शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

संस्कृत : देवभाषा बनाम लोकभाषा

"संस्कृत : देवभाषा बनाम लोकभाषा"
(एक कम बोध वाले का शोध)

इस बात पर किसी को आपत्ति नहीं कि
संस्कृत बहुत प्राचीन है,
बहुत व्यवस्थित है,
बहुत परिमार्जित है,
बहुत प्रशंसित है.

किंतु
संस्कृत पर कुछ समीक्षात्मक बातें-

संस्कृत बहुत वैज्ञानिक है, परंतु इसीलिए बहुत कठिन भी हो गई.
संस्कृत बहुत देवभाषा है, परंतु इसीलिए बहुत अलौकिक हो गई,
संस्कृत बहुत साहित्यिक है, परंतु इसीलिए बहुत अनेकार्थक शब्दकोश वाली भी हो गई.

संस्कृत वाणी में कठिन है, बुनावट में जटिल है,
परंतु
संस्कृत की जटिलता भी एक रहस्य है.
कोई भाषा जन्म से इतनी जटिल या प्रौढ़ नहीं होती,
पर किसी अन्य पठित भाषा के इससे पुराने के होने के बहुत साक्ष्य नहीं हैं.
वैदिक बनाम लौकिक के अंतर से पता चलता है कि
इसका भी एक प्रवाह रहा है.
पाणिनि ने इसे भाषा कहा,
और
बाद की परंपरा ने संस्कृत कहा,
तो इतना तय है,
कुछ तो मूल रहा होगा, जो भिन्न रहा होगा
और कालांतर में परिष्कृत हुआ होगा.

कम लोग जानते हैं,
संस्कृत शब्द स्वयं अपाणिनीय है.
अष्टाध्यायी की मानें,
तो शुद्ध शब्द सँस्स्कृत या संस्स्कृत होगा.

संस्कृति ने संस्कृत की शुद्धता पर बहुत आग्रह रखा है,
यह बहुत अच्छा है,
परंतु कुछ बुरा भी है.
फिर हर नाममात्र की त्रुटि अक्षम्य सी मान ली जाती है.
सुना है,
दयानंद सरस्वती को काशी के विद्वानों ने केवल इसलिए समवेत स्वर में पराजित घोषित कर दिया कि बोलने में उनसे कुछ व्याकरणिक त्रुटि हो गई.

संस्कृत की कठिनाई कहाँ या कहाँ-कहाँ है,
-विभक्ति, जो शब्दों से अलग नहीं हुई,
-लिंग, जो कभी वैज्ञानिक नहीं हुआ,
-प्रत्याहार, जो रक्षा में हत्या हो गई,
-पर्याय, जो साहित्य में सागर बन गई.

संस्कृत के अध्ययनारंभ का आधा बल शब्द रूप व धातु रूप के स्मरण में चला जाता है,
इनमें धातु रूप अर्थात् क्रिया का स्वरूप तो
लगभग सभी भाषाओं में वचन व काल के अनुसार बदलता रहा है,
परंतु संस्कृत में पद रूप पद ही नहीं,
लिंग के अनुसार भी बदलता है.
पदरूप भी पदांतता पर चलता है,
अकरांत हो तो अलग,
उकरांत हो तो अलग.
यहाँ यदि विभक्तियाँ हिंदी अंग्रेजी की तरह पद से पृथक् होतीं, तो आधा श्रम कम हो जाता.

संस्कृत के प्रति सामान्य धारणा है कि
यह सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है,
परंतु यह अर्धसत्य है,
क्योंकि
ध्वनि विज्ञान व व्याकरण में बहुत व्यवस्थित क्रम लिए होकर भी दो क्षेत्रों में बहुत अवैज्ञानिकता या असमरूपता से जूझती है.
इनमें सर्वप्रथम है, लिंग.
विद्वान से विद्वान व्यक्ति भी संस्कृत में लिंग शुद्धता का दावा नहीं कर सकता.
उदाहरणार्थ
नारी के तीन पर्याय लें-
स्त्री -स्त्रीलिंग
दारा -पुल्लिंग
कर्ल्वम् -नपुंसकलिंग

यह वस्तुतः साहित्यिक छूट के लिए विकसित लिंगपरकता थी.
संस्कृत साहित्य विश्व के किसी भी साहित्य से श्रेष्ठ है, उपमाओं व रूपकों में.
यहाँ जब किसी के लिए उपमा गढ़ी जाती थी,
तो उपमान को उपमेय के ही लिंग में ढालने पर बल होता था,
इससे शब्दकोश भी बढ़ा और लिंगविधान की अस्पष्टता भी.

संधि व समास संस्कृत के गुण रहे हैं,
परंतु इनसे शब्दों की जटिलता कुछ बढ़ती भी है,
विशेषतः जब संधि को कुछ स्थितियों में वैकल्पिक की बजाय अनिवार्य कर दिया जाये.
समास में दो पद विभक्ति छोड़ कर मिलते हैं,
अत: वह सुविधानुसार अर्थ निकालने का विकल्प दे जाता है.

संधि समास पर इतने बल का कारण यहाँ का छंदविधान भी रहा है.
संस्कृत ने बहुत प्रारंभ से ही छंदों में अतुकांतता पर बल दिया,
परंतु आंतरिक तौर पर वर्णों ही नहीं,
मात्राओं तक की संख्या निश्चित कर दी और इससे भी आगे बढ़कर प्रत्येक चरण में उनका क्रम तक निश्चित कर दिया.
ऐसे में यदि पर्यायवाचियों का विशाल समांतर कोश और पर्याप्त संधि समास का विधान न होता,
तो पद्यरचना ही बहुत कुछ असंभव हो जाती.

संसार की हर विकसित भाषा में एक वृहत् समांतर कोश होता है,
परंतु संस्कृत का समांतर कोश इतना विशाल है कि
पर्याय का पर्याय जुड़ते-जुड़ते सहस्रनाम स्तोत्र बनता जाता है.
इतने पर्यायवाची साहित्य को तो समृद्ध करते हैं,
परंतु
वैज्ञानिकता के लिए कुछ संकट भी पैदा करते हैं,
क्योंकि वहाँ एक शब्द को अंततः एक ही अर्थ में रूढ़ होना पड़ता है.
संस्कृत कभी "मघवा मूल, विडौजा टीका' बनी,
तो इसमें कुछ भूमिका पर्यायवाचियों की भी थी.

पद्य में जहाँ माधुर्य पर बल रहता है,
वहीं गद्य में गांभीर्य पर बल चला जाता है,
परंतु
गद्य का गांभीर्य
वाक्यों की सुदीर्घता, शब्दों की जटिलता, पदों की दुरूहता पर.
संस्कृत का अपना पांडित्यवाद रहा है,
जो श्रीहर्ष, भारवि, माघ में तो रहा ही है,
परंतु
गद्य कवियों ने तो इसमें चरम ही अपनाया.
बाणभट्ट की कादम्बरी में
विशेषणों के विशेषण ऐसे जुड़े हैं कि
विंध्याटवी वर्णन में 65 विशेषण हैं,
कादम्बरी वर्णन में 72 पंक्तियाँ हैं.

प्रत्यय व प्रत्याहार संस्कृत की वैज्ञानिकता व व्याकरणपरकता के मूल आधार रहे हैं.
पाणिनि स्वयं में एक दर्शन हैं,
वे अभिव्यक्ति की सूक्ष्मतम विधा जानते हैं.

परंतु
प्रत्यय व प्रत्याहार के अपने संकट भी हैं.
वस्तुतः
संस्कृत में प्रत्ययों का पूरा विराट् संसार है,
जो तद्धित और कृदंत रूप में बड़े अप्रत्याशित  रूप में जुड़ते हैं.
कभी कोई प्रत्यय आता है,
तो लगभग पूरा ही बदल जाने के लिए,
या फिर पूरा ही विलुप्त हो जाने के लिए.
पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी को
चौदह माहेश्वर सूत्रों पर आधारित कर रखा है,
ये सूत्र प्रत्याहारों पर आधारित हैं
और
इन प्रत्याहारों की प्रकृति कुछ कुछ प्रत्ययों सी है.
कभी कभी तो लघुसूत्र पूरा बड़ा सा पदसमूह ही विलुप्त करने आता है,
"चूटू" की तरह.

संस्कृत बहुत वैज्ञानिक है,
परंतु भाषा के सभी अंगों में नहीं.
ध्वनि वैज्ञानिक है,
पर लिपि वैज्ञानिक नहीं.
वर्णक्रम जितना व्यवस्थित है,
संसार में संभवतः किसी अन्य भाषा में नहीं.
परंतु
लिपि पर बात उतनी सटीक नहीं.

सामान्यतः संस्कृत की जे दुविधा उसकी लिपि से आती है,
जिसपर ध्यान कम जाता है.
किसी शब्द के अंतिम वर्ण को सामान्यतः हलंत उच्चारण से बचाने के लिए अधिकांश पदों के अंत में विसर्ग (:) या हलंत म (म्) लगने से रेफ व अनुस्वार को वर्ण के ऊपर लगाना पड़ता है,
तमाम अधूरे वर्णों के ऊपर अगले वर्ण को चढ़ाना पड़ता है,
जिससे जटिल पदावली और दुरूह दिखने लग जाती है.

