शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

हिमाचल की चार अमर प्रेमगाथाएँ

हिमाचल की चार अमर प्रेमगाथाएँ




हिमाचल की लोक प्रेमगाथाओं में से अनेक पशुचारक समुदाय से जुड़ी हैं.
हिमाचल के घुमंतू चरवाहों गद्दी कहते हैं।
वहाँ की सबसे लोकप्रिय चार प्रेम कहानियों में से तीन इसी समुदाय से जुड़ी हैं-
राजा-गद्दन की,
सुन्नी-भुंकू की,
रांझू-फुलमू की.

राजा-गद्दन की की नायिका गद्दन थी,
यह नाम से ही स्पष्ट है.
रांझू-फुलमू की नायिका फुलमू भी पहाड़ी गद्दन थी,
एक गरीब गद्दी परिवार में जन्मी,
जिसे ऊपरी हिमाचल के एक ज़मींदार परिवार के युवक रांझू से प्यार हो जाता है।
सुन्नी-भुंकू की प्रेमकहानी का नायक भुंकू भी
हिमाचल के चंबा के भरमौर गाँव का गद्दी है,
जिसे लाहुल की लड़की सुन्नी से प्यार हो जाता है।

थोड़ा परिचय इस गद्दी समुदाय का भी.
ये भेड़-बकरियां पालते हैं और बेचते हैं।
उन्हीं को चराते हैं, उन्हीं के साथ विचरते हैं,
उन्हीं के साथ जीते हैं, उन्हीं के गीत गाते हैं।
अमूमन तो इनके पास अपना स्थाई कहलाने वाला ठौर-ठिकाना ही नहीं होता,
कहीं घर बना भी लें, तो रह नहीं पाते,
मौसम बदलने के साथ पहाडों, जंगलों, मैदानों में भटकते ही रहते हैं।
गर्मियों में पहाड़ पर,
तो सर्दियों में मैदानों में.

इस पशुपालक या यूँ कहें पशुचारक समुदाय में
पुरुष गद्दी है, स्त्री गद्दन.
गद्दी-गद्दन की अपनी ठिठोलियाँ हैं-
गद्दी चरांदा भेडां, गद्दन देंदी धूपां, 
गद्दी जो देंदे भेडां, गद्दन जो देंदे रूपां.

लोकगीतों में गद्दी-गद्दन को नृत्य के लिए कहता है,
गद्दन नारीसुलभ शृंगार व मनुहार के साथ कहती है-
उसका लहँगा पुराना हो गया है,
उसके साथ नृत्य में उसे लाज आती है।

गद्दन के लिए उसका गद्दी ही सपनों का राजकुमार है,
गद्दी के लिए गद्दन ही उसकी स्वप्नसुंदरी है।
पर लोकगाथा में किसी सचमुच के राजा को
किसी गद्दन से प्यार हो जाता है
और गद्दन है कि वह राजा की रानी बनकर भी
अंत तक अपने गद्दी को ही चाहती रहती है।


1.
"नोखू-धन्ना : राजा-गद्दन-गद्दी के प्रेम त्रिक की गाथा"

इस ऐतिहासिक कहानी में राजा थे-
कांगड़ा के राजा संसारचंद्र.
और जिस गद्दन से उनको प्रेम हो गया,
उसका नाम था-
नोखू.

राजा संसारचंद्र कलाप्रेमी थे.
गीत के, नृत्य के और सबसे अधिक चित्र के.
कला जगत् में उनका नाम कांगड़ा शैली के संरक्षकों व संवर्धकों में लिया जाता है।

राजा एक बार आखेट के लिए पहाड़ी वादियों में गए,
धौलाधार की उपत्यका में.
वसंत ऋतु का अंतिम चरण था,
प्रकृति बर्फ के प्रभाव से मुक्त हो अपनी हरीतिमा में फूल खिला रही थी।

राजा ने कोई सुंदर सा झरना देख शिविर पास में ही लगवाया.
वहीं कोई पहाड़ी गाँव था-
बांदला.
वहाँ उन्होंने एक पहाड़ी गद्दन को देखा,
जो झरने पर पानी लेने आई थी.
कंबल के ऊनी वेश पर कमर में काले रंग की रस्सी का कमरबंद लगाए,
जंगली बीजों के मनके की माला पहने,
वह वनवासिनी वनदेवी सी लगती थी,
कलश लिए.
वह नोखू थी.

