गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

लोरिक-चंदा : मध्य भारत की सर्वाधिक वर्णित लोकगाथा

"लोरिक-चंदा : मध्य भारत की सर्वाधिक वर्णित लोकगाथा"

लोरिक-चंदा की प्रेम कहानी में नायक लोरिक का दो नायिकाओं के साथ प्रेम त्रिकोण है-
स्वकीया विवाहिता पत्नी मंजरी
और
परकीया परविवाहिता चंदा.

पुराने जमाने में गौरगढ़ राज्य पर राजा महर का राज था।
राजा महर के चार पुत्र क्रमशः इदेचंद, बिदेचंद, महादेव और सहदेव थे।
इनमें राजा सहदेव को गौरगढ़ का राज्य मिला.
राजा सहदेव की एकमात्र पुत्री थी-
चंदा.
जब वह चार वर्ष की हुई,
तभी ज्योतिषियों ने जाने किन कारणों से सलाह दी कि
पुत्री का बचपन में विवाह कर दिया जाना चाहिए।
शायद यह कहा हो कि
आगे इसकी किसी ऐसे युवक से प्रीति दिखती है,
जो राजकुल के स्तर का न हो.

ज्योतिषियों की सलाह पर राजा ने
चंदा का विवाह बचपन या किशोरावस्था से पूर्व ही
पनागर राज्य के राजा बोड़रसाय के पुत्र बावन से कर दिया.

किंतु समय के साथ जब दोनों बड़े हुए,
चंदा तो अत्यंत रूपमती युवती बनी
और बावन कुछ विचित्र मन:स्थिति का युवक.
कहते हैं कि
वह स्वयं को विवाह योग्य नहीं मानता था
और अलग ही धूनी रमाये रहता था।
जनश्रुतियों में कहीं यह भी है कि
वह या तो रुग्ण था या पुरुषत्व विहीन.
कहीं उसे वीरबावन कहते हुए महाबली भी दिखाया गया है,
वह भी कुंभकर्ण सा, छ: माह सोने वाला.

जब वह बारह वर्ष की हुई,
तभी वाजुर नामक उज्जैन का रहने वाला एक भिखारी गौरगढ़ आया
और उसके रूप व सौंदर्य को देखकर मूर्च्छित हो गया.
भिक्षुक था, पर हृदय तो रखता ही था.
अपनी स्थिति में वह प्रेम की परिणति नहीं पा सकता था,
सो वह उसके वियोग में उसके रूप की प्रशस्ति गाता घूमता रहा.

ऐसे ही गीत गाते हुए वह एक बार राजापुर राज्य में पहुँचा.
भिक्षुक जोगी की तरह गीत गाए,
योगी ही नहीं, वियोग बन जाए,
यह सबके लिए कुतूहल होता.
वह और उसकी बातें चर्चा का विषय बन गईं.

कहते हैं,
उसकी प्रशस्ति सुनकर स्वयं वहाँ के राजा रूपचंद ने उसे बुलवाया.
भिक्षुक ने चंदा का ऐसा नखशिख वर्णन किया,
जैसा रीतिकालीन व राज्याश्रयी लोककवि भी नहीं कर पाते.

आगे इसका प्रभाव यह हुआ कि
राजा रूपचंद ने चंदा के लिए गौरगढ़ पर चढ़ाई कर दी.
युद्ध की भेरी बज चुकी.
राजापुर का राजा रूपचंद गौरगढ़ के राजा सहदेव से बहुत अधिक शक्तिशाली था.

संकट के इस समय में चंदा के पिता राजा सहदेव ने
लोरिक से सहायता माँगी.
लोरिक अपने समय में अपने समुदाय का नायक था.
लोरिक ने वीरतापूर्वक चंदा की सुरक्षा की
और राजा रूपचंद की सेना पर विजय प्राप्त की.
इससे प्रभावित चंदा लोरिक से प्रेम करने लगी
और लोरिक भी चंदा से प्रेम करने लगा.

