गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

काशी : "सत्यं, शिवं, सुंदरम्



"काशी : "सत्यं, शिवं, सुंदरम्"

नदी का तट है और इस पार से उस पार का दृश्य दिख रहा है-
उस पार की दुनिया,
अपने परे की दुनिया
कुहरे में बादल में खोती दुनिया.
धुएँ में झिलमिल होती दुनिया.

हर वो दृश्य,
जिसमें अनदेखे की सी भावना हो
और
देखे जाने की संभावना भी हो,
कुछ अलग ही उत्कंठा जगाता है.

काशी के पास का हूँ,
जहाँ की विभाजक रेखा कर्मनाशा बनाती है
और
जहाँ गंगा की तटरेखा भी जरा दूर से छूकर गुजरती है.

स्मृतियों के चित्रपट के साथ ही
चित्रपट से तीन दृश्य उभर आये हैं-

-डॉन, जिसमें सचमुच कोई गंगा किनारे वाला छोरा बनारसी पान में मस्त नाच गा रहा है.

-यूफोरिया, जिसमें पूरब का पलाश सेन गलियों से घाटों तक "आ रे मेरी धड़कन आ रे" गाता हुआ और हूक उठाता हुआ घूम रहा है.

-राँझना, जिसमें दक्षिण से धनुष अपनी मासूमियत में बनारसिया बना "बस तुम तक, तुम तक" की आस लिए मर रहा है.

पुराना कोई ख्याल है कि
काशी धरती से कुछ ऊपर है,
कैलासी के त्रिशूल पर होने की वजह से.
त्रिपथगा गंगा के तट पर होने
और
त्रिनेत्र के त्रिशूल पर बसने पर भी
काशी कभी तटस्थ न हुआ
परंतु
कभी वह अपनी धारा में इस तरह भी बह पाया कि
मुख्यधारा का अंग बन जाये.

यहाँ गंगा उत्तर प्रवाहिणी है,
गंतव्य की बजाय स्रोत की दिशा में बहती है.
काशी की नाव में दोनों समाहित हैं-
शिवत्व का ठहराव भी
और
गंगा का बहाव भी.
एक तरफ पथरीला घाट
और
दूसरी तरफ रेतीला पाट
यही काशी की गंगा हैं.

काशी डूबने के लिए है,
वो जो संसार चाहते हैं,
काशी पार जाने के लिए है,
वो जो संसार के पार जाना चाहते हैं.

वरुणा नदी और गंगा के अस्सी के बीच बसने के कारण वाराणसी नाम पाने वाला ये शहर
अब कस्बाई शक्ल लेकर जाने कहाँ तक फैल गया है.
तंग गलियों और बेतुकी गालियों की इस नगरी से
तंग किसी आदमी ने तंज कसा था-
"राँड़, साँड़ , सीढ़ी, संन्यासी,
इनसे बचे तो सेवे काशी."

वह बाहरी रहा होगा,
जिनके लिए काशी जीने का नहीं,
मरने का नगर है,
जहाँ विश्व का पुरातनतम और निरंतरतम श्मशान है.

हिन्दू मान्यता में यह एकमात्र जीवित शाश्वत या सनातन नगरी है.
इतिहास कहता है,
काशी विश्व का पुरातनतम जीवित नगर है,
नगर भी नहीं,
बल्कि नगरी,
जहाँ सर्पिल गलियाँ हैं,
बेतरतीब बसावट है.

अपनी घनी और जटिल बसावट के बावजूद
यह तमाम नगरों का आदर्श रहा है,
दूर राजपूताना के बूँदी, बीकानेर और जयपुर
तक में छोटी काशी का उपनाम पाने की होड़ रही है.
काशी के बूँदी परकोटा घाट पर मेरा ननिहाल है,
जो बूँदी महल नाम से जाना जाता रहा है.
वहाँ के वैवाहिक भित्तिचित्रों में बूँदी की कला की गहरी छाप है.
पुष्कर के घाटों में काशी की छवि है,
कौन जाने, किसने किससे तस्वीरें पाईं.

अगर ये नगर पश्चिम में रहा होता,
तो इटली के वेनिस को पीछे छोड़ चुका होता,
पूरब में ही विकसित हुआ होता,
तो जापान का क्योटो इससे सीखने आता.

