मंगलवार, 22 नवंबर 2016

राम : धर्मयुग एवं युगधर्म

"राम : धर्मयुग एवं युगधर्म"

राम कैसे पति थे,
यह विवाद का विषय बन गया है।
दोनों पक्षों के पास अपने तर्क हैं.
परिवार की संरचना और विवाह के स्वरूप के भी अपने ऐतिहासिक नियम हैं।
स्त्री का बहु-विवाह मानव के आहार-संग्राहक युग की सामान्य व्यवस्था है
और
पुरुष का बहु-विवाह उसके राजतंत्रात्मक युग की सामान्य व्यवस्था है।
कृष्ण ने पशुपालक युग में भी एक से अधिक विवाह किये,
किन्तु वे आदर्श प्रेमी के रूप में आज भी लोकनायक बने हुए हैं.
राम ने राजतंत्रात्मक युग में भी एक से अधिक विवाह से न केवल इनकार किया,
बल्कि सीता के त्याग के बाद भी उनकी प्रतिमा के साथ यज्ञ करना अधिक उचित समझा,
न कि नयी पत्नी तलाश शुरू की.

फिर भी अगर राम को आदर्श पति के रूप में जन मानस में जगह न मिली,
तो शायद कुछ गंभीर कारण होंगे.
राम मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में आदर्श हैं-
पिता के वचन को सादर मानकर सहर्ष वनगमन किया
और उसके बावजूद कैकेयी के प्रति श्रद्धा व भरत के प्रति स्नेह रखा.
दो सर्वथा विपरीत चलने वाले गुरुओं- वसिष्ठ और विश्वामित्र से शिक्षित व दीक्षित हुए
और
सूर्यवंश के ही जिन सत्यव्रत राजा को शूद्रों की सहायता के कारण वसिष्ठ के पुरोहितवाद ने उन्हें चांडाल घोषित कर त्रिशंकु बनाने को विवश किया था,
उनसे मुक्त होकर केवट-शबरी जैसे तत्कालीन समाज में अस्पृश्य मने जाने वाले लोगों को हृदय लगाया
और इस कारण हजारों साल बाद भी दलित समाज के लोग अपने नाम में राम लगते रहे हैं.

पर आज का समाज नए मूल्य रखता है और आदर्शों को नए सिरे से मूल्यांकित करता है.
राम के जीवन से जुडी तीन घटनाएं अचानक कलंक की तरह उठने लगीं-
१- बालि वध
२-सीता परित्याग
३-शम्बूक वध.

इनमें अंतिम दो के राम के जीवन में घटित होने पर गंभीर आपत्तियां हैं--

प्रथम- रामायण के प्रथम अध्याय की विषय सूची में इन दोनों घटनाओं का कोई वर्णन नहीं है,
अतः अधिकांश विचारक इसे प्रक्षिप्त मानते हैं. शम्बूक वध की घटना तो निश्चय ही प्रक्षिप्त है.

दूसरा- तुलसीदास की राम चरित मानस की मानक प्रति में भी रामराज्य के आगे का अध्याय नहीं है, जिससे इस घटना की पुष्टि में संकट उत्पन्न होता है.

जो भी हो,
यदि सीता परित्याग की घटना ने जनमानस में सत्य का इतना प्रगाढ़ रूप ले रखा है कि उसे असत्य मनवा पाना कठिन है.
हम यही कह सकते हैं कि बड़े लोगों कि त्रुटियाँ भी बड़ी मान ली जाती हैं.

फिर भी राम का जीवन पूरा त्याग का जीवन रहा है.
राजा होने आयु में वे ऋषि की तरह जीते रहे
और राजा बन कर भी ऋषि की तरह ही रहे.
शायद सीता के परित्याग के बाद के दुःख ने ही उन्हें सरयू में डूब कर प्राण त्याग पर विवश किया हो.
वे भी शायद जनता के लांछन से बचने के लिए तत्कालीन समाज से भयभीत हो गए हों,
क्योंकि वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम के विवाह के १२ साल बाद उनका वनवास हुआ
और उसके बाद १३ साल तक सीता के उनके साथ रहने पर रावण द्वारा अपहरण किया गया.
सीता की अग्नि-परीक्षा भी अयोध्या के कुछ छुद्र लोगों को संतुष्ट करने में असफल रही,
क्योंकि अब सीता २५ वर्ष बाद माँ बन रही थीं.
फिर भी
राम और सीता के त्यागपूर्ण प्रेम को नमन किये बिना नहीं रहा जा सकता.