कहानी के दूसरे रूपांतर में
युवा होने के उपरांत चंदा जब अपने पति के घर जा रही थी,
तभी महुआ या बठुआ नामक एक दुष्ट ने आक्रमण कर उसकी इज्जत लूटने की कोशिश की,
इसी समय एक ग्वाला लोरिक वहाँ पहुँच गया और
उसने चंदा को बचा लिया.

चंदा सकुशल अपनी ससुराल पहुँच गई,
पर वह अपना हृदय लोरिक को दे बैठी.
चंदा लोरिक द्वारा संकट में दी गई सुरक्षा व दिखलाई गई वीरता पर मुग्ध हो गई.

लोरिक साधारण परिवार का युवक था,
जिसकी पहले से ही विवाहिता पत्नी थी-
मंजरी.
सतीत्व व सरलता की प्रतिमूर्ति.

पर चंदा भी लौकिक रूप में बावन की विवाहिता थी,
इसलिए आगे प्रेम दोनों के लिए ही वर्जना था.

पर न चंदा लोरिक को भूल पाई,
न ही लोरिक चंदा को.
समय ने भी चंदा को इस प्रीति को विस्मृत करने न दिया.
ससुराल में पति के व्यक्तित्व की विसंगतियों और
उसकी सास के व्यवहार ने उसे दाम्पत्य से दुःखी व असंतुष्ट भी कर दिया.
घटनाओं के क्रम में
चंदा ने अपने पुरुषत्वहीन पति को पति मानने से इनकार कर दिया
और लोरिक को ही अपना पति मान लिया.

चंदा की सखी बिरसपति दोनों की प्रीति जानकर
दोनों की सहायता का निश्चय किया.
बिरसपति की ही सहायता से दोनों शिवमंदिर में मिले.

समय जैसे जैसे बीता, दोनों में प्रेम प्रगाढ़ होता गया
और अंततः लोरिक चंदा को लेकर अपने घर गया.
लोरिक की पत्नी मयना पति के इस प्रेम से अत्यंत व्यथित हुई.
उसने लोरिक से अखंड प्रेम किया था।
लोरिक से अधिक तो वह क्षुब्ध व क्रुद्ध हुई, चंदा पर.
चंदा स्वयं किसी की विवाहिता थी,
सारी मर्यादाएँ तोड़ वह परपुरुष के साथ भाग आई,
वह भी, जो पहले से ही विवाहित है,
लोग जिसकी पत्नी के सतीत्व व प्रेम की बानगी देते हैं.

आगे की कथा में एक संक्षिप्त रूप तो यह है कि
शील बनाम सौंदर्य के द्वंद्व में
पति बनाम प्रेम की द्विविधा लिए
लोरिक सब कुछ छोड़कर हमेशा के लिए कहीं चला जाता है.

कहानी के छत्तीसगढ़ी रूपांतरों में प्रायः यही दु:खांत परिणति है,
पर अन्य अधिकांश रूपांतरों में कहानी दु:खांत नहीं, सुखांत है.
कहानी के इन रूपांतरों में लोरिक इतना त्यगपूर्ण व मर्यादित ही नहीं है।
वहाँ वस्तुतः कहानी का बहुत बड़ा भाग इसके उपरांत ही प्रारम्भ होता है।

वैसे भी संसार में शील बनाम सौंदर्य की प्रतिद्वंद्विता में
प्रायः सौंदर्य ही जीतता आया है.
चंदा और लोरिक ने मिलकर एक दिन घर से भागने का फैसला कर लिया.
दोनों कहीं और बसने या कोई नई दुनिया बसाने के लिए घर से निकल गए.
परंतु चंदा के पति बावन को कहीं इसका पता चल गया.
विवाहित प्रेमियों के इस फैसले से क्षुब्ध चंदा का पति बावन
ने लोरिक को मारने की कोशिश की,
किंतु वह लोरिक को मार नहीं पाता.

