सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

कृष्ण की सोलह कलाएँ : गोवर्धनधारण के बहाने एक दीर्घ शोध"

"कृष्ण की सोलह कलाएँ : गोवर्धनधारण के बहाने एक दीर्घ शोध"


सुना है,
कृष्ण की सोलह कलाएँ हैं,
क्या हैं, कहीं गिनती मिलती है,
क्यों हैं, इनकी किंचित् व्याख्या भी मिलती है,
पर बहुत सटीक नहीं लगती.
वैसे तो चरित्र की बजाय चरित को देखें,
तो कृष्ण के साथ सोलह कलाओं की बजाय आठ अंक अधिक जुड़े दिखते हैं-
-अष्टमी को जन्म हुआ,
-आठवें पुत्र के रूप में हुआ,
-आठवें अवतार के भी रूप में हुआ,
-बालकाल में पशुरूप आठ असुरों का वध भी किया-
(वकासुर, अघासुर, वत्सासुर, धेनुकासुर, अरिष्टासुर, वृषासुर, प्रलंबासुर और केशि.)
-आठ भार्याएँ रहीं-
(रुक्मिणी, सत्यभामा, मित्रवृंदा, जाम्बवती, कालिंदी, भद्रा और लक्ष्मणा.)
-आठ भार्याओं से आठ पुत्र हुए.
संयोग से अब तक ऊपर जिन 8 अंकों का मुख्य संयोग बताया गया,
वे भी कुल 8 ही होते हैं.
कुछ ने गणित आगे तक जोड़ा है.
-उनकी 16100 रानियाँ थीं,
जिसका आंकिक योग 8 होता है।
-उनकी वर्णित आयु 125 वर्ष थी,
जिसका आंकिक योग भी 8 होता है।
-इसके आगे भी उनका देहावसान आयु के 8वें माह के 8वें दिन हुआ था.
उनका प्रसिद्ध अवतारवादी श्लोक
"संभवामि युगे-युगे" भी चतुर्थ अध्याय का 8वाँ श्लोक है।
पर यह सब कुछ खींचतान लगता जाता है।
जन्म संयोग से साल के छठे माह में हुआ,
दो माह बाद होता, तो 8वें माह में होता.
वैसे कम ही लोग ध्यान देते हैं कि
साल के 8वें माह में भी कृष्ण से जुड़ा एक व्रत मनाया जाता है,
कृष्ण जन्माष्टमी के ठीक दो माह बाद यह व्रत आ जाता है।
लोक परंपरा के अनुसार यह 'अहोई' माता का व्रत है।
यह अहोई शब्द अष्टमी से बना है।
जैसे कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी चौथ माता बन गई,
वैसे ही कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी आहोई माता बन गई.
अष्टमी का संबंध दुर्गा से भी है,
पर सर्वाधिक संबंध कृष्ण से है।
संभवतः व्रत बहुत लोकप्रिय नहीं है।
कम से कम बहुत व्यापक तो नहीं ही है।
व्रत के विधान व कहानी दोनों करवा चौथ से हूबहू मिलते से लगते हैं,
बस मुख्य अंतर है कि
करवा चौथ मूलतः पति के लिए है,
अहोई संतान के लिए.
कल्पना या कामना यह रही होगी कि
मेरी संतान कृष्ण सी हो.
सोलह कलाओं की ओर लौटते हैं.
ऐसे तो गणना में भगवान के भी छ: ऐश्वर्य ही हैं,
जिनमें कुछ इन कलाओं में समाहित भी हैं,
तो शायद यहाँ कृष्ण की भगवत्ता भगवान से भी बढ़कर दिखानी रही हो.
कोई और अवतार सोलह कलाओं वाला नहीं है।
कृष्ण को इसीलिए कुछ भक्त पूर्ण अवतार मानते हैं,
अन्य को अंशमात्र.
ईश्वर मानव बने, तो कुछ मानव की कलाएँ भी तो जुड़ेंगी,
केवल उसकी दुर्बलताएँ ही थोड़े ही जुड़ेंगी.