नोखू इतनी अप्रतिम सुंदरी थी कि
राजा ने सोचा कि वह कोई अप्सरा है या परी.
राजा उसके सरल सौंदर्य को देख मंत्रमुग्ध हो गए,
चित्रों के चितेरे रहे राजा को इस जीवंत छवि ने उन्हें स्वयं चित्रित कर स्तंभित कर दिया था.
उन्होंने उससे उसका परिचय पूछा,
तो वह हँसकर बोली कि
वह तो एक साधारण गद्दन है,
भेड़ चराने वाली, यायावर जीवन बिताने वाली.
उसने सामने झोपड़ी भी दिखाई,
जहां वह अभी अपने परिवार के साथ रहा करती थी.

मंत्रमुग्ध हुए राजा ने उसे अपनी रानी बनाने का प्रस्ताव दिया,
नोखू स्तब्ध रह गई.
वह किसी अन्य गद्दी से प्यार करती थी,
जिसका नाम था-
धन्ना.
वह पास के ही कांदी गाँव का रहने वाला था.
वह उसके प्यार के गीत गाता,
उसके पशुओं को चराता,
दूर देश की कहानियाँ सुनाता.

नोखू ने राजा को बिना भय के बता दिया कि
वह केवल धन्ना से प्यार करती है,
वही उसके सहचर हो सकता है.

पर राजा तो राजा थे,
तरकश में कई तीर रखने वाले,
भय के, लोभ के, मोह के.
उन्होंने बहुत प्रलोभन दिए कि वह रानी बनकर राज करेगी,
सोलह श्रृंगार करेगी,
बत्तीस आवरणों में रहेगी,
छप्पन भोग पाएगी,
सैकड़ों की सेवा पाएगी,
परंतु नोखू ने यह स्वीकार नहीं किया.

पर राजहठ त्रियाहठ से ऊपर होता है।
अंत में उसी राजहठ के कारण उसे राजा की रानी बनना पड़ा.
वह राजा की रानी बनकर उनकी राजधानी सुजानपुर चली गई।

पर वह कभी अपनी पुरानी दुनिया नहीं भूली,
न ही अपने प्रेमी धन्ना को.
धन्ना का फिर कुछ पता न चला,
कहते हैं कि
राजा ने धन्ना को कुछ धन देकर मौन कर दिया.
धन्ना के पास कोई विकल्प भी न था.

राजा के पहले से तीन और रानियाँ थीं-
सुकेत से, सिरमूर से और बारा बांघल से.
उसे रानी का प्यार दिया,
नादौन की जागीर भी दी,
उसका नाम नोखू से बदल कर गुलाब भी कर दिया,
पर सब उसे रानी गुलाब की बजाय गुलाब दासी के रूप में ही पुकारते रहे.

वह स्वयं को कभी रानी के नाम से जाने जाना पसंद नहीं करती थी,
राजा संसारचंद्र प्रौढ़ावस्था में तीन महारानियों व इस नोखू को भी भूल
नर्तकी जमालो से प्रेम कर बैठे,
उसके साथ नादौन के महल में अंतिम समय का बहुत सा हिस्सा भी बिताया,
पर नोखू के अंतिम समय का पता नहीं चलता.
राज में राजा अनेक रानियों में बँटे हुए थे,
समाज में गद्दन होने कोई वह सम्मान देता नहीं था.
वह प्रायः अपनी खिड़की से दूर क्षितिज को निहारती मिलती,
जहाँ उसे यकीन था कि
उन्हीं पहाड़ियों में कहीं धन्ना अपनी भेड़ें लिए विचर रहा होगा,
उसके लिए गीत गाता,
उसको ही याद करता, उसको ही भुलाता.


