती का एक नाम शारदा है। यह वही शब्द है, जिससे विशारद शब्द बनता है। परंतु स्वयं शारदा में शरद ऋतु की ध्वनि शेष है, जो इंगित करता है कि देवी किसी शरद प्रधान प्रदेश से जुड़ी रही हैं। एक अन्य तथ्य भी है। सरस्वती का वाहन हंस है। परंतु हंस कभी भारत में नहीं पाए गए. हंस शीत जलवायु के पक्षी हैं और मूलत: यूरोपीय देशों में ही पाए जाते हैं।

सरस्वती जितनी भारतीय हैं, उतनी ही वैश्विक भी हैं.
पर समस्या यह है कि जितनी सीमा तक विद्या की देवी हैं,
वसंत से उनका प्रत्यक्ष संबंध निर्धारित करना कठिन होगा।
कई बार तो प्रतिकूल सी प्रतीकात्मकता लगती है।
जाने क्यों कई बार लगता है,
ज्ञान हमारा वसंत छीन ले जाता है।
जब मन चटख पीलेपन की चुनरी ओढ़ना पाना चाहता है,
वह एक श्वेत धौत उत्तरीय ओढ़ाकर चला जाता है।

मन कहता है, सरस्वती की यह सादगी उनकी अधूरी छवि है।
यदि वे एथेना से जुड़ती हैं, तो ज्ञान के साथ कला की देवी भी बन जाती हैं। परंतु भारतीय संस्कृति में ज्ञान की तो स्वतंत्र देवी हैं, कला की नहीं. पर जरा और गहन विश्लेषण करेंगे, तो उनके कलामयी होने की विस्मृत छवि सहज ही मिल जाएगी।
सच कहें, तो सरस्वती की जो छवि बताती है कि
बहुत विरागी हैं, शुभ्र ज्ञान भर हैं,
वही छवि संकेतित कर देती है कि
वे कभी कला की भी देवी थीं.
कम से कम तीन प्रतीक अब तक शेष हैं-
पहला, हाथ में माला, ग्रंथ, कमंडलु के अतिरिक्त वीणा का होना,
दूसरा, वाहन के रूप में हंस के अतिरिक्त मयूर का भी चित्रित होना,
तीसरा, वसंत के नाम से पंचमी के रूप में उनका पर्व मनाया जाना.
वीणा व मयूर क्रमशः संगीत व नृत्य के प्रतीक के रूप में उन्हें कला की देवी बताने के पर्याप्त आधार हैं, वसंत का जुड़ जाना अतिरिक्त प्रमाण दे जाता है।
ऐसे में ऐसा भी लगता है कि उनके ग्रंथों में भी वेदों में ऋग्वेद की ऋचाओं से से अधिक सामवेद के साम रहे होंगे,
यह और बात है कि उनकी छवि यजुष् सी गद्यात्मक बना ली गई. वैसे सरस्वती में स-रस-वती की सी अभिव्यंजना भी है, जो उनके अव्यक्त वासंती रूप को प्रकट करता दिख जाता है।

यहाँ सरस्वती के साथ वसंत का एक अन्य रूप अभिव्यक्ति पाता है।
तांत्रिक कहते हैं,
"ऐं ह्रीं क्लीं" मंत्र का स्वरूप भी गायत्री मंत्र का सा ही है,
बस यह है कि गायत्री मंत्र उर्ध्वमुखी है -
भूलोक से भुव:लोक और फिर स्वर्लोक की ओर चलता हुआ.
यह मंत्र अधोमुखी है -
पहले सरस्वती यानी मस्तिष्क
फिर लक्ष्मी अर्थात् हृदय
अंत में काली अर्थात् कामना.
इस प्रकार स्पष्ट है कि मंत्र में जितनी दूर तक सरस्वती की कल्पना है,
वह बहुत निर्मल है, देहातीत है।