---------------------------------------------
Painting-
Vrindavan Das

मंगलवार, 8 नवंबर 2016

दीपावली : अमावस्या की सिद्धि से संपदा की दीपमाला तक

"दीपावली : अमावस्या की सिद्धि से संपदा की दीपमाला तक"

सांस्कृतिक पर्व बहुरंगी होते हैं,
बहुत दिशाओं में यात्रा करते हैं,
और बहुतेरे रूप लेते चलते हैं.

हिंदू संस्कृति चूँकि किसी भी अन्य परंपरा से अधिक पुरातन और मिश्रित है, अत: उसमें वैविध्य भी सर्वाधिक है. इनमें दीपावली के अवसर पर उसके रूप परिवर्तन व परिवर्धन की ओर चलते हैं,
जिसका अनेक अन्य हिंदू पर्वों की तरह
क्रमिक शास्त्रीयकरण व लौकिकीकरण हुआ है -
आदिम युग में नीरव एकाकी साधना से लेकर
आधुनिक युग में पटाखों के शोर में खोने तक.

माना जाता है कि
प्रारंभ में आहारसंग्राहक या आखेटक युग तक यह आदिम कबीलों का पर्व था,
जब अमावस्या की रात्रि में जादू-टोना, तंत्र-मंत्र की क्रिया होती थी, सम्मोहन, उच्चाटन, वशीकरण के लिए दीप जला कर काजल बनाया जाता था. उल्लू का वाहन माना जाना कहीं यहीं से जुड़ा है. इसमें लक्ष्मी की बजाय श्री की उपासना की जाती थी और तब यह उत्सव से अधिक अमा में सिद्धि का अवसर था. आज भी हिंदू तांत्रिक परंपरा इसे सर्वाधिक महत्ता देती है.

सिद्धि चूँकि शक्ति की देवी की नहीं, सौंदर्य की देवी की होती, अत: उसका स्वरूप नवरात्र से भिन्न होता, जहाँ नववसंत में कामनाएँ प्रतिफलित होने की अपेक्षा अधिक होती. सौंदर्य की देवी का पर्व कामना का पर्व न बनता, तो शायद उसकी सार्थकता खो जाती- "प्रियेषु सौभाग्यफला ही चारुता."

पुनः वैष्णव भक्ति काल में यक्षों की देवी लक्ष्मी से श्री का एकीकरण कर दिया गया और कुबेर के स्थान पर गणेश को प्रतिष्ठित कर दिया गया. तब यह सिद्धि की बजाय समृद्धि का पर्व बन गया. दिवस या कहें रात्रि वही रही,
परंतु पूरा चरित्र बदल गया. यहाँ यह भी सिद्ध या प्रसिद्ध किया गया कि समुद्र मंथन में लक्ष्मी इसी दिवस को निकलीं थीं. धन्वंतरि की त्रयोदशी जब अर्थ व भाव बदलकर धनतेरस बन गई, तो दो दिन बाद अमावस्या को लक्ष्मी का प्राकट्य मानकर लक्ष्मी का पर्व बना दिया जाना कठिन न था. संभावना अधिक है कि इस रूप में यह मूलत: यक्षसंस्कृति का उत्सव रहा हो, जिसे आर्य संस्कृति ने पूर्वपरंपरा में जोड़ने की सहज स्वीकृति दे दी हो.

कृषि व वाणिज्य के विकसित युग में यह समृद्धि का द्योतक बन गया, क्योंकि अब कृषकों के लिए खरीफ की फसलें बहुत हद तक तैयार थीं, पशुपालकों के लिए चारागाह हरे-भरे थे, समुदाय के एक बड़े वर्ग के लिए आशाएँ जगी हुई थीं.
और इसी क्रम में यह नववर्ष का पर्व भी बना, जो कम लोगों को ज्ञात है. आज भी दक्षिण के अनेक पुराने संवत् कार्तिक से प्रारंभ होते हैं. परंपरागत वणिक् वर्ग आज भी इस दिन को वित्तीय वर्ष का प्रारंभ मानते हुए बही खोलता है.