किसी समय मानव की चौंसठ कलाएँ गिनी गईं थीं,
अब तो असंख्य हो गई होंगी।
जब हर हुनर कला बन जाए,
तो वह चौंसठ भर कैसे रहेगा?
दृश्य व श्रव्य ही नहीं, हर इंद्रियानुभूति में कला आ सकती है।
पर संस्कृति कहती है कि मानव बने इस ईश्वर की भी सोलह ही कलाएँ थीं.
छ: भगवान की और दस मानव की ऐसी गणना तो उचित नहीं.
वैसे छ: ऐश्वर्य की गणना भी तार्किक नहीं,
न ईश्वरीय रूप से, न मानवीय रूप से.
बस वह किसी काव्यात्मक कल्पना से आई है।
यह कहना कठिन है कि
ये सोलह कलाएँ मानवीय हैं या ईश्वरीय,
प्राकृतिक या अलौकिक,
समस्त में या विशिष्ट.
कहीं ईश्वर की सोलह कलाओं की गणना में अष्टसिद्धियों की तरह अलौकिक क्षमताएँ भी दी गई हैं-
अतिशायिनी, विपरिणामिनी, संक्रामिणी, प्रभ्वी, कुण्ठिनी, विकासिनी, मर्यादिनी, आह्लादिनी, स्वरूपावस्थिति, परिपूर्ण आदि,
पर ये भी न व्यवस्थित हैं, न तार्किक.
कुछ श्रुतियाँ ब्रह्म की सोलह कलाएँ बताते हुए कहती हैं कि
परमात्मा की सोलह कलाओं में एक कला अन्न में मिलकर अन्नमय कोश के द्वारा प्रकट हुई-
षोडशानां कलानामेका कलाऽतिशिष्टाभूत् साऽन्ने-नोपसमाहिता प्रज्वालीत्।
यजुर्वेद कहता है कि
मनुष्य के सोलह विशिष्ट गुणों या शक्तियों को भी षोडशकला कहते है-
“सचते स षोडशी”—-(यजुर्वेद–8.36)
शतपथ ब्राह्मण स्पष्टत: कहता है,
यह चंद्रमा, यह मानव, यह ब्रह्म, सब कुछ षोडशकला युक्त हैं-
—(षोडशकलो वै चन्द्रमः, षोडशकलो वै पुरुषः, षोडशकलो वै ब्रह्म, षोडशकलं वा इदं सर्वं —शतपथ ब्राह्मण)
प्रश्नोपनिषद् के छठे प्रश्न में पंचेंद्रियों के साथ प्राण और कतिपय अन्य गुणों व तत्वों की संख्या जोड़कर सोलह कलाएँ बनाई गई हैं,
पर वे सुसंगत नहीं लगतीं.
ऋग्वैदिक पुरुष सूक्त में पुरुष रूप में ब्रह्म के चार चरण हैं.
ब्रह्म के तीन चरण उर्ध्व में विद्यमान है और एक चरण ही इस विश्व में है।
कुछ विचारकों ने इन चार चरणों में प्रत्येक के चार उपचरण मानकर सोलह कलाएँ दिखाने की कोशिश की है.
बहुत सुसंगत न होने पर भी यह सोलह की संख्या तो पहुँचा ही देता है।
कहने को सोलह की संख्या में षोडश मातृकाएँ भी हैं,
पर कृष्ण को उनसे जोड़ना कठिन होगा।
उन्हें माताओं की बजाय प्रियाओं से जोड़ा जाए,
तो संख्या सोलह हजार से चौसठ हजार तक
या फिर सोलह लाख तक भी पहुँचाई जा सकती है,
पर माताएँ दो से अधिक जुड़नी बढ़नी कठिन हो जाती हैं.
एक अन्य तर्क है कि
कृष्ण की जितनी लीलाएँ प्रसिद्ध हैं,
वे सोलह वर्गों में रखी जा सकती हैं-
-कारागार में दैवीय जन्म व मुक्ति की, यमुना पारगमन की,
-नंद-यशोदा का लाल बनने की, माता के साथ बाललीला की, बालगोपाल संग मक्खनचोरी की, मुख में ब्रह्मांडदर्शन कराने की, यमलार्जुन मुक्ति की
-पूतनावध, कंसवध व अन्य असुरवध की, कालियादमन की, रणछोड़ बन कालयवनवध की, नरकासुर वध की,