एक भाषा बहुत व्यापक होगी,
तो उस भाषा की कुछ बोलियाँ होंगी,
कई लिपियाँ होंगी.
संस्कृत की जो लिपि आज है,
वह कल नहीं थी.
सैंधव लिपि पढ़ी नहीं जा सकी है,
परंतु
आज जो देवनागरी है,
क्रमशः
ब्राह्मी, खरोष्ठी, शारदा व सिद्धमातृका से होकर आई है.
देवनागरी लगभग उतनी ही पुरानी है,
जितनी कि हमारी हिंदी.

संस्कृत में
देवभाषा बनाम लोकभाषा
या
शास्त्र बनाम जनभाषा का विवाद सनातन रहा है.
जनभाषा रहे होने के साक्ष्य में लोग इसकी
अस्तित्वगत दीर्घकालिकता और
साहित्यिक विशालता को प्रस्तुत करते हैं.
परंतु
यह संभवतः पर्याप्त आधार नहीं.
भाषा कितनी जीवित व जीवंत थी,
इसकी पहचान
काव्य नहीं, नाट्य से हो सकती है,
क्योंकि वह जनसामान्य का वर्णन नहीं,
चरित्र चित्रण करता है.
सीता, प्रतिहारी, ग्राम्यजन सब प्राकृत बोलते हैं.

संस्कृत में कतिपय आयातित शब्द वैदिक काल से मिल जाते हैं.
अथर्ववेद के आलिगी-बिलगी जैसे पदों को यास्क ने निरर्थक माना था, बाद में पाया गया कि वे अरब क्षेत्र की नागदेवियों के नाम हैं.
शाकप्रिय पार्थिव के लिए पृथक् से समास रखा गया है,
उसमें पार्थिव शब्द मूलतः पारसी ईरानी क्षेत्र के शक व पहलव शासकों के लिए था, जो क्रमशः सीथियन व पार्थियन कहलाते थे.
पालक मूलतः इसी क्षेत्र का बहुपोषक शाक था,
जिस कारण शाकपार्थिव नाम सार्थक हुआ था.
यहाँ तक कि संस्कृत के माने जाने वाले गंगा, इंद्र, सांख्य, रावण आदि पदों का संस्कृत व्याकरण को तोड़ मरोड़ कर अर्थ निकालना पड़ता है.
संभ्रान्त, नितांत जैसे शब्द संस्कृत सम दिखकर भी बांग्ला भाषा के हैं.
ज्योतिष के होरा व अबकहरा चक्र के नाम से स्पष्ट है, इनपर अरब की छाया है.
पुराने ऋषियों में लोमश, मय आदि का नाम श्रद्धा के साथ लिया जाता है,
परंतु दोनों वैदेशिक थे.

संस्कृत साहित्य
कई विरोधाभासी परम्पराओं का भी शिखर रहा है.
यहाँ सबसे छोटे सूत्र भी मिलेंगे,
तो सबसे बड़े वाक्य भी.
सबसे चरम दार्शनिक गंभीरता मिलेगी,
सबसे अश्लील साहित्यिक परंपरा भी.
यह वह भाषा है,
जिसने सबसे ऊँची मर्यादाएँ भी बनाईं,
सबसे कमतर वर्जनाएँ भी अपनाईं.

एक रोचक तथ्य है कि
संस्कृत की अधिकांश महान व प्रसिद्ध सूक्तियाँ
किसी महान व प्रसिद्ध धर्मग्रंथ की नहीं हैं-
"वसुधैव कुटुम्बकम्" हितोपदेश की उक्ति है,
"सर्वे भवंतु सुखिन :" कालिदास की विक्रमोर्वशीयम् का किसी के द्वारा संशोधित नटवचन है,
विश्वधर्मसंसद में विवेकानंद द्वारा उद्धृत प्रसिद्ध
"नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसार्णमिव" श्लोक
शिवमहिम्नस्तोत्रम् का अंश है.

मैं संस्कृत का ऋणी हूँ,
जिसमें विश्व का प्राचीनतम वाङ्मय आज भी सुरक्षित है,
मैं संस्कृत का ऋणी हूँ,
जिसमें विश्व का तब का विशालतम वाङ्मय विरचित है,
मैं संस्कृत का ऋणी हूँ,
जिसमें नैतिकता, आध्यात्मिकता व साहित्यिक रूपकात्मकता का शिखर रूप निदर्शित है,
मैं संस्कृत का ऋणी हूँ,
जिसकी संस्कृति आज भी जीवित है.
मैं संस्कृत का ऋणी हूँ,
जिसमें विश्व का प्राचीनतम ही नहीं, विचारों में उदारतम व अधिकांशतम धर्म परंपरा निहित है.
मैं संस्कृत का ऋणी हूँ,
जिसका आदिग्रंथ ऋग्वेद
"एकं सत्यं विप्रा बहुधा वदन्ति"
और
"आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत :"
का उद्घोष करता है.

संस्कृतविदों का एक पुराना शग़ल है,
वैदेशिक जनों को कोसने का-
-भारतीय संस्कृति की नकल कर अपने ज्ञान का नाम देने के लिए,
-भारतीय संस्कृति के महान ग्रंथों की चोरी कर अपने ज्ञान का नाम देने के लिए,
-भारतीय संस्कृति के महान ग्रंथों में प्रक्षिप्त करने के लिए.

वे कीथ, ग्रियर्सन, मैक्समूलर, जोन्स, विंटरनित्ज, विल्सन, हॉपकिंस, मैकडॉनेल, श्रेडर, जैकोबी, बर्नेट, बेशम, कनिंघम, मिराशी, प्रिंसेप के नामों से परिचित तो होते हैं,
उनके अवदानों से पूरे परिचित हों,
यह आवश्यक नहीं.
ये विद्वान संस्कृत के वैश्विक राजदूत व प्रसारक बने,
पुराने साहित्य के अन्वेषक व उद्धारक बने.
विलियम जोन्स वह विद्वान थे,
जिन्होंने सर्वप्रथम संस्कृत भाषा को अन्य वैश्विक भाषाओं से जोड़ने में सफलता पाई.
प्रिंसेप वह विद्वान थे,
जिन्होंने अथक प्रयत्न कर सर्वप्रथम ब्राह्मी लिपि पढ़ने में सफलता पाई.
ऐसी कहानी सबकी है,
किसी ने वैज्ञानिकता तलाशी,
तो किसी ने ऐतिहासिकता.

संस्कृत संकट में है,
परंतु यह संकट विश्व की तमाम भाषाओं पर है.
संसार में लगभग 7000 भाषाएँ हैं, जिनमें 2000 से अधिक अकेले एशिया में हैं.
ये भाषाएँ मिट रही हैं, हर साल बीस से पचास तक.
इस सदी के अंत तक विश्व का आधी भाषाएँ मिट जाएँगी,
तमाम प्रजातियों की तरह,
तमाम संस्कृतियों की तरह.
संकट
जब कुछ सदियों पुरानी हिंदी पर ही आने लगे हैं,
तो सहस्राब्दियों पुरानी पर कैसे न आएगा.

संस्कृत का मिटना भी वस्तुत: उसकी संततियों में जीना है,
क्योंकि अमेरिका-यूरोप की लगभग समस्त भाषाएँ, मध्य एशिया की आधी व भारत की तीन चौथाई भाषाएँ की जननी या मौसी संस्कृत है.

भारत में संस्कृत की सुरक्षा के लिए जो त्रिभाषा सूत्र (भाषा = मातृभाषा, राष्ट्रभाषा और विश्वभाषा) दिया गया था,
उससे कुछ रक्षा तो हुई,
परंतु अपेक्षा पूरी न हुई.

अब विश्वभाषा का युग है,
तो संस्कृत पर खतरे और बढ़ गए हैं.
भाषा एक प्रवाह है और वह अपने युगधर्म के अनुरूप राह बदलती रही है। 

संस्कृत संकट में है.
संस्कृत का संकट भाषा व साहित्य का संकट बाद में है,
वह ज्ञान से अधिक विज्ञान का संकट है.
तब के ज्ञान विज्ञान की
कृतियाँ जब संस्कृत में लिखी गईं,
सारे संसार ने पढ़ा-
दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष
यही तब के मुख्य शास्त्र थे, तब के प्रमुख विज्ञान थे.
इनका विपुल साहित्य आज भी आकृष्ट करता है,
इनकी वैश्विक माँग आज भी यथावत् है,
अत: अपनी विशिष्टता के क्षेत्र में विशेषज्ञता अर्जित कर यह आज भी शिखरस्थ हो सकता है.