कहते हैं, सरस्वती विलुप्त हो गई.
वह धरती में ही समा गई, अंत:सलिला बन गई.
नदी समा गई होगी, विलुप्त हो गई होगी,
पर वह विद्या की देवी के रूप में भला क्यों विलुप्त होगी.
वह तो अनंग बने काम-रति की तरह वैदेही होकर और प्रभावी हुई होगी.
आज सरस्वती की वसंतपंचमी वसंत में नहीं है,
इस कारण उनका वासंती रूप भी लुप्तप्राय है।

वैसे सरस्वती की निर्मल वसंतपंचमी की मान्यता शरद में ही सुसंगत दिखती है,
जब जल, आकाश व वायु सबसे निर्मल रूप में होते हैं।
परंतु इस शुभ्र, धवल, निर्मल रूप में भी मानसरोवर तक आते मानस के हंस जब शरदांत तक लौटते होंगे,
तब वे अपने स्वर में इंगित कर जाते होंगे---
सरस्वती सदानीरा थी,
वह तल पर विलीन, जलविहीन हुई,
तो हवाओं में समा गई,
वसंत की पंचमी बनकर,
कोकिल का पंचम स्वर बनकर.
अंतर्मन का मधुरिम अनहद निनाद बनकर.


प्रेम की ऋतु और ज्ञान की देवी के उपरांत वसंत के तृतीय आयाम की ओर चलते हैं।
यह आयाम वस्तुतः पहले आयाम से ही जुड़ा है,
पर प्रकृति से अधिक संस्कृति के रंग लेकर.
धर्म यहाँ भी है, पर व शास्त्र से अधिक लोक के रंग लिए है।

हमारी हर परंपरा के पीछे अपनी रामकहानी होती है।
होली के लिए जो शास्त्र की कहानी है,
वह होलिका दहन की तो व्याख्या करती है,
पर होली की नहीं कर पाती.
सच कहें, तो होली का होलिका से क्या संबंध?
कहाँ आग, कहाँ रंग?
कहाँ प्रतिशोध, कहाँ निर्मल उल्लास?
आग और रंग के शास्त्रार्थ में दोनों अलग ही दिखते हैं,
जो बस संयोग से मिल गए,
प्रीति की केलि बनकर,
पुरुष व स्त्री की तरह.

कई बार ऐसा लगता है कि होलिका से होली की यात्रा रीति से प्रीति का पर्व बनने की यात्रा है,
जिसके एक कथासूत्र होलिका-प्रह्लाद हैं, तो दूसरे कथासूत्र कृष्ण-गोपिका. इनमें प्रथम कथा में होली का प्रवर्तन है, तो द्वितीय कथा में परिणति.

जो प्रवर्तन की प्रसिद्ध गाथा है,
उसमें कुछ वैकल्पिक संभावनाएँ भी हो सकती हैं.
होलिका असुरराज की बहन है, किंतु दिव्यांगी है,
वह अग्नि में तप या स्नान करती है,
और साधना के उपरांत सशरीर निकल आती है-
और दीप्त होकर, और दिव्य होकर.

किंतु उसके समक्ष धर्मसंकट आ जाता है.
हिरण्यकशिपु असुरराज है, असुरों का रक्षक.
उसका पुत्र प्रह्लाद शैव की बजाय वैष्णव हो जाता है.
राजपुत्र का विधर्मी होना सम्राट व परिवार के लिए धर्मसंकट बन जाता है.

फिर परंपरा की आस्था बनाम व्यक्ति की भक्ति के द्वंद्व में
परंपरा विजयी होती है, समुदाय की धर्मरक्षा में पुत्र को मृत्युदंड देना पड़ता है.
परंतु पुत्रमोह भी है, हर बार असुर समाज को दिखाने के लिए दंड दिये जाते हैं, परंतु प्रह्लाद बच जाता है या बचा लिया जाता है.