-गोवर्धनधारण कर इंद्र से गोकुल की रक्षा करने की, नवधर्मप्रवर्तन की,
-गोपिकाओं के चीरहरण, केलि, महारास की,
-राधा संग प्रीति की,
-संदीपनि आश्रम गमन व सुदामा मैत्री की,
-रुक्मिणीहरण व शिशुपालवध की,
-स्यमंतकमणि का लांछन पाने की, शेष-सप्तभार्यावरण की,
-गोकुलवृंदावन छोड़ द्वारकाधीश बनने की,
-द्रौपदी के चीरहरण में वस्त्रदान कर लज्जा निवारण की,
-दुर्योधन के समक्ष संधिप्रस्ताव लाने पर विराट्-रूप दिखाने की,
-पांडव वनवास काल में दुर्वासा के दस हजार शिष्यों को अक्षयपात्र से भोजन कराने की,
-महाभारत युद्ध में सेना कौरव पक्ष में भेज सारथि बन अर्जुन के साथ युद्ध का सूत्रधार बनने की,
-अर्जुन विषाद में विश्वरूप दर्शन की,
-युद्धोपरांत कुलसंहार के साथ महाप्रयाण करने की,
पर यह वर्गीकरण भी न पूर्णसंतोषजनक नहीं है।
एक सरल कल्पना है कि
कृष्ण चंद्रवंशी हैं,
और
चाँद की सोलह हैं,
तो उनकी क्यों न हों?
यह तर्क अभिमान से आ सकता है, प्रेम से नहीं.
प्रेम तो कहेगा,
चंद्रवंशी होने से हों न हों,
जब चाँद में है,
चाँद जैसे में क्यों न हों?
अब चाँद की सोलह कलाएँ क्या हैं-
तिथिवार उसकी बदलती आकृतियाँ.
यों तो तिथियाँ पंद्रह होती हैं;
किंतु प्रतिपदा से चतुर्दशी तक 14 तिथियाँ दोनों पक्षों मे उभयनिष्ठ हैं।
इनमें चंद्रमा के घटने -बढने की 14 कलाएँ होती हैं।
अमावस्या और पूर्णिमा ये दोनों दो कलाएँ हो गयीं ।
अतः चंद्रमा की सोलह कलाएँ हुईं ।
चंद्रमा के कलाओं का वर्णन कुछ इस प्रकार है:-
1. अमृता
2. मानदा
3. पूषा
4. तुष्टि
5. पुष्टि
6. रति
7. धृति
8. शशिनी
9. चन्द्रिका
10. कान्ति
11. ज्योत्स्ना
12. श्री
13. प्रीतिरङ्गा
14. पूर्णा या पूर्णामृता
कहीं इनके अतिरिक्त दो और का वर्णन मिलता है- स्वरजा और अंगदा, पर अमा और पूर्णिमा को वही नाम देना ठीक है.
वैसे ये नामकरण न तो कृष्ण के लिहाज से पूरी तरह सटीक बैठते हैं,
न ही चाँद के लिहाज से.
व्याख्या में जरा खींचतान कर लें,
यह और बात है.
एक और सरल कल्पना हो सकती है कि
यह कला सौंदर्य की हो सकती है,
पर सोलह श्रृंगार तो स्त्रियाँ करती रहती थीं,
षोडशी होने के बाद वही बने रहने में सुखानुभूति पाती थीं.
कृष्ण के सौंदर्य में भी वैसा ही शृंगार है.
कोई कह सकता है,
सौंदर्य की कला का भगवत्ता में ऐसे पृथक् स्मरण क्यों कर.
पर मन का एक हिस्सा कहता है,
जिसके भी सौंदर्य में चाँद देखा जा सकता है,
उसके सौंदर्य में सोलह श्रृंगार देखा जा सकता है.
सच कहूं तो
मन यदि कलाएँ तर्क भरे दर्शन से खोजे,
तो वह उलझा रह जाएगा।
वह यदि प्रेम की दृष्टि से देखे,
तो हृदय में आठ प्रहर उस कलामय सुंदरतम के दर्शन पाएगा-
काजल लागे किरकरो, सुरमा सहा न जाए।
जिन नैनन में कृष्ण बसे, दूजा कौन समाये।।