संस्कृत के प्रसार में जो संलग्न हैं,
वे सराहनीय हैं,
उनसे अपेक्षा है,
जब वे संस्कृत भाषा का ज्ञान दें,
तब उसके विशाल साहित्य का संक्षिप्त परिचय भी दें,
जब वे भारतीय संस्कृति का अभिज्ञान करायें,
तब उसके गहन दर्शन पर भी कुछ प्रकाश डालें.
वे जब उसकी वैज्ञानिकता का गुणगान करें,
तब उसके वैज्ञानिक ग्रंथों का उद्धरण भी दें.

संस्कृत जीवित है,
पर जीवंत नहीं है.
वह प्रतिष्ठित है,
पर प्राणवंत नहीं है.
वह देवभाषा है,
पर लोकभाषा नहीं है.
संस्कृत के जीवन-मृत्यु
अथवा
साहित्य बनाम व्याकरण पर कभी कही गई पुरानी उक्ति स्मृत हो आई है-
"संस्कृत का व्याकरण इतना कठिन है कि
वह इसे जीने नहीं देगा
परंतु
संस्कृत का साहित्य इतना विशाल है कि
वह इसे मरने भी नहीं देगा."

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

जाति, धर्म और राष्ट्र : खटकते मसले, भटकते फैसले

"जाति, धर्म और राष्ट्र : खटकते मसले, भटकते फैसले"
मौसम खुशनुमा है और
माहौल खुशनुमा नहीं.
हर कुछ रोज में कुछ दंगे-पंगे हो जाते हैं, 
कभी राष्ट्र के लिए, कभी धर्म के किये.
कभी जाति के लाभ के लिए, कभी जाति के अपमान के लिए.
वर्तमान परिदृश्य में
धर्म और राष्ट्र चर्चा में हैं,
अब जाति भी आ गई है.
भारत उस संसार में रहता है,
जहाँ धर्म छोड़े जा सकते हैं,
जाति नहीं छोड़ी जा सकती.
कानून इसकी इजाज़त नहीं देता
और वह इसलिए कि जाति नहीं होगी,
तो आरक्षण कैसे दिये जायेंगे.
आज जिस व्यवस्था के लिए किसी धर्म या ग्रंथ को कोसते हैं,
अक्सर उसके परिष्कार के लिए वही व्यवस्था विपरीत रूप में अपनाई जा रही होती है.
बीते कल का मूल्यांकन सदा वर्तमान से नहीं हो सकता,
क्या आनेवाले कल का कोई मूल्यांकन आज करेगा कि
एक आवश्यकता से जन्मी यह आरक्षण व्यवस्था कैसे नव वर्ण व्यवस्था का रूप लेती गई,
अपने ही आरक्षण वर्ग की हर उच्च जाति कैसे निम्नक्रम के लिए रास्ते बंद करती गई.
एक ऐसा चक्र, जिसका कोई रिवर्सल नहीं.
और यहाँ तक कि स्वयं सर्वोच्च सेवा में चयनित सदस्य भी अपने परिवार को इसका लाभ न देने के लिए तैयार नहीं.
अपने पुनरीक्षण को सहमत नहीं.
इतिहास के अपने बर्बर नियम हैं,
कभी ऊपरी क्रम से आहत हुई जाति
अपने ऊपर आने पर अपने नीचले क्रम के लिए
कमोबेश वही तरीके अपनाती है,
जो कभी उससे ऊपर वाली अपनाती आई थी.
इसलिए इस व्यवस्था में यह विचार भी नहीं किया जाता कि
जो आरक्षण का अपात्र है,
वह लाभ लेकर अनारक्षित के लिए संकट बाद में खड़ा करेगा,
अपने ही साधनविहीन वर्ग के लिए संकट पहले खड़ा करेगा.
रोटी और बेटी के साथ जन्मी जाति व्यवस्था
बेटी से तो ऊपर उठ जाएगी,
पर मक्खन लगी रोटी के आदी हो चुके तबके को
दूसरे वंचितों को भी रोटी मिलने की संवेदना दे पाएगी,
यह संदिग्ध है.
और अब धर्म.
एक खबर है-
नौ देशों में धर्म व्यक्तिगत स्तर पर लगभग समापन की ओर है-
Australia, Austria, Canada, Finland, Ireland, the Netherlands, New Zealand, Switzerland and the Czech Republic.
यहाँ उनकी महत्ता और जरूरतें लगभग नहीं सी रह गई हैं.
यह खबर तब आई है,
जब मध्य एशिया से बर्बरता के चरम झंडाबरदार

दक्षिण एशिया से धर्म के गेरुए पहरुए जागे हुए हैं.
एक प्रतिदिन जघन्यता की नजरें पेश कर रहा है,
दूसरे सहिष्णुता सिद्ध करने में असहिष्णु हुए जा रहे हैं.
ऐसा लगने लगा है कि
जमीनी दुनिया पर आसमानी किताबें भारी पड़ने लगी हैं,
वह भी तब, जब विज्ञान व मानवता के युग के द्वारा
अंधयुग को छोड़े सदियाँ गुजर गई हैं.
धर्म किसी और लोक के नाम पर
इस लोक में लड़ा जाने वाला युद्ध बनकर रह गया है,
और सच तो यह है कि
धर्म के लगभग तीन चौथाई रास्ते आपको
तह से अँगुल भर भी ऊपर नहीं उठाते
और
लगभग एक चौथाई रास्ते नरक की तरफ ही ले जाते हैं.
स्वर्ग के लिए धर्म नहीं, धार्मिकता चाहिए.
और
सच कहें तो धार्मिकता नहीं, आध्यात्मिकता चाहिए.
समस्त धर्म दिव्य स्रोत से उत्पन्न माने जाते हैं,
परंतु किसी भी धर्म के ग्रंथ की एक भी पंक्ति ऐसी नहीं मिली,
जिसे बहुत सामान्य व्यक्ति बहुत सहज बुद्धि से नहीं सोच सकता
और जरा तल्ख़ होकर कहें,
तो यदि वह सहज बुद्धि से ही जरा गहरे सोचे,
तो उनसे बेहतर नहीं सोच सकता.
संभव है कि
धर्मनुयायियों ने जो रंग चढ़ाए हैं,
उनमें धर्म के जो मूल रंग हैं,
उससे सर्वथा भिन्न हों,
परंतु कोई बहुत रास्ता नहीं कि
व्यक्ति को उसकी संस्कृति से
और
संस्कृति को उसके व्यक्तियों से अलग देखा जा सके.
अत: जीवन और जगत् से परे तक की आशा जगाने वाले
धर्म से गहरी निराशा जन्मी है
और
बर्बर रहे या हो रहे धर्म के लिए सनी देओली ज़ुबान में कहें, तो
ये ढाई अक्षर का धर्म जब किसी पर पड़ता है,
आदमी उठता नहीं, बस गिरता चला जाता है.
युगधर्म की बात करते करते लगता है कि धर्मयुग में आ गए हैं,
भविष्य से वर्तमान नहीं, अपितु मध्यकाल टकराने लगा है.
वर्तमान अपने भविष्य के प्रति आशंकित सदा रहता आया है,
परंतु वह सदा इतना आतंकित रहा हो,
यह जरूरी नहीं.
धर्म की विडंबना है कि
धर्म में हम जितने शुद्धतावादी होते जाते हैं,
उतने ही कम संशोधनवादी रह जाते हैं.
जितने अधिक धर्म के विधानों के पथिक बनते जाते हैं,
उतने अधिक पुरातनता के समर्थक बनते जाते हैं.
उदार से उदार धर्म भी अंतस् में बहुतेरी संकीर्णताएँ लिए होता है,
कोई धर्म कितना उदार है,
बस एक बार आलोचना कर देख लें.
धर्म अपनी आलोचना नहीं सह सकता और
इसलिए वह सदा गर्हित ही होते जाने को अभिशप्त है.
हर धर्म क्षमा को महत्व देता है,
सिवाय स्वयं की आलोचना के,
जैसे ही उसकी एक विधि या पंक्ति पर आपत्ति उठाते हैं,
वह सारी क्षमाशीलता भूल मृत्युदाता बनने को उत्सुक हुआ जाता है.
कहते हैं, धर्म गूँगे का गुड़ है,
पर अब वह अंधे की रेवड़ी बनता जा रहा है.
संसार में सबसे सरल है-
धर्म में अंधा होना
और
धर्म का धंधा होना.
धर्म बहुत बड़ी सीमा तक धंधा है,
वह पहले गोरखधंधा ज्यादा करता था,
अब शुद्धता के धंधे में उतर गया है-
प्योर, हर्बल, नेचुरल, ऑर्गेनिक.
यह बुरा नहीं, मगर एक बार धर्म का व्यवसाय से जुड़ना,
कालांतर में वही रंग लेगा, जो उसे राजनीति से जुड़ने से मिला है.
जातिप्रधान व धर्मप्राण भारत का एक सत्य और है,
यहाँ जाति के रंग से राजनीति
और
राजनीति के रंगों से धर्म को देखा जाता रहा है.
और इसी का दूसरा सिरा है कि
लगभग हर समाज की गहरी विडंबनाओं की तरह
व्यक्ति के धर्म से राष्ट्र का प्रेम आकलित किया जाता है.
परीक्षाओं व प्रहारों से आहत होकर दूसरे पक्ष का बड़ा वर्ग
सचमुच वही धारा बेहतर पाने लगता है,
जिसके कि आरोप लग रहे थे.
काश कोई ऐसी दुनिया हो,
जहाँ धर्म बस अंतस् के लिए हो
और
राजनीति बस विकास के लिए.
इसी क्रम में अब राष्ट्र.
मार्क्स ने कहा था-
राष्ट्र एक बुर्जुआ अवधारणा है
और
मजदूरों का कोई राष्ट्र नहीं होता.
मैं सबसे ज्यादा सहमत हूँ,
परंतु जाति की तरह ही देश भी एक तथ्य है,
और दोनों का दर्द उसमें रहनेवाले को पता चलता है.
पर कर्तव्यों की दुहाई देने वाली दुनिया
जब दायित्वों की बानगी नहीं दे पाती,
तो स्पष्ट है कि उस दुनिया के बारे में बोलने वाले बहुत हों तो हों,
उस दुनिया के लिए कुछ करने वाले बहुत कम हैं.
इसलिए जरूरत है कि हम धिक्कार की बजाय
परिष्कार की भाषा में बात करें.
स्वयं के प्रति आत्मश्लाघा इतनी न हो कि
समाज, देश, दुनिया सब गौण नजर आने लगें.
गदर फिल्म में नायक को पाकिस्तान में गिरफ्तार कर लिया जाता है
और
पाकिस्तान जिंदाबाद कहने को कहा जाता है,
वह दुहरा देता है,
पर फिर उसे हिंदुस्तान मुर्दाबाद कहने को कहा जाता है,
वह इनकार कर देता है,
और वह कहता है,
पाकिस्तान जिंदाबाद कहने से हिंदुस्तान मुर्दाबाद कहना कहाँ जरूरी हो जाता है,
परंतु हमारे विश्लेषकों ने साधारण नायक जितना विवेक भी खो दिया है.
और दुःख कुछ राजनीतिज्ञों या बहुत उपद्रवियों से अधिक कई बार
प्रबुद्घों की क्षमता पर होता है,
मीडिया हो या सोशल मीडिया,
लोग मूढ़ों की प्रतिक्रिया में मूढ़ हुए जा रहे हैं.
प्रतिक्रिया का एक दुष्परिणाम होता है कि
वह प्राय: शीर्षासन की गलत दिशा में चली जाती है.
जिसके विरोध में जो खड़ा हो, हो,
पर जो बुद्धिजीवी वर्ग है,
विपक्ष के लिए तर्क के बिल्कुल दूसरे सिरे पर पहुँचा जा रहा है.
और यह मूढ़ों की मूढ़ता को और प्रश्रय ही देगा.
बहुत दुःखद है कि
मूढ़ तो बहुधा असंतुलित रहे हैं,
बुद्धिजीवी भी असंतुलित हो चुके हैं.
हम लगभग, जाति, वर्ग व धर्म देखकर
उसके विचारों का स्पष्ट अनुमान लगा सकते हैं,
हर पोस्ट को पढ़ने से पहले
उनकी ध्रुवीयता को भाँप सकते हैं.
फिर काहे की विचारों की वस्तुनिष्ठता,
काहे का विचारगत संतुलन?
वामपंथी हों या दक्षिणपंथी,
अपने सबसे आवश्यक समय में वे अपने दायित्व निभाने अधिकांशतः असफल रहे हैं,
भारत का स्वतंत्रता संग्राम स्वयं इसका सर्वश्रेष्ठ दृष्टांत है.
भूगोल में एक कोरियोलिस इफेक्ट है,
भौतिकी में फेरेल के नियम पर आधारित.
इसमें बताया जाता है कि
सागर का पानी पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में दक्षिणावर्त्त (क्लॉकवाइज)

