गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

भूख-प्यास : कुछ रक्त, कुछ मांस

"भूख-प्यास : कुछ रक्त, कुछ मांस"

नमूना पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस) के सर्वे के जो आंकड़े सामने आए हैं,
उसके अनुसार
देश की तीन चौथाई आबादी मांसाहारी है,
राजस्थान देश का सर्वाधिक शाकाहारी
और
तेलंगाना सर्वाधिक मांसाहारी राज्य है.

सर्वे के मुताबिक भारत की कुल आबादी के 71 फीसदी लोग मांसाहार करते हैं और महज 28.85 फीसदी ही ऐसे लोग हैं जो शाकाहारी हैं। देश में सबसे ज्यादा तेलंगाना में मांसाहार किया जाता है। यहां मासांहार करने वालों का आंकड़ा 98.7 फीसदी के करीब है। इसके बाद पश्चिम बंगाल (98.55%), उड़ीसा (97.35%) और केरला (97%) का नंबर आता है। मांसाहार में बकरी, भेड़, गाय, भैंस, सूअर, खरगोश, मुर्गा, बतख, टर्की, तीतर, एमू, बटेर मछली, केकड़े, झींगे तक शामिल हैं.

सबसे कम नॉन वेजेटेरियन खाने वालों या सबसे ज्यादा वेजेटेरियन आबादी के मामले में राजस्थान पहले नंबर पर है. राजस्थान में महज 26.8 फीसदी पुरुष और 23.4 फीसदी महिलाएं ही नॉन वेजेटेरियन हैं. सबसे कम मांसाहारी आबादी के मामले में राजस्थान के बाद हरियाणा, पंजाब और गुजरात का नंबर आता है. हरियाणा में 31.5 फीसदी पुरुष और 30 फीसदी महिलाएं और पंजाब में 34.5 फीसदी पुरुष और 32 फीसदी महिलाएं नॉन वेजेटेरिन हैं. गुजरात में नॉन वेज खाने वालों में 39.9 फीसदी पुरुष और 38.2 फीसदी महिलाएं हैं.

तेलंगाना और आंध्र प्रदेश मांस और अंडे के उत्पादन के मामले में देश के दो सबसे बड़े राज्यों में शामिल हैं. 2014-15 में आंध्र प्रदेश 1309.58 करोड़ अंडे के उत्पादन के साथ देश में दूसरे और तेलंगाना 1006 करोड़ अंडों के उत्पादन के साथ इस मामले में तीसरे स्थान पर है. इस दौरान आंध्र प्रदेश 5.27 लाख मीट्रिक टन मांस उत्पादन के साथ चौथे जबकि तेलंगाना 4.46 लाख मीट्रिक टन मांस उत्पादन के साथ छठे स्थान पर रहा.

उसमें गुजरात में मांसाहारियों की संख्या चालीस फीसदी के आस-आस है जो किसी उसके पड़ोसी राज्यों की तुलना में कहीं ज्यादा है। यह सर्वे 2014 को आधार वर्ष बनाकर किया गया था जिसे अभी प्रकाशित किया गया है। आंकड़ों के मुताबिक गुजरात अपने पड़ोसी राज्यों पंजाब, हरियाणा और राजस्थान को मांसाहार के मामले में पीछे छोड़ चुका है.

विश्व में भारत ही शाकाहार का एकमात्र केंद्र है,
दुनिया के और मुल्कों के लिए यह एक किसी व्यक्ति विशेष भर की रुचि है. इसीलिए वहाँ नॉन मीटेरियन शब्द गढ़ने की बजाय नॉन वेजिटेरियन शब्द रचे गए हैं. यह जानना रुचिकर है कि मीट शब्द मूलतः मील का ही पर्याय है.

माना जा सकता है कि
बहुत मरुभूमि वाले और बहुत बर्फ वाले देशों में भोजन व जीवन का कोई विकल्प ही नहीं था और यह बात कुछ हद तक बहुत जंगल और बहुत सागर वाली जगहों पर भी जरा लागू हो सकता है. पर अब के वैज्ञानिक और विकसित युग में यह अनिवार्यता से अधिक आदत है, जो किसी जिंदगी को जायके से बढ़कर देख ही नहीं पाती. वह जीवों को बस लाल और सफेद मांस में देखती है. उनके लिए सारा सागर सी-फूड देता है, सारे कैटल व पोल्ट्री फार्म भोजन का अधिकार.