रविवार, 30 अक्तूबर 2016

दीप एकाकी, अपंक्ति का

"दीप एकाकी, अपंक्ति का"


दीपावली आज छोटी है,
कल बड़ी हो जाएगी।
आज एक दीप जलेगा,
कल दीपों की अवली होगी,
पूरी पंक्ति, माला, हार सी, कतार सी.
दीप एकाकी हो,
तो पूजन के लिए है, ध्यान के लिए है, त्राटक के लिए है,
पूरी शृंखला सी हो, तो उत्सव के लिए है, सौंदर्य के लिए है,
शृंखला का दीप परंपरा का है,
एकाकी दीप वैयक्तिक भी हो सकता है,
अपनी निजता में जलाना चाहें, तो जला सकते हैं,
न जलाते हों, यह और बात है.
पर वे किसी अदृश्य में तो जलते ही रहते हैं।
संभव है,
तमस् के समक्ष दीपों की अवली के समक्ष
एकाकी दीप की दीप्ति उतनी दूर तक सशक्त न हो,
पर वह हवाओं के समक्ष दीपों की अवली भी उतनी ही निर्बल है,
जितनी कि एकाकी दीप की लौ.
और समय के समक्ष भी एकाकी दीप की दीप्ति उतनी ही देर तक सशक्त है,
जितनी कि बहुतेरे दीपों की अवली.
दीप के तले अँधेरा है,
यह लोकोक्ति में है,
पर उसके शीर्ष पर धूमाच्छादित अँधेरा है,
यह लोकोक्ति में नहीं है,
दीप के लौ के मध्य में उसकी वर्तिका के पास भी अँधेरा है,
यह भी लोकोक्ति में नहीं है.
कहने को दीप नहीं जलता,
उसकी बाती जलती है,
उसका तेल जलता है.
उसकी देह नहीं जलती,
उसकी आत्मा जलती है,
उसका हृदय जलता है।
दीप का अपना अंतर्मन है,
यह एक रूपक है,
अंतर्मन का अपना दीप है,
यह दूसरा रूपक है।
दीपक का एकाकीपन एक अलग भाव रखता है,
उसका पंक्तिपन दूसरी कविता रचता है।
दीप का एकाकीपन उसमें एकाग्रता लिए है,
ये दीप नजर टिकाने के लिए हैं, भटकाने के लिए नहीं.
पर यह दीप का अहम् भी बन सकता है,
अज्ञेय की पंक्ति की तरह-
"यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर
इसको भी पंक्ति को दे दो।"
ऐसे ही "दीपदान" पर टैगोर की एक कविता है,
पर भाव बहुत भिन्न हैं-
नायिका दीप लेकर मंदिर में आती है.
नायक कहता है- "मैं अँधेरे में हूँ, एक दीप मुझे दे दो!"
नायिका दीप को शिखर पर झूलते आकाशदीपों में झुला कर चली जाती है.
दूसरे दिन नायिका दीप लेकर सरोवर तट पर आती है.
नायक फिर कहता है- "मैं अँधेरे में हूँ, एक दीप मुझे दे दो!"
नायिका दीप को सरोवर में बह रहे अनगिनत दीपों  में बहा  कर चली जाती है.
तीसरे दिन नायिका दीप लेकर देहरी पर आती है.
नायक कहता है- "मैं अँधेरे में हूँ, एक दीप मुझे दे दो!"
नायिका दीप को दीवारों और झरोखों में जगमगा रहे अनगिनत दीपों में सजा कर चली जाती है.
निराश नायक को
"तमसो मा ज्योतिर्गमय" से आगे
"आत्म दीपो भव !" का स्वर सुनाई पड़ता है
और वह अज्ञात की ओर निकल पड़ता है.
एक दिन वह किसी वृक्ष के नीचे निष्कंप दीपशिखा सा शांत बैठा है-
नायिका अनजला दीपक लिए आई.
नायक बोला- "आज ये दीपक?"
नायिका बोली-
"तब मैं संसारिकता की लौ जलाये घूम रही थी
और तुम दीपक की तरह जल रहे थे,
अब तुम्हारे भीतर दीपक जल रहा है,
जिसकी अलौकिकता की लौ लेने आई हूँ."
(अंत में गीत की कथा में किंचित् परिवर्तन के साथ)

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

हिमाचल की चार अमर प्रेमगाथाएँ

हिमाचल की चार अमर प्रेमगाथाएँ




हिमाचल की लोक प्रेमगाथाओं में से अनेक पशुचारक समुदाय से जुड़ी हैं.
हिमाचल के घुमंतू चरवाहों गद्दी कहते हैं।
वहाँ की सबसे लोकप्रिय चार प्रेम कहानियों में से तीन इसी समुदाय से जुड़ी हैं-
राजा-गद्दन की,
सुन्नी-भुंकू की,
रांझू-फुलमू की.

राजा-गद्दन की की नायिका गद्दन थी,
यह नाम से ही स्पष्ट है.
रांझू-फुलमू की नायिका फुलमू भी पहाड़ी गद्दन थी,
एक गरीब गद्दी परिवार में जन्मी,
जिसे ऊपरी हिमाचल के एक ज़मींदार परिवार के युवक रांझू से प्यार हो जाता है।
सुन्नी-भुंकू की प्रेमकहानी का नायक भुंकू भी
हिमाचल के चंबा के भरमौर गाँव का गद्दी है,
जिसे लाहुल की लड़की सुन्नी से प्यार हो जाता है।

थोड़ा परिचय इस गद्दी समुदाय का भी.
ये भेड़-बकरियां पालते हैं और बेचते हैं।
उन्हीं को चराते हैं, उन्हीं के साथ विचरते हैं,
उन्हीं के साथ जीते हैं, उन्हीं के गीत गाते हैं।
अमूमन तो इनके पास अपना स्थाई कहलाने वाला ठौर-ठिकाना ही नहीं होता,
कहीं घर बना भी लें, तो रह नहीं पाते,
मौसम बदलने के साथ पहाडों, जंगलों, मैदानों में भटकते ही रहते हैं।
गर्मियों में पहाड़ पर,
तो सर्दियों में मैदानों में.