दक्षिणी गोलार्ध में वामावर्त्त (एंटी-क्लॉकवाइज) घूमता है.
और इस चक्रीय गति में वह एक सिरे पर अपनी दाईं जमीन को अपरदित करता है,
तो दूसरे सिरे पर अपनी बाईं जमीन को.
सबके मन ऐसे हो गए हैं,
कुछ की बुद्धिजीविता बिना धर्म, संस्कृति, राष्ट्र के खंडन के बिना पूरी नहीं होती,
कुछ की नैतिकता बिना इनके मंडन के आगे ही नहीं बढ़ती.
लेखक न वामपंथी है, न दक्षिणपंथी.
वह सबसे गहरे नास्तिकों की तरह "ईश्वर, कुत्ता और आदमी" लिखता है,
सबसे गहरे आस्तिकों की तरह "धर्म की विज्ञानयात्रा" और "धर्म की इतिहासयात्रा" लिखता है,
और
बहुत तटस्थ की तरह "धर्म-दर्शन" लिखता है,
पर किसी ने कभी ध्रुवीयता का आक्षेप नहीं लगाया.
किसी ने उसकी हत्या नहीं की.
लेखक समस्त विश्व की संस्कृतियों का ऋणी है,
और इसके लिए वह सबसे पहले अपने देश, संस्कृति व धर्म का ऋणी है.
कम से कम यहाँ तो वह ऋणी है ही कि
धर्मनिंदा के नाम पर हुई बर्बरता में किसी भी और धर्म या संस्कृति से उज्ज्वल अतीत रखता है.
समाज में जातिप्रथा या सतीप्रथा की निंदा कीजिए,
धर्म में काल्पनिक कथाओं व निरर्थक कर्मकांडों पर प्रहार कीजिए,
पर इसके लिये समस्त अन्य अवदानों की उपेक्षा कीजिए,
यह कहाँ उचित है.
जितना गैर सृजनात्मक मन होगा,
उतना ही विरुद्ध होने भर में बुद्धिजीविता तलाशेगा.
और नहीं भी तो प्रबुद्घ कभी बुद्ध की राह चल
कभी मैत्री के लिए करुणा, मुदिता, उपेक्षा भी तो अपनाएँ.
आज सब हर विषयवस्तु के संरक्षक बने हुए हैं,
और जो आज प्रहरी है, वही कल का योद्धा न बनेगा,
यह कोई आश्वस्त नहीं कर सकता.
इसलिए अक्सर सोचता हूँ,
सबका प्रतिक्रिया देना जरूरी क्यों हो,
तटस्थ होने का अपराध हो तो हो.
नई आई फिल्म बदलापुर का अंत बड़ा अप्रत्याशित है,
जो खलनायक है,
वह किसी नायिका की लोभ व आवेश में हत्या कर देता है,
नायक चुनकर बर्बर प्रतिशोध लेता है
और अंत में जब नायक खलनायक के साथ यही करने वाला होता है,
खलनायक कहता है-
हमने तो जो किया, वह मूढ़ता और आवेग में किया,
तुम तो समझदार थे, तुम तो इतने बर्बर होने से पहले सोचते.
बुद्धिजीवियों तुम भी यही कर रहे हो,
बहुत दीर्घ बातों के साथ दीर्घ विराम.

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

भर्तृहरि-पिंगला : राग व बैराग की द्विविधापूर्ण प्रेमगाथा

"भर्तृहरि-पिंगला : राग व बैराग की द्विविधापूर्ण प्रेमगाथा"

भर्तृहरि और पिंगला की प्रेम गाथा वैराग्य की पृष्ठभूमि में चलती है 
और इतने रूपांतर रखती है कि 
किसी निष्पत्ति के लिए दुविधापूर्ण हो जाती है. 
जनमानस में इनको लेकर जो कहानियाँ प्रचलित हैं, 
उन्हें मुख्यतः तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-

पहली कहानी में भर्तृहरि रानी पिंगला से प्रेम करते हैं 
और मृगया के समय उनके मना करने के बावजूद मृग की हत्या कर देते हैं। 
मरते-मरते मृग कुछ ऐसा कह जाता है कि 
भर्तृहरि उसके प्रायश्चित में बैरागी हो जाते हैं 
और रानी पिंगला से अनचाहे ही वियुक्त हो जाते हैं। 

दूसरी कहानी में भी राजा मृगया के लिए जाते हैं 
परंतु वहाँ मार्ग में सती का एक दृश्य को देखकर पिंगला की प्रीति की परीक्षा लेना चाहते हैं, 
और मृग के स्थान पर स्वयं रानी पिंगला की मृत्यु हो जाती है 
और आगे की कहानी लगभग यथावत् हो जाती है। 

तीसरी कहानी में पिंगला राजा भर्तृहरि से विश्वासघात करती है 
और उससे मर्माहत भर्तृहरि बैरागी हो जाते हैं. 

एक चौथी कहानी भी है, जो अन्य तीनों को अलग ढंग से जोड़ने का प्रयास करती है. यह कहानी शृंखलाओं के विरोधाभासों को अपनी कल्पना से जोड़ने का यत्न करती है। 
पूर्व दो बहुश्रुत कथाओं की तुलना में यह किंचित् अल्पश्रुत भी है. 
और विस्तृत भी. 