हिरण्यकशिपु होलिका के साथ एक कूटनीति रचता है,
संसार के सामने पुत्र प्रह्लाद को होलिका के साथ अग्नि स्नान से गुजरने की.
होलिका के मन में पाप आते ही उसकी दिव्यता समाप्त हो जाती है या फिर वह स्वयं ही स्वयं को दग्ध हो जाने देती है.
और सब कथा बहुश्रुत है. प्रह्लाद जीवित निकल आते हैं, दीप्त होकर और होलिका भस्मीभूत हो जाती है, सदा के लिए कलंकित होकर.

होलिका की इस गाथा को होली से जोड़ने के लिए लोककथा के जगत् में चलते हैं,
जो संभवतः राजस्थान और हिमाचल की लोककथा है।
इसमें पौराणिक होलिका के प्रेमी हैं- इलोजी.
भाई, बहन और भतीजे की कहानी में वे एक चौथे अज्ञात किरदार हैं.
कहते हैं, होलिका की मृत्यु को बाद वे उसकी ही भस्म रमाकर मत्त घूमते रहे, शिव की तरह, परंतु उनकी सती नहीं, रति भस्म हुई थी
और उसकी अमूर्तता में रसलीन बने आजीवन डोलते रहे.
यह कहानी भी होलिका के तो नये आयाम प्रकट करती है,
होली के आयाम नहीं प्रकट कर पाती.

इसीलिए कई बार प्रतितर्क दिया जाता है कि
यह पर्व कोई ऐतिहासिक वृत्त नहीं, प्राकृतिक प्रतीक लिए है।
कहते हैं, वैदिक काल में "वासन्तीय नवसस्येष्टि होलकोत्सव" मनाया जाता था, जिसमें वसन्त ऋतु में आई हुई रबी की नवागत फसल को यज्ञ में डालकर फिर श्रद्धापूर्वक ग्रहण किया जाता था.

यह वैदिक होलकोत्सव होलक शब्द से बना है और होलक शब्द होला से और बाद में होला से ही होली बना है।
लोकभाषा में आज भी रबी के मौसम में होने वाली अधपकी फली युक्त फसल अर्थात् जिन पर छिलका होता है जैसे हरे चने आदि को होला कहते है। जब इस होला को तिनकों की अग्नि में भूना जाता है, तब उसे होलक (स्त्रीलिंग में होलिका) कहते हैं।
इस होलिका में जो हरा चना होता है, उस पर जो छिलका होता है,
वह तो जल जाता है, परंतु अंदर में जो प्रह्लाद (अन्न, चना) होता है, वह नहीं जलता, वह अग्नि में मृदुपक्व हो सुरक्षित रहता है ।
इसी को होलिका और प्रह्लाद वाली कहानी के साथ जोड़कर प्रतीकात्मक रूप में बताया गया है।

क्या पता, बात उलटी हो,
होलिका के नाम पर दग्ध कच्चे चने को होलका कहा जाने लगा हो, क्योंकि वैदिक काल में ऐसे किसी होलकोत्सव का वर्णन तो नहीं मिलता.
यह अवश्य है कि इसी समय वसंतोत्सव के रूप में मदनोत्सव मनाने का उल्लेख तो मिल जाता है।
पर समय के साथ उसकी परंपरा में भी बहुत परिवर्तन परिवर्धन हुए लगते हैं।

ऐसा लगता है कि किसी आदिम काल से चल रही परंपरा के लिए शास्त्र व लोक दोनों की कथाएँ जोड़ी गईं,
पर वे सब रह तो अधूरी ही गईं.
बहुत संभव है कि बहुत आदिम काल से गतवर्ष की होलिका और नववर्ष के उमंग का पर्व चलता रहा होगा,
जिसमें होलिका, इलोजी और कृष्ण-गोपी की कथाएँ जुड़ गई होंगी।
धूल के साथ खेली जा रही बहुत हुड़दंगी होली सचमुच धुलंडी ही रही होगी, पर श्याम के रंग में रंग कर कालांतर में रंगीन हो गई होगी, रंग व गुलाल लेकर. समाजशास्त्र की भाषा में कहें, तो लिटिल ट्रेडिशन के ग्रेट ट्रेडिशन बनने के साथ रंग-अबीर-गुलाल बढ़ गए होंगे।