इस पशुपालक या यूँ कहें पशुचारक समुदाय में
पुरुष गद्दी है, स्त्री गद्दन.
गद्दी-गद्दन की अपनी ठिठोलियाँ हैं-
गद्दी चरांदा भेडां, गद्दन देंदी धूपां, 
गद्दी जो देंदे भेडां, गद्दन जो देंदे रूपां.

लोकगीतों में गद्दी-गद्दन को नृत्य के लिए कहता है,
गद्दन नारीसुलभ शृंगार व मनुहार के साथ कहती है-
उसका लहँगा पुराना हो गया है,
उसके साथ नृत्य में उसे लाज आती है।

गद्दन के लिए उसका गद्दी ही सपनों का राजकुमार है,
गद्दी के लिए गद्दन ही उसकी स्वप्नसुंदरी है।
पर लोकगाथा में किसी सचमुच के राजा को
किसी गद्दन से प्यार हो जाता है
और गद्दन है कि वह राजा की रानी बनकर भी
अंत तक अपने गद्दी को ही चाहती रहती है।


1.
"नोखू-धन्ना : राजा-गद्दन-गद्दी के प्रेम त्रिक की गाथा"

इस ऐतिहासिक कहानी में राजा थे-
कांगड़ा के राजा संसारचंद्र.
और जिस गद्दन से उनको प्रेम हो गया,
उसका नाम था-
नोखू.

राजा संसारचंद्र कलाप्रेमी थे.
गीत के, नृत्य के और सबसे अधिक चित्र के.
कला जगत् में उनका नाम कांगड़ा शैली के संरक्षकों व संवर्धकों में लिया जाता है।

राजा एक बार आखेट के लिए पहाड़ी वादियों में गए,
धौलाधार की उपत्यका में.
वसंत ऋतु का अंतिम चरण था,
प्रकृति बर्फ के प्रभाव से मुक्त हो अपनी हरीतिमा में फूल खिला रही थी।

राजा ने कोई सुंदर सा झरना देख शिविर पास में ही लगवाया.
वहीं कोई पहाड़ी गाँव था-
बांदला.
वहाँ उन्होंने एक पहाड़ी गद्दन को देखा,
जो झरने पर पानी लेने आई थी.
कंबल के ऊनी वेश पर कमर में काले रंग की रस्सी का कमरबंद लगाए,
जंगली बीजों के मनके की माला पहने,
वह वनवासिनी वनदेवी सी लगती थी,
कलश लिए.
वह नोखू थी.

नोखू इतनी अप्रतिम सुंदरी थी कि
राजा ने सोचा कि वह कोई अप्सरा है या परी.
राजा उसके सरल सौंदर्य को देख मंत्रमुग्ध हो गए,
चित्रों के चितेरे रहे राजा को इस जीवंत छवि ने उन्हें स्वयं चित्रित कर स्तंभित कर दिया था.
उन्होंने उससे उसका परिचय पूछा,
तो वह हँसकर बोली कि
वह तो एक साधारण गद्दन है,
भेड़ चराने वाली, यायावर जीवन बिताने वाली.
उसने सामने झोपड़ी भी दिखाई,
जहां वह अभी अपने परिवार के साथ रहा करती थी.

मंत्रमुग्ध हुए राजा ने उसे अपनी रानी बनाने का प्रस्ताव दिया,
नोखू स्तब्ध रह गई.
वह किसी अन्य गद्दी से प्यार करती थी,
जिसका नाम था-
धन्ना.
वह पास के ही कांदी गाँव का रहने वाला था.
वह उसके प्यार के गीत गाता,
उसके पशुओं को चराता,
दूर देश की कहानियाँ सुनाता.

नोखू ने राजा को बिना भय के बता दिया कि
वह केवल धन्ना से प्यार करती है,
वही उसके सहचर हो सकता है.