इन कहानियों में भर्तृहरि और पिंगला की गाथा प्रेमकथा के रूप में बहुत दुविधापूर्ण है, 
उनमें एक शृंखला तो पिंगला को पति को गहन प्रेम करने वाली व पतिव्रता के रूप में उनके लिए प्राण देने वाली दिखाती है, 
जबकि दूसरी कथा शृंखला उन्हें पति के साथ छल कर अन्य से प्रेम व व्यभिचार करने वाली सिद्ध कर देती है। 

दोनों धाराएँ लगभग समान रूप से प्रसिद्ध हैं, 
दूसरी मुख्यत: साहित्य के कतिपय लिखित विवरणों में, 
पहली मुख्यत: किंवदंतियों व जनश्रुतियों में. 
एक अन्य तीसरी कहानी भी है, 
जो इन दो कथा शृंखलाओं के विरोधाभासों को अपनी कल्पना से जोड़ने का यत्न करती है। 

अब सबसे पहले पहली कहानी-
एक बार राजा भर्तृहरि आखेट पर गये, 
साथ में उनकी प्रिय रानी पिंगला भी थीं. 
जंगल में बहुत समय तक भटकते रहने के बाद भी मृगया हेतु कोई मृग न मिला. 
दोनों थक कर जब घर लौट रहे थे, 
तभी रास्ते में उन्हें हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया। 
जिसके आगे एक मृग चल रहा था। 

भर्तृहरि ने उस पर प्रहार करना चाहा,
तभी पिंगला ने उन्हें रोकते हुए अनुरोध किया कि 
महाराज, यह मृगराज सात सौ हिरनियों का पति और पालनकर्ता है। इसलिये आप उसका शिकार न करें। 

भर्तृहरि ने रानी की बात नहीं मानी और हिरन पर बाण चला दिया, 
मरणासन्न होकर भूमि पर गिरते हुए मृग ने 
जाने परमात्मा से प्रार्थना करते हुए या भर्तृहरि से परिवाद करते हुए कहा- 
प्रभु, 
तुमने यह ठीक नहीं किया। 
कुछ पलों में प्राण छूट जाएँगे, 
देह भर रह जाएगी। 
नहीं पता कि 
मेरे प्राण जाने के बाद मेरी काया किस काम आयेगी. 
राजन्, 
संभव है, 
तुमने मुझे अपने भोजन नहीं, 
बस अपनी क्रीडा या शौर्य प्रदर्शन भर में ही मारा हो, 
तुम राजा हो, युद्ध और विलास भर करते आये हो, 
जीवन को व्यर्थ ले सकते हो, 
पर हम वनचर हैं, ऋषि-मुनियों के आश्रमों तक विचरते रहे हैं, 
जीवन को व्यर्थ जाने देने से पीड़ा और गहरी हो जाती है। 

राजा से आशा व्यर्थ है, क्योंकि वही तो मेरा व्याध है, 
प्रभु, हो सके तो मेरी यह साध पूरी कर देना, 
मेरी मृत्यु के बाद 
मेरे ये सुदीर्घ सींग उस श्रृंगी जोगी को दे देना, जो उसके वाद्य बजाता घूमता है, 
मेरे ये सुंदर चंचल नेत्र उस सरल नारी को दे देना, जो प्रीति में निर्मल दृष्टि रखती है। 
मेरा ये कोमल चर्म उन साधु-संतों को दे देना, जो जीवन भर त्याग की साधना करते हैं, 
मेरे पैर उन धावकों और रक्षक सैनिकों को दे देना, जो अदम्य ऊर्जा लिए दौड़ते हैं 
और
इसके उपरांत मांस रही और मिट्टी बनी मेरी देह इस पापी राजा को दे देना, 
जो भोग के लिए प्राण लेने में पीड़ा नहीं जानता. 

हिरण की दर्शनमयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय पश्चात्ताप से भर उठा, 
उसकी करुणामयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हो उठा। 
पर अब बहुत देर हो चुकी थी. 

किसी ने कहा कि 
वन में ही कहीं गुरु गोरखनाथ का आश्रम है. 
बड़े सिद्ध हैं, संभवतः कुछ निदान बतायें. 

रानी को राजमहल भेज हिरण की देह घोड़े पर रख कर 
वे स्वयं गुरु गोरखनाथ के आश्रम की ओर चल पड़े. 
मार्ग में ही उनकी मुलाकात बाबा गोरखनाथ से हो गई. 
भर्तृहरि ने सादर नमन किया, 
इस घटना से अवगत कराते हुए उनसे हिरण को जीवित करने की प्रार्थना की। 

गोरखनाथ ने कहा- 
मैं एक शर्त पर इसे जीवनदान दे सकता हूँ कि 
इसके जीवित हो जाने पर तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा। 
कहते हैं, राजा के मन में पहले ही से वैराग्य जाग्रत था, 
उसने सहज ही गोरखनाथ की बात मान ली।

गोरखनाथ ने मृत हिरन को जीवित कर दिया, 
भर्तृहरि उनके शिष्य बन गए. 
राज्य का उत्तराधिकार अपने छोटे भाई विक्रम को सौंपा 
और स्वयं वन में तपस्या करने चले गये. 

परंतु जनमानस उनके वैराग्य को भी इतना सहज नहीं कहता. 
गोरखनाथ ने अपने शिष्यत्व की एक शर्त बतलाई. 
राजा को रानी से पहली भिक्षा लेकर आनी होगी, 
महल जाकर, भिक्षु बन कर, पत्नी को माता कहकर. 

जाने कितने द्वंद्व से गुजर उन्होंने यह स्वीकार कर लिया. 
भगवा धारण करके राजमहल के द्वार पहुँचे, 
रानी पिंगला कहीं खिड़की या झरोखे से देखती दिख गईं. 
रानी पिंगला को इंगित कर राजा भर्तृहरि ने आवाज लगाई- 
अलख निरंजन।
माता पिंगला, भिक्षाम् देहि। 

पिंगला ने पिंगलवेशधारी राजा भर्तृहरि को देखा, 
हृदय स्तब्ध रह गया, 
आँखों से जलधारा बह निकली. 
स्वयं निकल कर आईं, 
कुछ टूटे शब्दों में संवाद किया, 
रोकना चाहा, 
परंतु भर्तृहरि रुके नहीं। 
रानी ने भी चलना चाहा, 
परंतु भर्तृहरि बोले-
संन्यासी सदा एकाकी होता है, ब्रह्मचारी. 
सहचर तो हम गार्हस्थ्य जीवन के थे, 
संन्यास आश्रम के नहीं. 
काफी आग्रह व वार्तालाप के उपरांत जब रानी ने जाना कि
राजा इतने विरक्त हो चुके कि संन्यस्त होकर ही रहेंगे, 
तो उन्होंने भिक्षापात्र में पहली और अंतिम भिक्षा डाल दी. 

भर्तृहरि राज छोड़ योगी बन चले गए, 
पिंगला ने रानी की बनाम वियोगिनी साध्वी का जीवन अपना लिया, 
महल में जोगन ही बनी जीती रहीं. 

दूसरी कहानी सर्वथा भिन्न रूपांतर के साथ आती है। 
इसमें भी राजा भर्तृहरि वन में शिकार खेलने गए थे, 
परंतु रानी पिंगला स्वयं आखेट में न तो राजा के साथ गई, 
न ही वहाँ किसी मृग की घटना हुई। 
वहां मृगया के मार्ग में राजा ने देखा कि 
किसी श्मशान में एक पुरुष की चिता जलाई जा रही थी, 
उसकी पत्नी वहाँ भावविह्वल हुई आई
और उसने अपने मृत पति की चिता में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए। 

राजा भर्तृहरि दृश्य से बहुत व्यथित, चकित व विचलित हो गये. 
सोचा कि क्या कोई स्वेच्छा से प्रिय के वियोग में प्राण देगा? 
अपने महल में वापस आकर राजा भर्तृहरि ने जब ये घटना और मन की दुविधा अपनी पत्नी पिंगला से कही. 
रानी पिंगला पति से बहुत प्रेम करती थी, 
बोली कि 
वह तो यह समाचार सुनने भर से ही मर जाएगी, 
चिता में कूदने के लिए भी वह जीवित नहीं रहेगी। 

राजा भर्तृहरि ने संदेह किया. 
उन्होंने मन ही मन पिंगला की परीक्षा लेने की सोची. 
एक बार जब भर्तृहरि शिकार खेलने गए,
वहाँ से समाचार भिजवा दिया कि 
राजा भर्तृहरि की मृत्यु हो गई। 

ये खबर सुनते ही आहत रानी पिंगला मर गईं, 
राजा भर्तृहरि ने जैसे ही यह सुना, 
वे बिल्कुल टूट गए, 
अपने आप को दोषी ठहराते रहे, विलाप करते रहे. 
परंतु निदान क्या था. 