बस कुछ ईकाई अंक की फीसदी छोड़ दें,
तो लगभग सारी दुनिया पशुभोजी है.
जंगली वे हैं, जो पकड़कर मारते हैं,
सभ्य वे हैं, जो पालकर मारते हैं,
और पालकर मारने वाले अधिक हैं.
USDA के अनुसार 2008 के आंकड़ों के अनुसार खाने के लिए निम्नानुसार निम्नानुसार पशुओं का कत्ल किया जाता है-
Cattle: 35,507,500
Pigs: 116,558,900
Chickens: 9,075,261,000
Layer hens: 69,683,000
Broiler chickens: 9,005,578,000
Turkeys:  271,245,000
कई देश ऐसे हैं, जहाँ के लिए कहा जाता है कि वे चारपाई के अतिरिक्त सभी चौपायों को खाद्य मानते हैं. उनके लिए मानवेतर हर सजीव जीवन भोजन व व्यंजन है, पशु-पक्षी, मत्स्य-सरीसृप, कीट-पतंग.

कुल पशुवध का दस प्रतिशत व्यंजन बनने के बाद फेंका जाता है, इसलिए कि वह स्वादानुरूप न रहा या यूँ ही अतिरिक्त हो गया.
मरने वाला तो मरता है,
खानेवाले को स्वाद मिले न मिले.

प्रकृति का प्रभाव संस्कृति पर भी पड़ता है,
सांस्कृतिक रूप से पशु को भोजन मानने वाले अधिकांश जन
उनमें जीवन ही नहीं मानते,
जीवन है भी, तो उसमें जीवनोचित चेतना व संवेदना ही नहीं मानते.
हाल में न्यूजीलैंड ने अपने कानून में पशुओं को सेंटिएंट बीईंग घोषित किया, तो दुनिया की सुर्खियों में रहा.

यहूदी ईसाई व इस्लाम परंपरा में मांसाहार अवर्जित ही नहीं,
कई धार्मिक कृत्यों में विहित भी है,
पर मांसाहारी संत भारतीय परंपरा में भी बहुत हैं,
हिंदू, सिख, बौद्ध तक.
इन परंपराओं के कुछ मांसाहारी संतों की सूची-
स्वामी रामकृष्ण परमहंस,
स्वामी विवेकानंद,
स्वामी योगानंद,
साईं बाबा,
गुरु नानक,
दलाई लामा आदि.

कई बौद्ध संप्रदाय बुद्ध द्वारा भी त्रिकोटिपरिशुद्धता की शर्त पर मांसाहार की अनुमति मानते हैं. स्वयं जिस सूकरमद्दव के खाने से उनकी मृत्यु मानते हैं, उसे कुछ लोग सूअर का मांस ही सिद्ध करते हैं.

यही नहीं संस्कृति के ये नाम भी इसी सूची में हैं-
राम,(वाल्मीकि रामायण, अरण्य कांड)
जनक,(उत्तररामचरितम् )
अगस्त्य (महाभारत)
वैदिक युग में भी जिस अश्वमेध यज्ञ का आयोजन होता,
उसमें सैकड़ों पशुओं की बलि होती. मीमांसा दर्शन इसकी पुष्टि के लिए वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति जैसे सूत्र गढ़ता है. देवी के तमाम मंदिरों में हाल तक बलि के विधान अपनाये जाते हैं.

कम ही लोग जानते हैं,
संसार का सबसे बड़ा पशुबलि मेला
हिंदू धर्म का ही है-
नेपाल का गाधिमाई मेला,
जिसमें 2 दिन में 5 लाख पशुओं की बलि दी जाती है. यह हर 5 साल पर लगता है.
इस बलि में भैंसा, सूअर, बकरा, भेड, मुर्ग़ा, चूहा, कबूतर सभी शामिल होते हैं.
हाल में वहाँ के सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगाई है.
हज के दौरान लगभग 8 लाख बकरों की बलि होती है,
पर जनसंख्या के मुकाबले वह अनुपात बहुत कमतर है.

भारत के तीन चौथाई लोग भी मांसाहारी भले हों,
उनमें कम ही हैं, जो शेष विश्व की तरह दैनिक या नियमित मांसाहारी हैं,
उनके मांसाहार में पूरब पश्चिम से कुछ गुणात्मक व मात्रात्मक अंतर है .
इसीलिए परिहास में कहा जाता है कि
भारत में 7 प्रकार के शाकाहारी लोग हैं-

1¬ शुद्ध शाकाहारी.
2¬ अंडा खाते हैं, पर चिकन नहीं खाते.
3¬ अंडे वाला केक खा लेते हैं, पर आमलेट नहीं खाते.
4¬ तरी खा लेते हैं, पर पीस नहीं खाते.
5¬ बाहर खा लेते हैं, पर घर पर नहीं बनाते.
6¬ जब पीते हैं तब खा लेते हैं, नहीं पीते तो नहीं खाते.
7¬ बुध, शुक्र, रवि को चलता है, लेकिन मंगल, गुरु, शनि को बिलकुल हाथ भी नहीं लगाते.