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राजा संसारचंद्र को चित्रकला की कांगड़ा शैली के संरक्षकों व संवर्धकों में परिगणित किया जाता है।
नोखू से उनको एक पुत्र भी हुआ था-
जोधवीर.
राजा संसारचंद्र के जीवन अंतिम हिस्सा इतिहासकार सुखद नहीं बताते.
हिमाचल में नोखू से उनके प्रेम की कहानी राजा-गद्दन के नाम से प्रसिद्ध है,
जो आज भी लोकगीतों में दुहराई जाती है।


 2.
"सुन्नी-भूंकू : पहाड़ से दरिया में समाई प्रेमगाथा"

हिमाचल के चंबा के पास एक नगर है-
भरमौर.
भरमौर का पुराना नाम ब्रह्मपुर रहा है।
यह पीर पंजाल और धौलाधार पर्वत शृंखलाओं से घिरा
तथा रावी और चेनाब की धारा से जुड़ा वह हिस्सा है,
जो शिव की भूमि माना जाता है,
परंतु इसके संस्थापक राजा जयस्तंभ ने इसका नाम ब्रह्मपुर संभवतः
इसलिए रखा था कि
उनके पूर्वजों के समय व शासन में कभी इसी नाम का नगर उत्तराखंड में भी था.

पुराने समय में जब भरमौर नगर न होकर गाँव भर था,
तब वहाँ में भेड़ों का एक चरवाहा रहता था,
भूंकू.
हिमाचल के पहाड़ों में भेड़ों के चरवाहे समुदाय गद्दी कहलाते हैं।
भुंकू भी इस गद्दी समुदाय से ही था.

गद्दी का सारा जीवन यायावर जीवन है.
भेड़ों के साथ शिखर, नगर, ग्राम, नदी, जंगल सब जगह घूमते ही रहते हैं।
भुंकू भी यायावर था, उस पर से युवा,
मस्तमौला, अपनी ही धुन में मस्त.

एक बार भुंकू भेड़ें चराने लाहुल निकल गया,
कोई सौ मील दूर,
वहाँ जहाँ सर्दियों में पूरा हिस्सा बाहरी दुनिया से कट सा जाता है।

वहाँ वह अनाज लेने के लिए गाँव में गया,
जहाँ उसकी मुलाकात सुन्नी से से हुई.
वह भी भुंकू सी अल्हड़ थी, शोख और चंचल.

दोनों एक ही वृत्ति के तो न थे,
पर एक ही प्रवृत्ति के थे.
कुछ तकरार, इकरार, मनुहार से गुजरते हुए दोनों में प्रेम हो गया,
जन्मांतर तक जाने वाला.

भुंकू प्यार में सब कुछ भूल गया,
गाँव-देस, भेड़ें, सब कुछ.
और छ: माह बीत गए.
भुंकू के विदा होने का समय आया.
सुन्नी से फिर जल्द ही लौट आने का वचन देकर वह चला गया,
पर वह गया, तो फिर लौट कर नहीं आया।
शायद उसे कुछ हो गया.

और फिर भुंकू के साथ मानो सुन्नी भी कहीं चली गई,
वह जाने कहाँ खोई रहती और
उसने एक दिन दरिया में कूद कर जान दे दी.

फिर भुंकू भी न रहा,
रह गई बस भुंकू और सुन्नी की अमरगाथा.