संयोगवश सिद्ध गोरखनाथ वहाँ उपस्थित हुए। 
उनकी कृपा से रानी पिंगला जीवित हो गई. 
गोरखनाथ की शर्त थी कि
इसके उपरांत राजा को वैराग्य ले लेना होगा। 
राजा सहमत हो गए. 
इस घटना के बाद राजा भर्तृहरि गोरखनाथ के शिष्य बनकर चले गए। 

तीसरी कहानी उक्त दोनों के बिल्कुल अलग ही नहीं, विपरीत भी है,
और यह संभवतः सर्वाधिक प्रसिद्ध है। 
भर्तृहरि के दरबार में एक साधु आया 
तथा राजा के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए उन्हें एक अमर फल प्रदान किया। 
इस फल को खाकर व्यक्ति अमर हो सकता था,
चिरयुवा बना रह सकता था। 

राजा ने इस फल को अपनी प्रिय रानी पिंगला को खाने के लिए दे दिया, 
किन्तु रानी ने उसे स्वयं न खाकर अपने एक प्रिय सेनानायक को दे दिया. 
उसने भी फल को स्वयं न खाकर उसे उस राजनर्तकी को दे दिया, 
जिससे उसका प्रेम सम्बन्ध था। 
यह अमर फल जब राजनर्तकी के पास पहुँचा, 
उसने इसे राजा को देने का विचार किया। 
वह राजदरबार में पहुँची तथा राजा को फल अर्पित कर दिया। 

रानी पिंगला को दिया हुआ फल राजनर्तकी से पाकर राजा आश्चर्यचकित रह गये 
तथा इसे उसके पास पहुँचने का वृत्तान्त पूछा। 
राजनर्तकी ने संक्षेप में राजा को सब कुछ बतला दिया। 
इस घटना से राजा भर्तृहरि अत्यन्त मर्माहत हुए
और उन्होंने सब कुछ छोड़कर संन्यास लेने का निश्चय कर लिया.

भर्तृहरि की इन तीन कथा शृंखलाओं के अतिरिक्त एक चौथी कथा भी कहीं मिल जाती है, 
जो तीनों कहानियों को कुछ नये किरदार लाकर जोड़ने का यत्न करती है 
और उनके विरोधाभासों को अपनी कल्पना से दूर करने का प्रयास करती है। 

इस कथा के अनुसार भर्तृहरि की दो रानियाँ थीं-
पहली पिंगला, जो पतिव्रता थी और भर्तृहरि से अनन्य प्रेम करती थी। 
दूसरी अनंगसेना, जो राजमर्यादा व दाम्पत्य से परे अनेक से प्रणय संबंध चलाती थी. 

रानी अनंगसेना अपेक्षाकृत युवा व सुंदर थी, 
इस कारण राजा उसे बहुत प्यार करते थे।
परंतु अनंगसेना निष्ठावान न थी. 
उसका राजा के अश्वपालक व सारथि रहे चंद्रचूड़ से भी प्रणय-सम्बन्ध था 
और साथ ही साथ वह राज्य के सेनापति से प्रेम संबध रखे हुए थी। 

चंद्रचूड़ और सेनापति ये दोनों भी ऐसे ही निष्ठाहीन प्रेमी थे, 
दोनों का रानी अनंगसेना और रूपलेखा दोनों से प्रणय-सम्बन्ध था।

योगी गोरखनाथ को पहले से ही पता था कि
राजा भर्तृहरि पूर्वजन्म का योगी है और आगे भी उसको योगी ही बनना है, 
बस पूर्व जन्मों के कर्मों के कारण कुछ दिनों तक का राज और भोग है. 
उन्होंने जब ये सारी बातें जानीं, 
तो उन्होंने जानकर ही किसी जयंत नामक ब्राह्मण के साथ अमरफल भेजा। 
राजा ने वह अमरफल रानी अनंगसेना को दिया।
रानी ने वह अमरफल अश्वपाल चंद्रचूड़ को दे दिया।

चंद्रचूड़ ने भी वह अमरफल स्वयं न खाया, 
उसने उसे गणिका रूपलेखा को देने का निर्णय किया, 
जिसे वह पाना चाहता था, 
किंतु स्तर के कारण पा न सका था। 

वह उस अमरफल को लेकर रूपलेखा के यहाँ गया।
और यह कहकर दे दिया कि 
वो उसको खायेगी, तो अमर हो जायेगी 
और उसका चिरकाल तक यौवन बना रहेगा। 
दूसरे रूपांतर में राजा भर्तृहरि भी रूपलेखा का नृत्य देखने जाते हैं 
और वहीं जब राजा जब मदिरा पीकर मदहोश हो जाते हैं, 
तब चंद्रचूड़ ने रूपलेखा के साथ प्यार करते हुए अमरफल उसको दे दिया. 

रूपलेखा स्वयं के जीवन से घृणा करती थी। 
राजा से नेह व आदर का भाव था. 
सोचा कि वे जियेंगे, तो जाने कितनों का भला करेंगे। 
यह विचार कर वही फल रूपलेखा ने राजा को दे दिया. 

राजा ने जब उस फल को देखा, 
विस्मित व सशंकित हो पूछा कि 
उसने वह फल किससे पाया. 

रूपलेखा ने बता दिया कि 
सेनापति चंद्रचूड़ ने उसको अमरफल दिया था।
क्षुब्ध व क्रुद्ध राजा ने सारथी चंद्रचूड़ से सच पूछा,
तो उसने रानी अनंगसेना के साथ न केवल अपने सम्बन्ध स्वीकार किये, 
अपितु साथ ही साथ उनके सेनापति से भी प्रेमसंबंध होने का भी भेद बता दिया। 

उस दिन अमावस्या की रात थी।
राजा राजमहल पहुँचा और अनंगसेना से प्रश्न किया. 
राजा के भय से अनंगसेना ने सच स्वीकार कर लिया।
राजा ने रानी को मृत्युदंड तो न दिया, 
लेकिन उसी अँधेरी रात में रानी ने आत्मग्लानि में आत्मदाह कर लिया।
चंद्रचूड़ व सेनापति को या तो मृत्युदंड दे दिया गया
या फिर देशनिकाला दे दिया गया. 

इस घटना के उपरांत भर्तृहरि बहुत खिन्न व उदास रहने लगे. 
इस पर उनकी बड़ी रानी पिंगला ने मानसिक व्याकुलता से बाहर निकलने के लिए उनको आखेट के लिए वन में भेजा।
परंतु दुर्योगवश आखेट के समय उनका एक सैनिक सर्पदंश से मारा गया. 
जब उसका शव उसके घर पहुंचा, 
तो उसकी पत्नी उसकी देह के साथ सती हो गई। 

तेजी से चले यह सारा घटनाक्रम देख 
राजा बहुत द्वंद्व में पड़ गया।
एक स्त्री थी अनंगसेना, 
जो राजा की पत्नी व प्रिया होकर भी अनुचरों तक से व्यभिचार करती है 
और 
एक स्त्री है रूपलेखा, 
जो संसार के लिए व्यभिचारिणी वेश्या होकर भी 
देश के राजा के प्रति जीवन और यौवन से बढ़कर प्रेम रख रही है। 
एक और नारी है,
उस साधारण सैनिक की पत्नी, 
जो पति की देह के साथ सती हो गई। 
और एक और नारी है पिंगला, 
जो पति द्वारा किसी और रानी को अमरफल दिये जाने की बात जानकर भी उसकी चिंता कर रही है, 
परंतु क्या पता, 
वह भी छल या दिखावा भर ही हो. 

वे सोचने लगे कि 
क्या मेरी पत्नी पिंगला भी मुझसे इतना प्यार करती है। 
आगे कहानी यथावत् है. 
राजा भर्तृहरि ने परीक्षा के लिए अपनी मृत्यु की मिथ्या सूचना भिजवाई, 
जिसे सुनते ही रानी पिंगला मर गई । 

कहानी त्रासदी के साथ समाप्त होती है। 
एक रानी अपने झूठ से मारी गई, 
अपना ही अभेद्य पश्चात्ताप लेकर, 
दूसरी रानी राजा के झूठ से मारी गई, 
राजा को अभेद्य पश्चात्ताप देकर. 

अंत में गुरु गोरखनाथ की शरण में शांति मिलती है। 
धर्म सदा ही प्रेम के टूटों की श्रेष्ठ शरण बनता रहा है। 
भर्तृहरि न प्रेम में आहत पहले राजा हैं, न प्रेम में विरक्त पहले योगी. 
परंतु दोनों के जोड़ ने उनकी प्रेमगाथा को अन्य प्रेमगाथाओं में शिखर लोकप्रियता प्रदान कर दी. 

--------------------------------
कहानी के तीन मूल रूपांतरों में से पहली दो कहानियों में मूल दोषी भर्तृहरि हैं, जबकि तीसरे रूपांतर में पिंगला. 
पहली कहानी में हत्या का करुणामय प्रायश्चित है, 
दूसरी कहानी में मृत्यु का वियोगमय पश्चात्ताप है, 
तीसरी कहानी में रानी के विश्वासघात से उपजी विरक्ति. 