निकम्मे शासकों और निठल्ले जनमानस ने मिलकर इसका सत्यानाश कर दिया.
कभी मुक्ति के बहाने काशी करवट के नाम पर आत्महत्या कराने वाला नगर
स्वयं आत्महत्या की ओर अग्रसर होकर
शायद अपने ही कुछ गतकर्मों का तर्पण कर रहा है.

मुक्ति की मान्यता ने मरणासन्न जन की भीड़ जुटाई,
तो दवाख़ाने भी बेतहाशा बढ़े.
चिकित्सा के आदिदेव वैद्यनाथ शिव का नगर
चिकित्सा का केंद्र बन गया है
और चिकित्सकीय शोषण का भी.

एक समय की विद्या और संस्कृति की नगरी,
आज भाँग और भगवान की नगरी होकर मगन है.
वो जो लस्सी और लौंगलत्ता के शौकीन हैं,
पान और मिश्रांबु के मुरीद हैं,
रानी रंग की रेशमी साड़ी के दीवाने हैं,
बनारस को भूल नहीं पाते हैं.

काशी की पहचान गंगा से है,
जहाँ उसकी धारा में धर्म प्रवाहित होता है,
मस्ती की कश्ती में सवार होकर.
"सुबहे बनारस और शामे अवध"
कहने वालों ने शायद शाम की गंगा आरती नहीं देखी थी,
उन्होंने काशी की गलियों की होली देखी थी,
उसकी गंगा के तट की देव दीपावली नहीं देखी थी.

जनमानस की दृष्टि में यह
कैलासी शिव का प्रिय विश्वनाथ धाम है,
यह उनकी सती की शवयात्रा का मार्ग रहा है,
किंतु शक्तिपीठ नहीं बन पाया,
क्योंकि यहाँ सती के अंग नहीं,
आभूषण गिरे थे.

लोकमान्यता में कालभैरव यहाँ के कोतवाल हैं
और
संकटमोचन हनुमान यहाँ के संरक्षक.
यहाँ पिशाचमोचक भी हैं
और
यमरक्षक मुमुक्षु भवन भी.
यहाँ हर प्रात "हर हर महादेव" के स्वर के साथ
जीवन का उत्सवपरक स्वागत भी है
और
हर रात "राम नाम सत्य" के साथ
जीवन का अवसान भी है.

यह वह तीर्थ है,
जिसके तट पर घाट हैं,
जिसके घाट पर सोपान हैं,
सोपान पर छतरियाँ हैं,
छतरियों में टीका लगाने वाले पंडे हैं,
जो विष्णु के चंदन को
उंगलियों से शिव का त्रिपुंड
या कंघे से गंगा की लहर बनाने की कला जानते हैं.

काशी का अपना "सत्यं, शिवं, सुंदरम्" है,
पूर्व प्रतीकों में देखें, तो
डाॅन के नृत्य में काशी की मस्ती का सत्य है,
राँझना की गाथा में काशी का शिवत्व है,
यूफोरिया के गीत में काशी का सौंदर्य है.

तुलसी, कबीर और बुद्ध की गौरवमयी
परंपरा का नगर मरणासन्न है.
संस्कृति में वेदपाठ, शास्त्रीय संगीत और हस्तशिल्प का नगर
विकृति पाकर विरूप हो चुका है.

पीड़ा है.
प्रयाग में बारह साल रहा,
उस नगर से प्यार न हुआ,
क्योंकि वहाँ विचार बसते हैं,
बुद्धि के, मस्तिष्क के.
काशी में बारह माह भी न रहा,
मगर वह कहीं हृदय में बसता है,
मलिन होकर भी,
बीमार होकर भी.

काशी से कुछ दूर का होने से मुझपर
उसकी मस्ती का रंग तो न चढ़ा,
मगर गंगा के निकट का होने से
अध्यात्म का कुछ रंग जरूर चढ़ गया,
जो मेरी नास्तिकता में कहीं जगह बना ही लेता है.
मेरे व्यक्तित्व में प्रयाग और काशी
क्रमशः मस्तिष्क और हृदय बनकर समाये हैं,
कबीर की याद हो आई है,
जिनके पास दोनों के शिखर हैं,
दोनों के गीत हैं-
"कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर.
पीछे पीछे हरि चले, कहत कबीर कबीर."

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