बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

करवा चौथ : चार चाँदों की कहानी

"करवा चौथ : चार चाँदों की कहानी"

करवा चौथ पति की मंगलकामना का व्रत है।
हर व्रत की तरह इसमें कुछ कर्मकांड है, कुछ कथा है.

सबसे पहले कर्मकांड-
व्रत उपवास की दृष्टि से कठिन है,
पर विधान की दृष्टि से सरल है.
करवा चौथ को संस्कृत में "करक चतुर्थी" कहा जाता है.
करक भी कलश का रूपांतर या पर्याय है,
जो लोकभाषा में करवा है।
कलश भी दो हैं,
एक मिट्टी का, अन्न से भरा,
एक धातु का, जल से भरा.
दोनों शुभत्व के लिए हैं।

करवा चौथ का नामकरण करवा पर है,
पर वह व्यवहार में जरा गौण है,
प्रमुख तो चाँद है,
उसको झीने से आवृत्त कर रही चलनी या छलनी है,
उसके इस पार, उस पार दो जन हैं,
एक दूसरे के चाँद बने हुए.

यूँ तो चंद्रमा अधिकांशत: वंकिम ही होता है,
किंतु चतुर्थी का चंद्रमा कुछ अधिक ही वंकिम होता है
उसका यह टेढ़ापन शुक्ल पक्ष के तुलना में कृष्ण पक्ष में
उसे कुछ अधिक ही बेडौल कर जाता है.

परंपरा में चतुर्थी का चंद्रमा अशुभ है.
फिर चाँद के सामने खड़ा पति किस रूप में है ?
परंपरा में स्त्री पति को समक्ष रखकर
चलनी की ओट में उस चाँद को देखती है,
वह उसके अशुभत्व को स्वयं पर लेती है.
स्त्री के द्वारा दुआएँ करना भी दरअसल कई बार
"बलाएँ लेने" की एक पुरानी रीति का संस्कृति अनुमोदित हिस्सा है,
जिसमें स्त्री प्रार्थना करती है कि
उसके पति या पुत्र पर कोई संकट न आए,
और यदि वह टल न पाए,
तो उनकी बजाय स्वयं मुझ पर ही आ आये.
यह प्रेम का त्याग है,
जो सुख-दु:ख का बँटवारा अलग ढंग से करता है,
सुख देना चाहता है,
दुःख लेना चाहता है.

अब कथा-
करवा चौथ की कुल चार कहानियाँ हैं,
जिनमें दो तो एक जैसी हैं और प्रसिद्ध भी वही हैं.
करवा चौथ की यह कहानी भी ज़रा विचित्र है.
कहानी मूल व्रत की पृष्ठभूमि नहीं बताती,
उसका माहात्म्य बताती है,
वह भी प्रीति से नहीं, भीति से,
बहुत कुछ सत्यनारायण व्रत की कथा की तरह.

व्रत में कहानी सुनना अनिवार्य है,
पर वह बहुत श्रवणीय नहीं है,
कम से कम पति-पत्नी के प्रेम की दृष्टि से तो नहीं ही है.
वस्तुतः तीन-चौथाई तो यह कथा
ननद-भाभी के मध्य प्रतिस्पर्धा सी है
और
आगे एक चौथाई व्रताधिदेव विनायक का प्रतिशोध है,
व्रतभंगकर्त्री बहन का प्रायश्चित है.

ननद-भाभी के मध्य प्रतियोगिता भी इस पर आधारित है कि
किसका रिश्ता गहरा है और कौन अधिक विश्वसनीय है.
भाई-बहन बनाम पति-पत्नी की प्रतिस्पर्धा में
बहन अपने पति के संकट की साक्षी बनती है।
फिर उसका व्रत एक दिन का नहीं,
एक वर्ष का तप बन जाता है।

कहानी सात भाइयों की प्यारी बहन के मायके में रहने
और भाइयों के कहे अनुसार व्रत तोड़ने से प्रारंभ होती है।
भाई भूखी-प्यासी बेहाल होती बहन को निजात दिलाने के लिए
चाँद उगने से पहले ही सामने के पेड़ पर
छलनी की ओट में दीप जलाकर
उसे ही चाँद दिखा कर व्रत तुड़वा देते हैं।

फिर गणेश का प्रतिशोध प्रारंभ होता है।
बहन के पति तत्काल रुग्ण ही नहीं होते,
वरन् मृत्यु को भी प्राप्त हो जाते हैं।
कहानी में पति की सुरक्षा का बोध तो प्रबल है,
पर उसके प्रति अनुराग भी प्रबल हो,
ऐसा कहीं सीधे नहीं दिखता.
प्रकारांतर से पृष्ठभूमि में गणेश की भूमिका है,
जो किसी समय के विनायक हैं और विनायक का संस्कृत में अर्थ होता है-
खलनायक.
तब वे उपास्य हैं, शनि की तरह,
न पूजो, तो बुरा कर देंगे।

हम देवों की आराधना दो रूपों में करते हैं-
सकारात्मक रूप में उनसे प्रेम के कारण
नकारात्मक रूप में किसी अन्य से बचाव के कारण
जैसे शनि को हनुमान का व्रत नकारात्मक रूप में शनि से बचाव के कारण किया जाता है,
तो मंगल को सकारात्मक रूप में उनसे प्रेम के कारण.
चतुर्थी के चन्द्र को प्रायः अशुभ माना जाता था,
अतः गणेश की पूजा इस दिन उसके अशुभ प्रभाव से बचने के लिए किया जाता है.