कुछ सामयिक जरूरतें भी थीं- भोजन, वस्त्र एवं आवास की.
हाल की बीती बारिश में बिखरे और कलई उतरी दीवारों वाले घरों को सर्दियों के लिए ढकने सँजोने का काम भी करना था, तो यह साफ सफाई रंग रोगन का त्यौहार भी बन गया.
बदलते मौसम में सबके लिए गरम कपड़े खरीदने थे. नये अन्न और व्यंजन के लिए बर्तन जुटाने थे. तब सर्दियाँ अधिक गहरी होती थीं, इसलिए साधन अधिक जुटाकर रखने होते थे. फलत: लेनदेन का कारोबार बढ़ जाता.
व्यापारी वर्ग को यह सुहाता कि अभी से लेन देन के लिए लोगों को तैयार कर ले, क्योंकि धंधा उम्मीदों की उधार पर भी तो चलता है.

जो हो, सिद्धि का एकाकी और प्रच्छन्न सा रहने वाला दीप
संपदा के सान्निध्य में बहुल व बहिर्मुखी हो गया,
पूजागृह या गर्भगृह से निकलकर द्वार तक पहुँच गया,
ताकि लक्ष्मी आ सकें. अब यह प्रकाशपर्व बनने को तैयार था, क्योंकि संपदा हो, सौंदर्य हो, दर्शन व प्रदर्शन चाहता है.

अगले क्रम में महाकाव्य काल में जब रामायण में राम के स्वगृहगमन के समय दीपोत्सव की कथा मिली, तो इसे संयोगवश इसे पूर्वप्रचलित लक्ष्मी के दीपपर्व से जोड़कर दीपावली का उत्सव बना दिया गया. कालांतर में यह भी प्रचलित कर दिया गया कि पांडव अपना 12 साल का वनवास काट कर इसी दिन वापस आये थे.
और फिर दीपमाला घर के द्वार से दीवार तक जा पहुँची, संख्या में बढ़कर, लौ की लड़ी बनकर.

और फिर वो प्रदेश , जहाँ के लोग व्यापार व जीविका की तलाश में प्रवासी हो गए थे, उन लोगों के परदेश से वापस अपने देश लौटने का पर्व भी बन गया, जो आज के गतिशील समाज में भी बदस्तूर कायम सा है.

संस्कृति की दीवारों पर शुभ-लाभ के प्रतीक सजने लगे हैं,
चाक से उतरकर दीये चौपाटियों पर सजने लगे हैं.
ये अगणित दीप अनगिनत सालों से अनगिनत कहानियों और मान्यताओं के साथ जलते रहे हैं.
मान्यता कहती है-
जब दूर से आए के लिए अनेक दीप सजते हैं,
तो दूर गए के लिए एक प्रतीक्षा का दीप भी जलता है,
और सच कहूँ,
तो अंतर्मन कहता है कि
वह एकाकी दीप राम का नहीं, लक्ष्मण के नाम का है
और
वह लक्ष्मी की प्रतीक्षा में नहीं, उर्मिला की प्रतीक्षा का जला है,
जिसने अपने हृदय सिंहासन पर एक पादुका रख रखी है,
उस पति की, जिसे पति के साथ उसके पदचिह्नों पर चलने का अधिकार नहीं मिला,
बस उसके पदचिह्नों को निहारते रहने की सुदीर्घ प्रतीक्षा मिली.

बुधवार, 2 नवंबर 2016

राम और श्याम : चरित और चरित्र के द्वैताद्वैत

"राम और श्याम : चरित और चरित्र के द्वैताद्वैत"



परंपरा कहती है,
दीपावली राम के गृह-नगरागमन का पर्व है,
इसके दूसरे दिन गोवर्धन पूजा आती है,
कृष्ण की गृहनगर-रक्षा का पर्व बन कर.
यह कुछ विस्मयजनक है.
जन्मदिवस के रूप में मनाए जाने वाले
रामनवमी और जन्माष्टमी से परे भी दोनों के दो पर्व हैं-
राम की विजयादशमी और दीपावली,
कृष्ण की गोवर्धन पूजा और होली.
इनकी अपनी समानताएं हैं,
उनके व्यक्तित्वों की तरह ही.