होली को थोड़े और बड़े फलक पर फैला कर देखते हैं.
इसके लिए सबसे पहले वसंत के दो छोर देखते हैं.
हमने देखा कि वसंत ऋतु से अधिक ऋतुसंधि है।
शीत और ग्रीष्म के मध्य स्थित.
इस ऋतुसंधि के रूप में साल में एक नहीं, दो वसंत हो जाते हैं,
एक, शीत के आरंभ में,
दूसरा, शीत के अंत में.

इनमें एक का प्रतिनिधित्व दीपावली करती है,
दूसरे का प्रतिनिधित्व होली.
रंग और नूर के मेले की तरह होली व दीपावली हिंदू आस्था के दो शिखर पर्व हैं, बहुत भिन्न और दूर होकर भी बहुत साम्य लिए.
-दोनों ही नववर्ष के आरंभ हैं.
-दोनों में उत्सव का आनंद है,
-दोनों में मिष्टान्न का माधुर्य है,
-दोनों सामाजिक मिलन के पर्व हैं.

दोनों के वैषम्य में निहित साम्य भी जैसे एक प्रकार का अनुप्रास लिए है, हर एक की अपनी अनुभूति व अभिव्यक्ति में.

प्रकृति प्रेमी कहते हैं-
एक से शरद् का आगमन है,
दूसरे से ग्रीष्म का.

ज्योतिर्विद् कहते हैं-
एक कृष्ण पक्ष का आरंभ है,
तो दूसरा उसका अंत है.

संस्कृतिवेत्ता कहते हैं-
एक की महत्ता पूरब में अधिक है,
तो दूसरे की पश्चिम में.

कलाविद् कहते हैं-
एक में तन पर रंग लगाते हैं,
तो दूसरे में घर पर रंग चढाते हैं.

क्रांतिकारी कहते हैं-
होली अकिंचनता में भी गौरव से बोलती है,
दीपावली संपन्नता के वैभव में डोलती है.

समाजशास्त्री कहते हैं-
होली में बहुत साम्यवादी अभेद है,
दीपावली में कुछ कुछ तो वर्गभेद है.

समय के राही कहते हैं-
एक त्यौहार है, प्रखर होते दिवस का,
तो दूसरा पर्व है, अँधियारी रात का..

रात के प्रहरी कहते हैं-
एक में देहरी पर दीप जलाते हैं,
तो दूसरे में चौराहे पर होलिका जलवाते हैं.

धर्म कहता है-
एक में राम की विजयगाथा है,
तो दूसरे में कृष्ण की रासकथा है.

दर्शन कहता है-
होली वैष्णव परंपरा के कृष्ण का पर्व होकर भी उसमें शैव आह्लाद और उन्माद है,
दीपावली वैष्णव देवी लक्ष्मी का पर्व होकर भी उसमें शाक्त परंपरा की तांत्रिकता को प्रश्रय है.

बालमन कहता है-
एक में पटाखे चलते हैं,
तो दूसरे में पिचकारी चलती है.

यौवन कहता है-
होली प्रेम का मादक पर्व है,
दीपावली सौंदर्य का आह्लादक उत्सव है.

पुरुष कहता है-
होली पर्व है, घर से बाहर तक उल्लास का,
दीपावली उत्सव है, घर से द्वार तक उजास का.

स्त्री कहती है-
होली में उन्मुक्तता है प्यार की,
दीपावली में दिव्यता है श्रृंगार की.