कहानी की नायिका, उसकी विनायिका भी है
और कहानी के अधिकांश रूपों में वह अनामिका है.
शायद परंपरा अभिशप्त का नाम न लेना चाहती हो.
कुछ जगहों पर उसका ही नाम "करवा" रखा मिलता है
और व्रत के नाम व विधान से यह सुसंगत भी लगता है।
कहानी के एक रूपांतर में उसका नाम वीरावती है.
यहाँ वीरा शब्द वीर की बजाय भाई का वाचक अधिक लगता है।
इस रूपांतर में वह वणिक् वर्ग से नहीं,
अपितु विप्र वर्ग से है.
व्रतभंग के शाप से मुक्ति का विधान इंद्राणी सुझाती हैं,
नायिका मनोयोग से व्रत करती भी है,
पर कहीं भी नायिका को सती अनसूया या सावित्री या बिहुला का दर्जा प्राप्त नहीं है,
वह जैसे अपराध का प्रायश्चित कर रही हो,
उस पाप का, जो हुआ ही नहीं,
हुआ भी, तो जानकर किया ही नहीं.

प्रायश्चित के उपरांत गणेश या चतुर्थी माता की कृपा से सब मंगल हो जाता है,
पर कहानी के कुछ रूपांतरों में ननद-भाभी का द्वंद्व जारी रहता है।
वहाँ स्वयं भाभी ही बहन के पति को पुनर्जीवित करती है,
वह भी बहुत मनुहार और कलह के बाद,
अपनी कनिष्ठिका उँगली से अमृत पिला कर.

एकबारगी तो ऐसा लगता है जैसे
सारी गाथा ननद को मायके से ससुराल भेजने की कथा है,
जो निष्कर्ष ये देती है कि
बहन को भाइयों के स्नेह पर भरोसा कम से कम ही करना चाहिए,
वरना अपना घर संकट में पड़ेगा.
प्रतिद्वंद्विता के बीज बहुत स्पष्ट हैं,
इसीलिए ये एकमात्र कथा है,
जिसे पंडित नहीं, पड़ोसिनें सुनाती हैं.

दो अन्य कहानियों में एक इसके आगे का माहात्म्य है,
जिसमें कोई पुरुष नदी में मकर द्वारा पकड़े जाने पर
करवा का नाम लेकर मुक्त हो जाता है।

सही परिदृश्य जानने के लिए
कहानी को रक्षाबंधन की पृष्ठभूमि में रखकर देखा जाना समीचीन होगा,
जो वर्षा ऋतु में आता है।
यह मुख्यत: वह समय था,
जब नवविवाहिता कन्याएँ मायके आतीं थीं,
कजली के लिए, झूले के लिए.

करवा चौथ का समय वर्षा के समापन व शरदारंभ का समय है,
कन्या का वर्षा कालीन चातुर्मास पूर्ण होने को है,
उसे अपने पतिगृह के लिए विदा होना चाहिए।
कहानी में कुछ छिपी सी कहानी यह भी है.

कहानी का लौकिक विस्तार बहुत है,
परंतु पौराणिक आधार नगण्य है।
बस जनश्रुतियों में चलती आई इस कहानी में
न तो बहुत दार्शनिक विश्लेषण की संभावना है,
न ही कोई संस्कृतगत या साहित्यिक परिष्कार के बहुत अवसर.

कहानी से फिर व्रत विधान की ओर लौटते हैं,
प्रश्न उठता है कि चाँद दर्शन के लिए छलनी ही क्यों?
कहानी में बहन को दीप को चाँद उसके सामने छलनी रख कर ही किया गया था,
परंपरा शायद उसे चाँद के सामने दुहराती है
या फिर इसलिये भी कि
फिर से कोई छल से झूठा चाँद न दिखला जाए,
पहले झिलमिल में झाँक लें,
फिर पूरा तस्दीक कर लें.
मूल वजह शायद यह है कि कि
चाँद का अशुभत्व छलनी से छनकर क्या पता कुछ कम हो जाए.

आज करवा फिल्मों से फैशन तक फैल चुका है,
इनमें जरा कोरी दिखती रीति के पीछे कुछ गहरी भावना तलाशते हैं।
एक दृष्टि से करवा चौथ प्यास जगाने का व्रत है,
वहाँ जहाँ अतृप्ति है, वह और प्रखर हो जाए,
जहाँ तृप्ति है, वह नीरसता में न धरी रह जाए.

कुछ पुरानी पंक्तियाँ स्मृत हो आईं हैं-

दिवस भर की क्षुधा-पिपासा
जब प्राणों को कंठ तक लाए,
चतुर्थी का वंकिम चंद्रमा जब उदित हो,
और मेघ छलनी बन छाए,
तब देखना चार चाँद बनते हैं-

वह जो नभ में है,
अनगिनत की प्रीति का मौन द्रष्टा बनकर,
वह जो कर में है,
दृश्य के लिए हाथ की झिलमिल छलनी बनकर,
और दो और हैं,
छलनी के दोनों पार,
द्रष्टा भी, दृश्य भी, परस्पर के दो चाँद बनकर.

देखो,
अर्घ्य देना जब चाँद को,
तब उस चाँद को देना,
जो आकाश में निकला है
और
खड़ा है-- छलनी के पार.

पर
तृषा बुझाना जब जल ले,
उस चाँद को ही देना,
जो अंतस् में खिला है
और
बैठ गया है-- छलनी होने-करने के बावजूद.

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