परंतु चरित्र की दृष्टि से राम और कृष्ण बहुत भिन्न हैं,
इतने कि राम और श्याम के विपरीत नायक चरित्र गढ़े जा सकें,
सीता और गीता जैसी नायिकाएं कल्पित की जा सकें.

राम और कृष्ण
हिंदू परंपरा के सबसे लोकप्रिय ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य वाले देव हैं.
दोनों चरित की दृष्टि से बहुत कुछ एक से हैं,
इतने कि दोनों एक ही देव विष्णु के अवतार माने गए हैं,
दोनों श्याम वर्ण हैं,
नीलाभ और कमनीय.
सुंदर इतने कि अनजाने भी मुग्ध हो जाएँ.
दोनों ने नदीतट पर जन्म लिया,
दोनों को अल्पायु में घर छोड़ना पड़ा,
दोनों का यौवन यायावर सा बीता,
दोनों को महायुद्ध का सहभागी बनना पड़ा,
दोनों को शासक न रहते समय बर्बर शासकों से संघर्ष करना पड़ा,
ऐसे तमाम का हंता बनना पड़ा, जो राक्षसवत् थे,
दोनों का अपने भ्राता से अगाध स्नेह रहा,
दोनों के जन्म में पितृपक्ष धर्मसंकट में है,
दोनों का बालकाल राक्षसों से युद्ध के बावजूद मधुर है,
दोनों के यौवन में प्रव्रजन का संघर्ष है,
और
दोनों का प्रौढकाल समस्त परिजनों की सहमृत्यु का विषाद लिए है।

पर समानताओं में कितनी भिन्नता लिए हैं-
एक त्रेतायुग के हैं, दूसरे द्वापर के,
एक सूर्यवंशी हैं, दूसरे चंद्रवंशी,
एक मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, दूसरे लीला पुरुषोत्तम,
एक का जन्म ग्रीष्म में हुआ, दूसरे का वर्षा में,
एक का दोपहर में, दूसरे का मध्य रात्रि में,
एक वरिष्ठ पुत्र हैं, दूसरे कनिष्ठ पुत्र,
एक विश्वामित्र के शिष्य हैं, दूसरे संदीपनि के,
एक के लिए शबरी के बेर हैं, दूसरे के लिए गोपियों के मक्खन,
एक ने सरयू तट पर जीवन आरंभ किया, दूसरे ने यमुना तट पर,
एक धनुर्धर बने, तो दूसरे चक्रधर और वंशीधर,
एक में त्याग का आदर्श, दूसरे में भोग का विमर्श,
एक मुख्यतः निवृत्तिमार्गी, दूसरा मुख्यतः प्रवृत्तिमार्गी,
एक ने संसार में रहकर अध्यात्म का आदर्श अपनाया,
दूसरा अध्यात्म का आदर्श बताकर संसार की राह चला.

एक ने वन और वचन के लिए राज छोड़ा,
उत्तर से दक्षिण चलते हुए सागर तक गए,
चौदह वर्ष के लिए,
दूसरे ने नये राज्य के गठन और समुदाय की रक्षा के लिए राज छोड़ा,
पूरब से पश्चिम चलते हुए सागर तक गए,
सदा के लिए.

कृष्ण के चरित में युवा प्रेम का मंचन है, बालसुलभ लीला है,
उनके समर का भी मंचन हो सकता है, लीला हो सकती है,
पर वहाँ से शौर्य कम, दर्शन अधिक निकलता है।
यहाँ तक कि बालकाल में कंस के अतिरिक्त कोई ऐसा राक्षस नहीं है,
जिसकी सचमुच कोई राक्षस रूप में सिद्धि की जा सके,
उनकी कोई पूर्व-प्रसिद्धि पाई जा सके.