संगीतप्रेमी कहते हैं-
होली की हुल्लड़ के हुड़दंग में भी स्वर का माधुर्य है,
दीपावली के पटाखों की शोर में भी रंगों का सौंदर्य है.

रंगप्रेमी कहते हैं-
होली स्पर्शमय है, जिसमें देह भी दीवारों सी सज जाती है,
दीपावाली दृष्टिमय है, जिसमें दीवार भी देह सी बोलने लग जाती है.

जगत् कहता है -
होली काल है, सब कुछ भूल जाने का और
खो जाने का,
तो दीपावली पल है, बहुत कुछ याद करने का और
जो है, उसे सहेज जाने का.

और
जीवन कहता है -
होली अवसर है "राँझन" के भाने का,
दीपावली उत्सव है "साजन" के पाने का.

कहते हैं, होली आशा का नहीं, उल्लास का पर्व है।
होली में दुनिया को रंग लगाने का उल्लास है,
पर दुनिया में रंग भरने की आस भी है
वह "रंग के राग" से चलकर "राग के रंग तक" की यात्रा है,
क्योंकि वह देह से नेह तक
और
नेह से देह तक पहुँचने का पर्व भी है.
तभी तो वह "रग रग में राग, रोम रोम में रंग" बनती है.

होली ऋतुराज का रंगपर्व है,
वह जब माहौल में बिखरती है और मौके पर निखरती है,
अपनी हथेलियों से रंग लगाने का ही नहीं,
अपने हाथों से रंग भरने का भी आवाहन करती है.
होली अवसर देती है,
धूल को गुलाल करने की,
हथेली को गाल से जुड़ने की.

होली संस्कृति की है और बहुत असंस्कृत भी है,
वह अभद्र भी है, जरा वाइल्ड या वन्य भी.
उसमें एक सर्वाहारापन है, फकीरी का फक्कड़पन है.
पर उससे आगे हुड़दंगपन है,

भारतीय परंपरा के अधिकांश पर्व कहीं न कहीं धर्म की ओट या आलंबन लिए हैं,
यहाँ पर्व में भी व्रत होगा, न होगा, तो भी पूजा तो होगी
यह और बात है कि व्रत में भी प्रसाद होंगे, पकवान होंगे.
होली शुद्ध पर्व है,
जहाँ कोई रीति नहीं, कर्मकांड नहीं, पूजा नहीं, औपचारिकता नहीं.

वैसे जगत् में कुछ लोग ऐसे होते ही हैं,
जो व्रत को भी पर्व बना देते हैं,
और
जीवन में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं,
जो पर्व को भी व्रत बना लेते हैं.
यह मौके से ज्यादा मिज़ाज पर निर्भर करता है कि
कौन किसमें क्या रंग पाए या दिखाए.
कुछ हथेलियाँ पीले होते ही रंग खो देती हैं,
तो कुछ रुख़सार बिना होली के गुलाल की तासीर पाए दिखते हैं.

कहते हैं,
जीवन अक्सर होली और होलिका के ध्रुवों में बँटा है,
लोग होली चाहते हैं और उन्हें होलिका मिलती है,
और जिनको जीवन में होली नहीं मिलती,
उनको जीवन होलिका दिखने लगता है,
या वे स्वयं होलिका बना लेते हैं.
प्रकारांतर से कहें, तो
रंग नहीं भरे, तो आग स्वयं भर जाएगी.
इसीलिए कुछ लोग कहते हैं,
जीवन के दो आयाम हैं-
बसंत और बस अंत.

एक बात और है।
होली वासंती है, पर कुछ अतिरिक्त भी है।
वसंतरूपी ऋतुफल अब परिपक्व होकर लाल हो चुका होता है
और बसंती पीले से मिलकर बहुत गुलाबी भी.
इसलिए इसकी हुलास अलग है,
इसमें वसंत की हूक भी है,
और रंग-तरंग भरी होली की हुड़दंग भी.