पर राजा तो राजा थे,
तरकश में कई तीर रखने वाले,
भय के, लोभ के, मोह के.
उन्होंने बहुत प्रलोभन दिए कि वह रानी बनकर राज करेगी,
सोलह श्रृंगार करेगी,
बत्तीस आवरणों में रहेगी,
छप्पन भोग पाएगी,
सैकड़ों की सेवा पाएगी,
परंतु नोखू ने यह स्वीकार नहीं किया.

पर राजहठ त्रियाहठ से ऊपर होता है।
अंत में उसी राजहठ के कारण उसे राजा की रानी बनना पड़ा.
वह राजा की रानी बनकर उनकी राजधानी सुजानपुर चली गई।

पर वह कभी अपनी पुरानी दुनिया नहीं भूली,
न ही अपने प्रेमी धन्ना को.
धन्ना का फिर कुछ पता न चला,
कहते हैं कि
राजा ने धन्ना को कुछ धन देकर मौन कर दिया.
धन्ना के पास कोई विकल्प भी न था.

राजा के पहले से तीन और रानियाँ थीं-
सुकेत से, सिरमूर से और बारा बांघल से.
उसे रानी का प्यार दिया,
नादौन की जागीर भी दी,
उसका नाम नोखू से बदल कर गुलाब भी कर दिया,
पर सब उसे रानी गुलाब की बजाय गुलाब दासी के रूप में ही पुकारते रहे.

वह स्वयं को कभी रानी के नाम से जाने जाना पसंद नहीं करती थी,
राजा संसारचंद्र प्रौढ़ावस्था में तीन महारानियों व इस नोखू को भी भूल
नर्तकी जमालो से प्रेम कर बैठे,
उसके साथ नादौन के महल में अंतिम समय का बहुत सा हिस्सा भी बिताया,
पर नोखू के अंतिम समय का पता नहीं चलता.
राज में राजा अनेक रानियों में बँटे हुए थे,
समाज में गद्दन होने कोई वह सम्मान देता नहीं था.
वह प्रायः अपनी खिड़की से दूर क्षितिज को निहारती मिलती,
जहाँ उसे यकीन था कि
उन्हीं पहाड़ियों में कहीं धन्ना अपनी भेड़ें लिए विचर रहा होगा,
उसके लिए गीत गाता,
उसको ही याद करता, उसको ही भुलाता.


-------------------------------
राजा संसारचंद्र को चित्रकला की कांगड़ा शैली के संरक्षकों व संवर्धकों में परिगणित किया जाता है।
नोखू से उनको एक पुत्र भी हुआ था-
जोधवीर.
राजा संसारचंद्र के जीवन अंतिम हिस्सा इतिहासकार सुखद नहीं बताते.
हिमाचल में नोखू से उनके प्रेम की कहानी राजा-गद्दन के नाम से प्रसिद्ध है,
जो आज भी लोकगीतों में दुहराई जाती है।


 2.
"सुन्नी-भूंकू : पहाड़ से दरिया में समाई प्रेमगाथा"

हिमाचल के चंबा के पास एक नगर है-
भरमौर.
भरमौर का पुराना नाम ब्रह्मपुर रहा है।
यह पीर पंजाल और धौलाधार पर्वत शृंखलाओं से घिरा
तथा रावी और चेनाब की धारा से जुड़ा वह हिस्सा है,
जो शिव की भूमि माना जाता है,
परंतु इसके संस्थापक राजा जयस्तंभ ने इसका नाम ब्रह्मपुर संभवतः
इसलिए रखा था कि
उनके पूर्वजों के समय व शासन में कभी इसी नाम का नगर उत्तराखंड में भी था.

पुराने समय में जब भरमौर नगर न होकर गाँव भर था,
तब वहाँ में भेड़ों का एक चरवाहा रहता था,
भूंकू.
हिमाचल के पहाड़ों में भेड़ों के चरवाहे समुदाय गद्दी कहलाते हैं।
भुंकू भी इस गद्दी समुदाय से ही था.

गद्दी का सारा जीवन यायावर जीवन है.
भेड़ों के साथ शिखर, नगर, ग्राम, नदी, जंगल सब जगह घूमते ही रहते हैं।
भुंकू भी यायावर था, उस पर से युवा,
मस्तमौला, अपनी ही धुन में मस्त.

एक बार भुंकू भेड़ें चराने लाहुल निकल गया,
कोई सौ मील दूर,
वहाँ जहाँ सर्दियों में पूरा हिस्सा बाहरी दुनिया से कट सा जाता है।

वहाँ वह अनाज लेने के लिए गाँव में गया,
जहाँ उसकी मुलाकात सुन्नी से से हुई.
वह भी भुंकू सी अल्हड़ थी, शोख और चंचल.