मांसाहार का धार्मिकीकरण भी बहुत हुआ है
पर कहीं कभी जीवप्रेम के सूत्र वहाँ मिल ही जाते हैं.
वैदिक काल में गाय को अघ्न्या कहने वाले सूत्र भी हैं.
हिंदुत्व के शैव के अधिकांश व वैष्णव के सर्वांश संप्रदाय कठोर शाकाहारी हैं. जैन धर्म तो इसका शिखर ही है. बौद्ध संप्रदाय में बुद्ध द्वारा त्रिकोटिपरिशुद्धता की शर्त पर  मांसाहार की अनुमति को थेरवादियों द्वारा प्रक्षिप्त माना जाता है.
ईसा मसीह ने यहूदी मंदिर में बलि के लिए बेचे जा रहे पशु पक्षियों को भगाया था.
कुरान मजीद के सूरा 22 की आयत 37 का विधान है-
"अल्लाह तक खून और गोश्त नहीं जाते,
वहाँ तक तो तुम्हारी रहम जाती है."

कह सकते हैं कि जीवो जीवस्य जीवनम् के लिए प्रकृति ने ही जीवो जीवस्य भोजनम् का सिद्धांत अपना रखा है, फिर मानव ही क्यों वर्जित हो.

मांसाहारी लोग तर्क देते हैं कि
अगर इन जीवों को खाया न जाए,
तो उनका क्या होगा.
वस्तुतः जिन जीवों का मांसाहार के लिए उपयोग किया जाता है,
वे प्राकृतिक रूप से न तो इतनी संख्या में थे और न हो सकते हैं,
यह तो मानव है, जो खाने के लिए उनकी तादाद बढ़ाने में लगा रहता है.

समय के साथ सिद्ध हुआ है कि
जैसे जैसे समृद्धि का स्तर बढ़ता है,
समाज में मांसाहार का अनुपात व प्रतिशत बढ़ता जाता है,
भारत तेज गति से मांसाहारी हो रहा है,
जो मांसाहारी हैं,
उनके मांसाहार की विविधता व बारंबारता बढ़ती जा रही है.

मांसाहार मानवता के लिए कितनी प्रतिकूल है,
यह विवादित हो सकता है,
पर वह पर्यावरण के लिए प्रतिकूल है,
यह निर्विवाद है
और अधिकांश नये शोध उसे स्वास्थ्य के लिए भी अनुकूल नहीं मानते.

वैसे अलग-अलग मत भोजन में मांस को स्वास्थ्य के अनुकूल व प्रतिकूल सिद्ध करते रहे हैं,
पक्ष उसके प्रोटीन व ओमेगा थ्री को आवश्यक बताता है,
तो प्रतिपक्ष उसकी संक्रामकता व रोगोत्पादकता में भूमिका दिखाकर उसे प्रतिकूल ठहराता है।

कई लोग आदमी के दाँत के आधार पर
उसे मांसाहारी सिद्ध करते रहे हैं
और
कई लोग आदमी के आँत के आधार पर
उसे शाकाहारी सिद्ध करते रहे हैं.
दोनों के अपने तर्क हो सकते हैं,
पर मानवता का एक कोना
पशु की हत्या को अनुचित तो मानता ही है,
विशेषतया स्वाद भर के लिए.
यह तय है कि यदि मांसाहारप्रेमीजन को भी भोजन के लिए
पशु पक्षी की स्वयं हत्या की शर्त लगा दी जाए,
तो तीन चौथाई लोग स्वतः मांसाहार छोड़ जाएँ.
अभी तो वे कटकर, पककर, सजकर बस व्यंजन बनकर आते हैं,
अत: संवेदना जग ही नहीं पाती.

मांसाहार की प्राकृतिकता का प्रतितर्क देती
एक अंग्रेज विचारक हर्वे डॉयमंड की सशक्त उक्ति है-
जिस दिन किसी बच्चे को सेब और खरगोश दें
और वह खरगोश को खाता व सेब से खेलता मिले,
उस दिन मैं मानव को प्राकृतिक रूप से मांसाहारी मान लूँगा.

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