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सुन्नी-भूंकू की कथा हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले की प्रसिद्ध प्रेम लोक कथा है.
कथा दु:खांत है और हिमाचल की तीन प्रसिद्ध दु:खांत प्रेम-त्रासदियों में रखी जाती है।


3.
"रांझू-फुलमू : चिता की अग्नि में दग्ध हुई प्रेमगाथा"

ऊपरी हिमाचल के एक ज़मींदार परिवार में एक युवक रहता था-
रांझू,
देखने में भोला, पर नटखट,
सदा मस्त रहने वाला,
हर पल शैतानियाँ करता रहने वाला,
बात बात पर हँसता रहने वाला,
यहाँ-वहाँ घूमते रहने वाला.
हँसमुख व मिलनसार होने के कारण सभी उससे प्यार करते थे.

दूसरी तरफ फुलमू बहुत ही शर्मीली और खूबसूरत लड़की थी.
वह पशुचारक गद्दी समुदाय के एक ग़रीब परिवार की लड़की थी.
वो सारा दिन घर का काम करती रहती
और अपने आप में ही खुश रहती थी.

हर शाम को वह सखियों के संग घाट पर पानी लेने जाती थी.
एक दिन रांझू अपने दोस्तों के संग घाट पर घूम रहा था,
वहीं उसकी नज़र फुलमू पर पड़ गई.
उसे पहली नज़र में ही फुलमू से प्यार हो गया.
दूसरी तरफ फुलमू का भी हाल ऐसा ही था,
उसे भी रांझू से पहली नज़र में ही प्यार हो गया.

अब प्यार तो हो गया,
उसका इज़हार कैसे करें
दोनों तरफ ये मुसीबत थी.
रांझू तो रहा ज़मींदार का बेटा था,
सो उसे किसी भी किस्म का कोई डर नहीं था.

अब दोनों चोरी छिपे हर रोज मिलने लगे.
रांझू भी हर रोज घर से भेड़-बकरियाँ चराने के बहाने आ जाता
और शाम तक वहीं जंगलों में घूमता रहता.
उसे जब भी फुलमू से मिलना होता,
तो वो घाट पर आ जाता था
या फिर मुरली बजकर फुलमू को आने का इशारा कर देता था, फुलुमू भी उसकी मुरली की आवाज़ सुनकर घर से भाग आती थी.

धीरे-धीरे प्यार परवान चढ़ने लगा.
लेकिन वो कहते हैं न कि
किसी की खुशी दूसरों से देखी नही जाती.
ठीक वैसा ही फुलमू ओर रांझू के साथ हुआ.
एक लड़का जो फुलमू से शादी करना चाहता था,
उसने रांझू के पिता से सारी बात बता दी.

रांझू एक ज़मींदार का लड़का होकर
किसी ग़रीब लड़की से प्यार करना चाहे
और उसी से शादी करना चाहे,
ये ज़मींदार को कभी भी पसंद नहीं आता.
ज़मींदार ने अपने बेटे रांझू को कहा कि
अगर वो फुलमू से मिलने गया,
तो उसे खानदान से निकल दिया जाएगा.
लेकिन रांझू ने फिर भी फुलमू से मिलना जारी रखा.
दूसरी तरफ फुलमू के पिता को भी लोगों ने बता दिया कि
फुलमू रांझू से मिलने जाती है.

सो दोनों ओर से दोनों पर दवाब पड़ने लगा कि
वो एक दूसरे को भूल जायें.
अंततः रांझू की शादी पक्की कर दी गई,
पास ही के एक गाँव में.

रांझू ने बहुत व्यथित मन से ये बात फुलमू को बताई.
फुलमू ने रांझू के बिना न जीने की कसम खाई थी,
और यहाँ रांझू ने स्वयं रास्ते अलग हो जाने की सूचना दे दी.
रांझू के सामने परिवार और परंपरा का संकट था,
पर फुलमू के लिए तो यह प्रेम और प्राणों का संकट था.
प्रीति के इन त्रासद पलों का लोकपरंपरा में एक मधुर गीत है-
"गल्लां होई बीतीयाँ"

और
जिस दिन रांझू की शादी हो रही थी,
उसी दिन फुलमू जहर खाकर जान दे दी.
युगल के संगीत में एक स्वर सदा के लिए मौन हो गया.