दोनों एक ही वृत्ति के तो न थे,
पर एक ही प्रवृत्ति के थे.
कुछ तकरार, इकरार, मनुहार से गुजरते हुए दोनों में प्रेम हो गया,
जन्मांतर तक जाने वाला.

भुंकू प्यार में सब कुछ भूल गया,
गाँव-देस, भेड़ें, सब कुछ.
और छ: माह बीत गए.
भुंकू के विदा होने का समय आया.
सुन्नी से फिर जल्द ही लौट आने का वचन देकर वह चला गया,
पर वह गया, तो फिर लौट कर नहीं आया।
शायद उसे कुछ हो गया.

और फिर भुंकू के साथ मानो सुन्नी भी कहीं चली गई,
वह जाने कहाँ खोई रहती और
उसने एक दिन दरिया में कूद कर जान दे दी.

फिर भुंकू भी न रहा,
रह गई बस भुंकू और सुन्नी की अमरगाथा.


-------------------------
सुन्नी-भूंकू की कथा हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले की प्रसिद्ध प्रेम लोक कथा है.
कथा दु:खांत है और हिमाचल की तीन प्रसिद्ध दु:खांत प्रेम-त्रासदियों में रखी जाती है।


3.
"रांझू-फुलमू : चिता की अग्नि में दग्ध हुई प्रेमगाथा"

ऊपरी हिमाचल के एक ज़मींदार परिवार में एक युवक रहता था-
रांझू,
देखने में भोला, पर नटखट,
सदा मस्त रहने वाला,
हर पल शैतानियाँ करता रहने वाला,
बात बात पर हँसता रहने वाला,
यहाँ-वहाँ घूमते रहने वाला.
हँसमुख व मिलनसार होने के कारण सभी उससे प्यार करते थे.

दूसरी तरफ फुलमू बहुत ही शर्मीली और खूबसूरत लड़की थी.
वह पशुचारक गद्दी समुदाय के एक ग़रीब परिवार की लड़की थी.
वो सारा दिन घर का काम करती रहती
और अपने आप में ही खुश रहती थी.

हर शाम को वह सखियों के संग घाट पर पानी लेने जाती थी.
एक दिन रांझू अपने दोस्तों के संग घाट पर घूम रहा था,
वहीं उसकी नज़र फुलमू पर पड़ गई.
उसे पहली नज़र में ही फुलमू से प्यार हो गया.
दूसरी तरफ फुलमू का भी हाल ऐसा ही था,
उसे भी रांझू से पहली नज़र में ही प्यार हो गया.

अब प्यार तो हो गया,
उसका इज़हार कैसे करें
दोनों तरफ ये मुसीबत थी.
रांझू तो रहा ज़मींदार का बेटा था,
सो उसे किसी भी किस्म का कोई डर नहीं था.

अब दोनों चोरी छिपे हर रोज मिलने लगे.
रांझू भी हर रोज घर से भेड़-बकरियाँ चराने के बहाने आ जाता
और शाम तक वहीं जंगलों में घूमता रहता.
उसे जब भी फुलमू से मिलना होता,
तो वो घाट पर आ जाता था
या फिर मुरली बजकर फुलमू को आने का इशारा कर देता था, फुलुमू भी उसकी मुरली की आवाज़ सुनकर घर से भाग आती थी.

धीरे-धीरे प्यार परवान चढ़ने लगा.
लेकिन वो कहते हैं न कि
किसी की खुशी दूसरों से देखी नही जाती.
ठीक वैसा ही फुलमू ओर रांझू के साथ हुआ.
एक लड़का जो फुलमू से शादी करना चाहता था,
उसने रांझू के पिता से सारी बात बता दी.

रांझू एक ज़मींदार का लड़का होकर
किसी ग़रीब लड़की से प्यार करना चाहे
और उसी से शादी करना चाहे,
ये ज़मींदार को कभी भी पसंद नहीं आता.
ज़मींदार ने अपने बेटे रांझू को कहा कि
अगर वो फुलमू से मिलने गया,
तो उसे खानदान से निकल दिया जाएगा.
लेकिन रांझू ने फिर भी फुलमू से मिलना जारी रखा.
दूसरी तरफ फुलमू के पिता को भी लोगों ने बता दिया कि
फुलमू रांझू से मिलने जाती है.

सो दोनों ओर से दोनों पर दवाब पड़ने लगा कि
वो एक दूसरे को भूल जायें.
अंततः रांझू की शादी पक्की कर दी गई,
पास ही के एक गाँव में.