संभवतः यह तृतीय छलपरक कथारूप ही अधिक प्रसिद्ध हुआ. 
भर्तृहरि के वैराग्य के पीछे स्त्री के विश्वासघात की कहानी का आधार उनका यह श्लोक है-
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता, 
साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः। 
अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या, 
धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च॥ 

अर्थ है-
जिसका मैं निरंतर स्मरण करता रहा, 
वह किसी और का स्मरण करती रही, 
वह भी किसी और को ही प्रेम करता रहा, 
उसकी चाही भी फिर मुझे चाहती रही, 
धिक्कार है, उसे भी, उसके चाहे को भी, उसको चाहने वाले को भी, मुझको चाहने वाले को भी
और सबसे बढ़कर प्रीति के समस्त व्यापार को भी. 
इससे यह तो स्पष्ट है कि 
भर्तृहरि की विरक्ति में कहीं तो प्रीति की अतृप्ति रही है, 
जो उन्हें मुक्तिपथ पर ले जाने की प्रेरिका बनी. 

किंवदंती के अनुसार रानी पिंगला सिंहल देश की राजकुमारी थी. 
जिन कहानियों में वे छोटी रानी हैं, उनमें वह अधिकांशतः चरित्रहीन है, 
जिन कहानियों में वे बड़ी रानी हैं, उनमें वह अधिकांशतः पतिव्रता हैं. 
भर्तृहरि की इन रानी का संबंध किससे था, या किस-किससे था, 
यह किंवदंतियों में अलग-अलग है. 
कहानियों में अंत:पुर के दरोगा से नगर कोतवाल तक
और सेनापति से नगरसेठ तक संबंध के किस्से हैं. 

कुछ कहानियों में पिंगला को भर्तृहरि के बैरागी बन जाने की भविष्यवाणी पता थी
और उसने आखेट पर जाने से उन्हें रोका भी था, 
परंतु अंततः वही हुआ, जो नियति ने लिख रखा था। 

कथा है कि भर्तृहरि पूर्व जन्म में योगी ही थे.
उस समय भी वे गोरखनाथ या मत्स्येंद्र नाथ के शिष्य थे. 
किसी अप्सरा को देखकर मुग्ध हो गए, 
तो स्वयं गुरु ने अगले जन्म में उन्हें राजा व अप्सरा को पिंगला बनाकर भेजा. 
कुछ के अनुसार अनंगसेना भर्तृहरि की पत्नी का नहीं, 
उस अप्सरा का ही नाम था. 
पिंगला के द्वैध चरित्र चित्रण को व्याख्यायित करने के लिए 
यह भी कथा है मूल पिंगला तो पतिव्रता थी 
और शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो गई. 
भर्तृहरि के मोह को समाप्त करने के लिए गुरु ने माया कि पिंगला रच दी. 

कहते यह भी हैं कि
भर्तृहरि के लिए ज्योतिषियों ने पहले ही कह रखा था कि
17 वर्ष की आयु में इनका विवाह होगा 
और 18 वर्ष की उम्र में ही ये योगी बन जाएंगे. 
16 वर्ष तक इन्होंने ज्ञानार्जन किया,
सचमुच 17 वर्ष की आयु में विवाह भी हो गया.
इसके उपरांत उन्होंने राजकाज मूलतः भाई विक्रमादित्य के भरोसे छोड़ स्वयं भोग-विलास में लीन हो गए.
कहीं यह भी प्रसिद्ध है कि 
राजा भर्तृहरि के तीन रानियाँ थीं,
जिनमें अनंगसेना सबसे छोटी रानी थी.
इनमें अंतिम रानी के चरित्र के प्रति यद्यपि छोटे भाई विक्रमादित्य ने राजा भर्तृहरि को अनेक बार सचेष्ट किया था,
तथापि उसके प्रेम पाश में आबद्ध होने के कारण भर्तृहरि ने उसके क्रिया-कलापों पर ध्यान नहीं दिया था। 
कहते तो यहाँ तक हैं कि
अनंगसेना के प्रभाव में भर्तृहरि ने विक्रमादित्य को कुछ समय तक राज्य से बहिष्कृत भी कर दिया था। 

इधर भर्तृहरि भोग-विलास में लीन देख 
गुरु गोरखनाथ के गुरु मत्स्येंद्रनाथ ने उन्हें आज्ञा दी कि
पूर्व जन्म के इस योगी को भोग से मुक्त करने का मार्ग दिखाना चाहिए 
और इसी कारण गोरखनाथ ने ही अमर फल राजा भर्तृहरि के पास भिजवाया था.

अमर फल के विषय में एक कहानी यह भी है कि 
उज्जयिनी में जयंत नाम का एक ब्राह्मण रहता था। 
घोर तपस्या के परिणामस्वरूप उसे इन्द्र से अमर फल की प्राप्ति हुई थी. 
उसने सोचा कि यह फल उससे अधिक उसके राजा के लिए उपयुक्त है, सो देने चला आया था. 

पिंगला की मृत्यु के विषय में एक कहानी यह भी है कि 
भर्तृहरि ने अनंगसेना के छल के पश्चात् ही संन्यास ले लिया था, 
परंतु उनका मन पिंगला से मुक्त न हो पाता था. 
पिंगला भी विरहाकुल थी. 
भर्तृहरि ने मोह की मुक्ति के लिए पिंगला को अपनी मृत्यु की सूचना दे दी 
और पिंगला सचमुच शोक से मारी गई. 
भर्तृहरि को व्यथा तो बहुत हुई, 
परंतु मोह का अंतिम बंधन भी छूट गया। 
वे बैरागी संतों के शिरोमणि से बन गए. 

राजा भर्तृहरि के संन्यासी जीवन के संबंध में भी दोहरी कथाएं प्रसिद्ध हैं. 
एक के अनुसार वह बिल्कुल संयमित व बहुत ही कठोर साधक बने, 
दूसरे के अनुसार बार-बार साधना पथ से विरत हो गृहस्थ आश्रम में लौटते रहे. 
भर्तृहरि के विषय में कहीं यह भी प्रसिद्ध है कि उन्होंने सात बार संन्यास लिया और फिर वापस गृहस्थ आश्रम में लौटे, 
वहीं दूसरी ओर यह कहानी भी प्रसिद्ध है कि
गुरु ने उनकी परीक्षा के लिए उन्हें मालवा से मरुभूमि में भेज दिया. 
वहाँ उन्हें तपती रेत पर नंगे पाँव चलना पड़ा, 
काँटों पर चलना पड़ा, 
भूखे-प्यासे रहना पड़ा, 
पर वे विचलित न हुए. 
अंत में गुरु ने माया का महल बना
सुंदर युवतियां, सुस्वादु व्यंजन, मधुर-मादक पेय सब रखे, 
पर भर्तृहरि मोहित न हुए. 
गोरखनाथ बोले, 
‘नहीं भर्तृहरि! अनादर मत करो। 
तुम्हें कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, 
कुछ-न-कुछ मांगना ही पड़ेगा।' 

भर्तृहरि को रेत में एक चमचमाती हुई सूई दिखाई दी। 
उसे उठाकर वे बोले, 
‘गुरुजी! कंठा फट गया है, 
सूई में यह धागा पिरो लेने दीजिए,
ताकि मैं अपना कंठा सी लूं।'

गोरखनाथ ने भर्तृहरि को गले लगाते हुए बोले-
वत्स, तुम तो उस परीक्षा में भी सफल रहे, 
जिसमें एक समय तुम्हारे गुरु के गुरु भी बँध गए थे। 
तुम सचमुच सिद्ध हो. 

राजा भर्तृहरि का काल सुस्पष्ट नहीं है। उज्जयिनी में पहली शताब्दी में भर्तृहरि नाम के एक राजा का होना संभवतः सबसे पुष्ट ऐतिहासिक तथ्य है. शकार्य विक्रमादित्य से संबंध होने या विक्रमसंवत् के प्रारंभ के आधार पर कुछ विचारक इनका समय ई.पू. पहली सदी तक मानते हैं, जबकि गोरखनाथ से संबंध होने के आधार पर कुछ विचारक उन्हें 11वीं-12वीं सदी का सिद्ध करते हैं। कुछ अन्य विचारक विभिन्न संदर्भों व अनुमानों से उनका समय प्रायः 450 ई० या 550 ई० या 650 ई० भी बताते रहे है। इत्सिंग भर्तृहरि का उल्लेख भारतीय बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग के साथ करते हैं और भर्तृहरि को भी बौद्ध दार्शनिक बताते हैं. ऐसे में ऐतिहासिक रूप से न्यूनतम दो भर्तृहरि का होना सिद्ध होने लगता है। 