रांझू ओर फुलमू के घर के बीच एक नदी पड़ती थी.
ठीक उसी समय जब नदी के इस पार रांझू की बारात जा रही थी,
दूसरी तरफ फुलमू की अर्थी जा रही थी.
रांझू को ये पता चला कि
सामने जो अर्थी जा रही है,
वह उसकी ही रही फुलमू की है.

रांझू ने तत्काल पालकी रोकने को बोला.
वह पालकी से निकलकर नदी में कूद पड़ा,
उसके दूसरी तरफ पहुँचने के लिए.
तैरकर पार पहुँच कर
रांझू ने फुलमू की अर्थी अपने कंधों पर उठाई,
उसकी चिता को अग्नि दी
और
फिर स्वयं भी फुलमू की जलती हुई चिता में कूदकर जान दे दी.

इस तरह दो प्रेम करने वालों के जीवन एक दु:खद अंत हुआ,
पर अंत में अमर गाथा शेष रह गई,
लोकपरंपरा का मधुर गीत बनकर.


4.
"कुंजू-चंचलो : हिमाचल की त्रासद प्रेमगाथा"

किसी जमाने में हिमाचल के किसी राजा का एक वीर सिपाही था-
कुंजू.
वह किसी नृत्यांगना को चाहता था,
जिसका नाम था-
चंचलो.

उस चंचलो को चाहने वाले दो और थे-
राजा और वजीर.
सत्ता और शक्ति से बहुत कुछ पाया जाता रहा है,
जिसमें बहुत बार सुरसुंदरी का प्यार भी रहा है।
पर राजा जरा सज्जन रहा होगा
या फिर चंचलो ही बहुत जिद्दी रही होगी
या फिर कुंजू ही बहुत प्रभावशाली रहा होगा।

राजा ने चला कर चंचलो का प्यार न माँगा,
राजा के चाहते वजीर चाहने की जुर्रत नहीं कर सकता था।
पर चाह तो चाह है,
हारे की आह बनती है, यदि वह सीधा हो,
अन्यथा वह चाल बनती है, यदि वह कुटिल हो.

वजीर ने राजा को समझाया कि
कुंजू को युद्ध में भेज दिया जाए,
प्रेमी मरकर ही अमर होते रहे हैं,
कुंजू को भी यह अवसर दिया जाए.

और राजा को बात जँच गई.
वह नि:संतान भी था,
तो रानी के होते किसी को नई रानी बनाने का अधिकार भी मानता होगा.

कुंजू के सीने में जितना मोम था,
उतना ही फौलाद भी.
वह प्रेम में कोमल पड़ सकता था,
पर पराक्रम में पीछे नहीं हट सकता था।

वह युद्ध में चला गया,
चंचलो के लिए सजल आँखें लिए,
चंचलो की आँखें सजल किए.

षड्यंत्र सफल हुआ,
प्रेम विफल हो गया.
कुंजू मारा गया,
चाल से.

चंचलो को जब खबर मिली,
तो इसके पीछे की खबर भी पता चली.
चंचलो ने पीड़ा को असह्य माना
और आत्महत्या कर ली,
पर उसने राजा और मंत्री के पाप को भी अक्षम्य माना,
मरने से पहले दोनों को शाप दे गई,
प्रेम और सम्मान से हीन मृत्यु का.

राजा उतना बुरा नहीं था,
जितना वजीर ने बना दिया था.
पश्चात्ताप में उसने भी आत्महत्या कर ली.
वजीर उससे भी अधिक बुरा था,
जितना दिखता था.
उसकी चंचलो के गुरु ने हत्या कर दी.

कहानी दुखद अंत लिए है, हिमाचल की लोक परंपरा ने इसे स्मृतियों में सॅंजो रखा है, सदा के लिए. 


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