परंपरा कहती है, मानव रूप में
राम और कृष्ण का अपना कर्म-भोग है,
राम के लिए जो स्त्रियाँ मुग्ध हुईं,
कृष्ण के समय गोपिका बनकर जन्मीं.
राम का बालिवध इस युग में उनके लिए
व्याध का तीर बनकर लगा.

राम और कृष्ण का भेदाभेद बहुत कुछ
रामायण और महाभारत का भेदाभेद है.
कृष्ण के साथ कपट और व्यूह भरी महाभारत है,
पर उसमें अलग से दर्शन भरी गीता है.
राम के साथ मर्यादित रामायण है,
पर उसमें जीवन से अलग कोई दर्शन नहीं है.

रामायण व महाभारत
एक ही परंपरा के दो दिव्य ग्रंथ,
एक ही देव के दो अवतारों की गाथा,
परंतु दोनों के लिए अलग आदर क्यों कि
महाभारत को जगह देने से बचना चाहें
और
रामायण को जीवन में रचना चाहें.

मान्यताएँ और किंवदन्तियाँ तो बहुत हैं कि
महाभारत रखने से घर में महाभारत शुरू हो जाती है
और
रामायण पढ़ने से जीवन में रामायण उतर आती है.

रामायण का हर आदर्श ही नहीं, आदर्शहीन पात्र तक
एक सीमा तक अनुकरणीय है,
महाभारत का आदर्शहीन तो दूर, आदर्श पात्र तक बहुत सीमा तक उपेक्षणीय है.

रामायण के युद्ध में भी धर्म है,
महाभारत के धर्म में भी युद्ध है,
रामायण की आधी कहानी त्याग से त्याग की है,
वहाँ स्वत: आदर उमड़ आता है,
महाभारत की आधी कहानी भोग से परिग्रह की है,
वहाँ स्वत: कुत्सा उमग आती है.
महाभारत के शब्दों भर में गीता है,
रामायण के आचरण में गीता है.

वैसे कुछ व्यावहारिक कारण भी हैं,
रामायण बढ़कर जुड़कर भी 24 हजार श्लोकों तक पहुँची,
महाभारत बढ़ते जुड़ते 24 हजार से 1 लाख श्लोकों तक पहुँच गया,
इतने महाकाय ग्रंथ को लाना, पढ़ना भी तो दुष्कर है.
शायद इसीलिए कृष्णकथा की 24 हजार श्लोकों की भागवत अधिक प्रसिद्ध हुई.

अब दूसरी दृष्टि से देखें,
कितने घर होंगे,
जिनमें वाल्मीकि की रामायण होगी,
जो समस्त रामकथाओं का मूल है
और
वैसे कितने घर होंगे,
जिनमें कृष्ण की गीता न होगी,
जो मूलत: महाभारत का ही अंश है.

एक दृष्टि से
जीवन और जगत्
रामायण और महाभारत का योग है,
कुछ रामत्व भी, कुछ कृष्णत्व भी,
कुछ आदर्श भी, कुछ यथार्थ भी,
कुछ शास्त्र भी, कुछ लोक भी,
कुछ गांभीर्य भी, कुछ माधुर्य भी,
कुछ दाम्पत्य की निष्ठा भी, कुछ प्रेम की लीला भी,
कुछ ज्योति की दीपावली भी, कुछ रंगों की होली भी.

इसी चरितार्थता के संदर्भ में एक मध्यकालीन ग्रंथ का रूपक स्मृत हो आया है।
कांचीपुरम के 17वीं शती के कवि श्रीवेङ्कटाध्वरि का लिखा एक विस्मयजनक ग्रंथ है,
"श्री राघवयादवीयम्"
इसमें राम व कृष्ण दोनों की कहानी है,
पर संयुक्त रूप में एक ही ग्रंथ में, एक ही श्लोक में.
मात्र 30 श्लोकों की इस पुस्तक को सीधे-सीधे पढ़ते जाएँ,
तो रामकथा बनती है
और
विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा बन जाती है।
इस कारण इस ग्रन्थ को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है।
कई बार लगता है,
यह अनुलोम-विलोम काव्य ही नहीं,
जीवन का भी सत्य है,
सीधी राह चलिए,
जीवन में रामायण ही लाएँगे,
त्रिभंगी बनिए,
महाभारत को उतरता पाएँगे.