परंतु भर्तृहरि की ऐतिहासिकता सिद्ध भी हो जाए, 
तो उससे इस कथा की ऐतिहासिकता सिद्ध नहीं होती. भर्तृहरि की कहानी मुख्यतः जनश्रुतियों, लोकनाट्यों व लोकगीतों में ही सुरक्षित रही है। 
भविष्य पुराण में भी कहानी का द्वितीय संक्षिप्त रूप है। 
लोकभाषा में राजा भर्तृहरि राजा भरथरी हैं. वे लगभग उतने ही प्रसिद्ध हैं, जितने गुरु गोरखनाथ. लोकगाथाओं और लोकगीतों में तो इनकी कहानी बहुत ही लोकप्रिय रही है, किसी प्रेमी से भी अधिक. 
पहले पौष मध्य से लेकर मकर संक्रांति तक के शीतकालीन मलमास में कई जोगी घूम-घूमकर राजा भरथरी की कथा सुनाते थे. गोरखनाथ जी की वैरागी नाथ परंपरा के अनेक योगी सींगवाद्य रखते हैं, 
जिसे वे सेली कहते हैं। माना जाता है कि ये भर्तृहरि की परंपरा के योगी हैं. ऐसा कहा जाता है कि नाथपंथ के वैरागी नामक उपपंथ के भर्तृहरि ही प्रवर्तक थे। चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार इन्होंने बौद्ध-धर्म ग्रहण किया था, परंतु अन्य सूत्रों के अनुसार ये अद्वैत वेदान्ताचार्य थे। वाक्यपदीय के भाष्यकार कैय्यट के अनुसार भर्तृहरि का मूलनाम हरि था, प्रजा के भरण-पोषण का विशेष ध्यान रखने के कारण नाम में भर्तृ लगा दिया गया। 

भर्तृहरि ने श्रृंगार, वैराग्य और नीति के तीन शतक लिखे, 
जो "भर्तृहरि शतकत्रय" के नाम से प्रसिद्ध हैं. 
इसके अतिरिक्त उनका व्याकरण दर्शन पर आधारित वाक्यपदीय नामक प्रौढ़ ग्रंथ भी मिलता है.
वाक्यपदीयम्‌ तीन कांडों में निबद्ध पद्यबद्ध रचना है, जिसमें स्फोटवाद का विशद प्रतिपादन है। 
इसके अतिरिक्त व्याकरण पर दो और ग्रंथ हैं -
प्रथम‌- वाक्यपदीयवृत्ति:, जो वाक्यपदीयम्‌ के पहले दो कांडों पर स्वयं भर्तृहरि का भाष्य है. 
द्वितीय— महाभाष्यदीपिका. यह पाणिनीय अष्टाध्यायी पर पतंजलि के महाभाष्य का उपभाष्य है, जो अपूर्ण रूप में प्राप्त होता है।
कुछ लोग भट्टिकाव्य के रचयिता भट्टि से भी उनका ऐक्य मानते हैं।
इस मत के अनुसार भट्टिकाव्य के प्रणेता का नाम भट्टि वस्तुत: भर्तृ का ही अपभ्रंश है. परंतु यह सर्वस्वीकार्य नहीं है। 
अनेक विद्वानों के अनुसार वैयाकरण दार्शनिक भर्तृहरि सूक्तिकार भर्तृहरि से अलग हैं. 

शतकत्रय की दृष्टि से भर्तृहरि संस्कृत मुक्तक-काव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। 
इनकी भाषा सरल, व भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि 
उनकी उक्तियाँ सूक्तियों के रूप में बहुश: दुहराई जाती रही हैं। 
सूक्तियों व संदेश परक कथाओं के लिए प्रसिद्ध पंचतंत्र तक में उनके 
नीतिशतक के कुछ श्लोकों को ग्रहण किया गया है। 
माना जाता है कि शतकत्रय में श्रृंगार और नीति के शतक तो वे वैराग्य पूर्व ही लिख चुके थे, 
परंतु वैराग्यशतक को वैराग्य के उपरांत लिखा. 

राजा भर्तृहरि मूलतः कहां के रहने वाले थे, यह पूर्णतः स्पष्ट नहीं है.
जनसामान्य का अधिकांश वर्ग यह मानता है कि 
वे उज्जैन के रहने वाले थे.
जो लोकप्रसिद्ध है वह यह है कि 
मालवा में अवन्ति के राजा गंधर्वसेन या चंद्रसेन के दो रानियों से दो पुत्र थे-
बड़ी रानी से बड़ा पुत्र भर्तृहरि
और
छोटी रानी से छोटा पुत्र विक्रमादित्य.
इन्हीं विक्रमादित्य के लिए विक्रम और वेताल की कहानी भी प्रसिद्ध है.
इस कहानी में भी इसी प्रकार से राजा को साधु से अलौकिक फल मिलने की एक घटना है, जिससे कथा का सूत्रपात होता है.

किसी कहानी के अनुसार भर्तृहरि गंधर्वसेन की रानी नहीं, 
दासी के पुत्र थे, 
परंतु उनकी परवर्ती स्थिति देखते हुए यह मत कम मान्य लगता है। 

भर्तृहरि के एक बहन भी थी-
मयनावती, 
जिससे वे भिक्षा लेने गए थे। 
मयनावती का पुत्र गोपीचंद व पुत्री चंद्रावल भी कालांतर में भर्तृहरि के शिष्य बन गये थे, 
जिनकी अलग गाथा है। 
कहीं बहन का नाम मानवती भी मिलता है। 

भर्तृहरि की जन्मभूमि माने जाने वाले उज्जैन में 
अब स्मृति रूप कुछ अधिक शेष नहीं.
उज्जैन से 12 किमी दूर कालियादह महल की ओर 
9 गुफाएँ बनी हैं, 
जिनमें ग्यारहवीं सदी में परमारवंशी राजाओं ने 
कभी मंदिरवत् स्थापत्य सहित स्तंभों पर मूर्तिशिल्प भी बनवाए थे। 
उनमें चार तो लगभग ध्वस्त हो चुकी हैं। 
क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित एक गुफा में, 
जो भरथरी की गुफा के नाम से जानी जाती है।  
माना जाता है कि यहां भर्तृहरि ने तपस्या की थी। 
गुफा के अंदर ही पत्थर का एक पाट टूटा हुआ लटकता हुआ दिखाई देता है, 
जिसके लिए एक कहानी प्रसिद्ध है। 
कहते हैं, 
भर्तृहरि की तपस्या से इंद्र का सिंहासन भी डोल गया था। 
उनकी तपस्या भंग करने के लिए इंद्र ने एक पत्थर गिराया,
जिसे भर्तृहरि ने हाथ का टेक लगा कर रोक दिया था। 
उस पर उनके हाथ का निशान बन गया। 
वह निशान आज भी उस पत्थर पर अंकित है।

गुफा में भर्तृहरि की प्रतिमा लगी है,
जो बहुत बाद में कभी लगा दी गई। 
साधना स्थल के पास एक और गुफा है,
जिसके बारे में मान्यता रही है कि 
यहां से एक रास्ता चार धाम के लिए जाता था। 
दंतकथा है कि भर्तृहरि जब समाधि से उठते थे, 
तो वे चार धाम की यात्रा करते थे. 

इधर राजस्थान के अलवर जिले के मालाखेड़ा तहसील में इंदोक ग्राम में एक भरथरी टीला है, 
जिस पर भर्तृहरि का मंदिर बना हुआ है। 
मान्यता है कि यहाँ कभी भर्तृहरि ने योग साधना की थी. 
यहाँ उनके भाँजे गोपीचंद ने भी उनके साथ ही तप किया था। 
बहन चंद्रावल भी संन्यास ले यहाँ तक आईं थी. 
इन दोनों के संन्यस्त जीवन की अपनी गाथा है। 
भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की अष्टमी अर्थात दुर्गाष्टमी को यहाँ लक्खी मेला लगता है। 

इसके अतिरिक्त यहाँ अलवर में ही तिजारा में भी उनकी तपोस्थली है. 
मान्यता है कि यह तिजारा प्राचीन त्रिगर्तनगर है. 
यहाँ भर्तृहरि व गोपीचंद दोनों ने तप तो किया, 
पर भिक्षा न मिली. बस एक कुम्हार ने भोजन दिया 
और कुम्हारन ने उस पर भी आपत्ति कर दी. 
इसके प्रतितोष में भर्तृहरि ने कुम्हार के आधे घड़े सोने के कर दिये
व कहा कि यदि कुम्हारन ने उससी निष्ठा दिखलाई होती, 
तो सारे ही घड़े सोने के हो गए होते. 

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के चुनारगढ़ किले में भी भर्तृहरि की समाधि है. वस्तुतः प्राचीन महान व्यक्तित्वों से जुड़े स्थल हर क्षेत्र में मिल जाते हैं. यह उनकी ऐतिहासिकता से अधिक लोकप्रियता का निदर्शक है. 

भर्तृहरि के पिता गंधर्वसेन के लिए प्रसिद्ध यह भी है कि
वे मूलतः उज्जयिनी नहीं, 
राजस्थान में चाकसू के निवासी थे
और भर्तृहरि का जन्म भी यहीं हुआ था। 
ये बाद में उज्जयिनी के राजा बने. 
गंधर्वसेन की कहानी अलग से वर्णित है। 

भर्तृहरि के पिता गंधर्वसेन, 
भ्राता विक्रमादित्य, 
बहन चंद्रावल व बहन के पुत्र गोपीचंद
सबकी स्वतंत्र लोकगाथा है
और इस तरह लोकगाथाओं वाला यह संभवतः सबसे लोकप्रिय परिवार है।