जैसे हर उत्सव का अपना उल्लास है,
वैसे हर एक की अपनी हुलास भी हो सकती है,
पर जो रंगों का उत्सव है,
उसमें तो वह हुलास पोर-पोर में समा जाती है,
क्योंकि हर बूँद में एक अयाचित स्पर्श है,
कण-कण में रज से मिल कर एक हो जाने की दस्तक है.

इस रजता से ही लगता है कि होली साधारणता का पर्व है।
असाधारण हो जाना हर एक की कशिश है.
पर हर असाधारणता बहुत असहज भी करती है,
एक दृष्टि से होली उनके लिए प्राकृतिक चिकित्सा लेकर आती है,
जिनको श्रेष्ठता का विकार घेर गया हो,
ताकि वे जरा नीरोग हो सकें. पर पथ्य सबको नहीं सुहाते.
खेल को कोई खेले ही नहीं, तो भी देख कर आनंद ले सकता है,
पर वह चाहे तो ही न. हर होली गाँठ खोलने के लिए होती है, गाँठ बाँधने के लिए तो और सारे दिन हैं.
ग्रंथि नहीं खुलती, तो बहुत कुछ इसलिए कि हमारा एक चेहरा होता है, हमारी छवि बना. होली सारे चेहरों को एकरंग कर देती है। हम हमीं को देख मुसका सकें, चकित हो सकें, चकोर बन किसी को अपने रंग में रँगा देख सकें.

रंग की बात चली है, तो वसंत पर कोई पुरानी दुविधा स्मृत हो आई है-
कभी प्रश्न उठाया था कि वासंती रंग किसे माना जाए.
जितना तलाशा, प्रसन्न प्रकृति और गहन संस्कृति दोनों के उत्तर भिन्न रहे. जिससे पूछा, सबके सप्तक के पंचम निनाद अलग थे-

हरियाली की धरती में खड़े किसान ने कहा-
"मन का उल्लास जब सरसों के चटक फूलों में खिलता है, वह पीला रंग है बसंती."

सुनहरी रेतीली सूरमाओं की धरती पर प्रवासी पति को याद करती विरहन ने कहा-
"केसरिया रंग ही तो है बसंती."

दर-दर, घर-घर, डगर-डगर फिरते रमते जोगी ने कहा-
"कुछ इस मिट्टी से जुड़े और कुछ इस पहाड़ के गेरू से रँगे फकीर के वसन का रंग है बसंती."

वसंत पंचमी पर सरस्वती की मूर्तियों में मगन पाठिका ने कहा-
"मन की निर्मलता और हृदय की सरलता लिए शुभ्र रंग ही तो है वासंती.

कई बार लगता है, लाल और पीले के बीच तमाम शेड्स हैं, वासंती के,
जिसे जो रुचे, चुन ले.

इसी क्रम में वसंत की ओर पुनः लौटते हैं।
बात वसंत की चली थी, तब भी वासंती रंग सी ही दुविधा उठी थी कि किसे सचमुच वसंत कहा जाए.
हजारी प्रसाद द्विवेदी का एक लेख है-
"वसंत आ गया है"
उनकी ललित सूक्ति है-
वसंत आता नहीं, ले आया जाता है
और जिसमें जितना सामर्थ्य है, वह जब चाहे ले आता है.

सच कहें,
तो सबका अपना वसंत है-
शरद् शाखाओं का,
ग्रीष्म फलों का,
वसंत पुष्पों का
और
वर्षा पत्तों और वृंतों का.

और मानव मन का वसंत?
क्या पता,
कौन किसपर मचले?
कोई ग्रीष्म की तपती धूप में सूफी बनकर नाचता है,
कोई शरद् के शीत में लामा बनकर मंत्र बाँचता है,
कोई वर्षा की बूँद में वैष्णव होकर गीत सुनाता है,
तो
कोई वसंत में भी संत होकर अपनी धूनी रमाता है.