रांझू ने बहुत व्यथित मन से ये बात फुलमू को बताई.
फुलमू ने रांझू के बिना न जीने की कसम खाई थी,
और यहाँ रांझू ने स्वयं रास्ते अलग हो जाने की सूचना दे दी.
रांझू के सामने परिवार और परंपरा का संकट था,
पर फुलमू के लिए तो यह प्रेम और प्राणों का संकट था.
प्रीति के इन त्रासद पलों का लोकपरंपरा में एक मधुर गीत है-
"गल्लां होई बीतीयाँ"

और
जिस दिन रांझू की शादी हो रही थी,
उसी दिन फुलमू जहर खाकर जान दे दी.
युगल के संगीत में एक स्वर सदा के लिए मौन हो गया.

रांझू ओर फुलमू के घर के बीच एक नदी पड़ती थी.
ठीक उसी समय जब नदी के इस पार रांझू की बारात जा रही थी,
दूसरी तरफ फुलमू की अर्थी जा रही थी.
रांझू को ये पता चला कि
सामने जो अर्थी जा रही है,
वह उसकी ही रही फुलमू की है.

रांझू ने तत्काल पालकी रोकने को बोला.
वह पालकी से निकलकर नदी में कूद पड़ा,
उसके दूसरी तरफ पहुँचने के लिए.
तैरकर पार पहुँच कर
रांझू ने फुलमू की अर्थी अपने कंधों पर उठाई,
उसकी चिता को अग्नि दी
और
फिर स्वयं भी फुलमू की जलती हुई चिता में कूदकर जान दे दी.

इस तरह दो प्रेम करने वालों के जीवन एक दु:खद अंत हुआ,
पर अंत में अमर गाथा शेष रह गई,
लोकपरंपरा का मधुर गीत बनकर.


4.
"कुंजू-चंचलो : हिमाचल की त्रासद प्रेमगाथा"

किसी जमाने में हिमाचल के किसी राजा का एक वीर सिपाही था-
कुंजू.
वह किसी नृत्यांगना को चाहता था,
जिसका नाम था-
चंचलो.

उस चंचलो को चाहने वाले दो और थे-
राजा और वजीर.
सत्ता और शक्ति से बहुत कुछ पाया जाता रहा है,
जिसमें बहुत बार सुरसुंदरी का प्यार भी रहा है।
पर राजा जरा सज्जन रहा होगा
या फिर चंचलो ही बहुत जिद्दी रही होगी
या फिर कुंजू ही बहुत प्रभावशाली रहा होगा।

राजा ने चला कर चंचलो का प्यार न माँगा,
राजा के चाहते वजीर चाहने की जुर्रत नहीं कर सकता था।
पर चाह तो चाह है,
हारे की आह बनती है, यदि वह सीधा हो,
अन्यथा वह चाल बनती है, यदि वह कुटिल हो.

वजीर ने राजा को समझाया कि
कुंजू को युद्ध में भेज दिया जाए,
प्रेमी मरकर ही अमर होते रहे हैं,
कुंजू को भी यह अवसर दिया जाए.

और राजा को बात जँच गई.
वह नि:संतान भी था,
तो रानी के होते किसी को नई रानी बनाने का अधिकार भी मानता होगा.

कुंजू के सीने में जितना मोम था,
उतना ही फौलाद भी.
वह प्रेम में कोमल पड़ सकता था,
पर पराक्रम में पीछे नहीं हट सकता था।

वह युद्ध में चला गया,
चंचलो के लिए सजल आँखें लिए,
चंचलो की आँखें सजल किए.

षड्यंत्र सफल हुआ,
प्रेम विफल हो गया.
कुंजू मारा गया,
चाल से.

चंचलो को जब खबर मिली,
तो इसके पीछे की खबर भी पता चली.
चंचलो ने पीड़ा को असह्य माना
और आत्महत्या कर ली,
पर उसने राजा और मंत्री के पाप को भी अक्षम्य माना,
मरने से पहले दोनों को शाप दे गई,
प्रेम और सम्मान से हीन मृत्यु का.

राजा उतना बुरा नहीं था,
जितना वजीर ने बना दिया था.
पश्चात्ताप में उसने भी आत्महत्या कर ली.
वजीर उससे भी अधिक बुरा था,
जितना दिखता था.
उसकी चंचलो के गुरु ने हत्या कर दी.

कहानी दुखद अंत लिए है, हिमाचल की लोक परंपरा ने इसे स्मृतियों में सॅंजो रखा है, सदा के लिए.