चंदा और लोरिक इस आक्रमण से बचकर आगे निकले ही थे कि
मार्ग में लोरिक को साँप ने काट लिया,
लेकिन वह शिव और पार्वती की कृपा से पुनर्जीवित हो गया.
किसी जगह लोरिक की बजाय चंदा को साँप काटने का वर्णन है,
वह भी ऐसी ही कृपा या चमत्कार से जीवित हो जाती है।

लोरिक व चंदा के गौरगढ़ से हरदीपटन राज्य में पहुँचे.
संयोगवश वहाँ फिर घटनाओं का नया क्रम चला
और वह अनेक युद्धों का विजेता नायक बना.
इसके उपरांत लोरिक व चंदा के सुखमय आनंद के कुछ दिन ही बीते कि कहानी फिर पुनरावर्तन की ओर चल पड़ी.

लगभग एक साल बीत चुके थे।
इसी दौरान उसने देश गौरगढ़ से व्यापारियों का काफिला
हरदीपटन राज्य में पहुँचा.
उन्होंने लोरिक से उसकी पहली पत्नी मंजरी या मयना की विरहदशा व दीनदशा बतायी.
उन्होंने कहा कि वियोग में वह भीख माँगने के कगार पर आ खड़ी हुई है,
उसकी अपनी पाली गायें भी जाने कहाँ चली गई हैं.

अपराधबोध व दायित्वबोध लिए लोरिक चंदा के साथ वापस गौरगढ़ लौटा.
समय का प्रवाह व जीवन की दिशा देख
चंदा व मयना ने भी एक दूसरे को स्वीकार कर लिया
और फिर दोनों लोरिक के साथ सानंद रहने लगीं.

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लोरिक-चंदा की लोकगाथा मध्य भारत में बहुत लोकप्रिय रही है और
यह छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल तक गाई व सुनाई जाती रही है।
यहाँ लोरिक-चंदा-मंजरी के आख्यान को लोरिकी, लोरिकहा या लोरिकायन के रूप में गाया जाता रहा है।
बिहार और संलग्न उत्तर प्रदेश में जो बिरहा गायन की लोकगायन विधा है,
मूलतः विरह शब्द से बना है।
कुछ के अनुसार यह विधा चंदा या मंजरी की लोरिक के लिए
विरहगीत से ही प्रारंभ हुई थी,
ठीक वैसे ही जैसे मारू मूमल से माँड की विधा शुरू हुई.

कथा को मूलतः वीराख्यानक माना जाए या प्रेमाख्यानक,
इस पर विवाद रहा है।
एक दृष्टि से इसे दोनों में ही रखा जा सकता है और
कहानी को दो मुख्य भागों में बाँटा जा सकता है-
पूर्वार्ध प्रेम प्रधान भाग,
उत्तरार्ध शौर्य प्रधान भाग.

क्षेत्र विस्तार के कारण कथा के बहुतेरे रूपांतर दिखते हैं,
जिनमें पाँच प्रमुख रूपांतर मिलते हैं-
अवधी, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, मैथिली तथा बांग्ला.

कहानी के एक रूपांतर में
मंजरी और चंदा के बीच कलह की दुर्निवार स्थिति देख लोरिक
अकेले ही अन्यत्र चला जाता है
और अंततः एक विजेता योद्धा के रूप में लौटता है
तथा
चंदा व मंजरी दोनों को ही अपनाता है।

कहानी के एक अन्य रूपांतर में
चंदा राजा सहदेव नहीं, राजा महर की ही पुत्री है
और बावन लोरिक का भाई ही है।
इसके अनुसार एक बार पनागर राज्य के राजा बोड़रसाय अपनी पत्नी बोड़नीन के साथ चंदा के पिता राजा महर से मिलने आये,
उनके साथ उनके भाई कठावत और उसकी पत्नी खुलना भी थे.

बोड़रसाय का एक पुत्र था- बावन और भाई कठावत का पुत्र था- लोरिक।
राजा महर की लाडली बेटी चंदा और बोड़रसाय का पुत्र बावन दोनों हमउम्र थे।
राजा महर ने बावन को योग्य समझकर चंदा से उसका विवाह कर दिया।
बावन स्वभाव से संन्यासी प्रकृति का था
और लोरिक योद्धा प्रवृत्ति का.
विवाहोपरांत बावन नदी के किनारे तपस्या करने चला गया.

कुछ समय बाद जब चंदा की विदाई का समय आया,
बावन के पिता के लिए धर्मसंकट आ गया.
उन्होंने लोरिक को ही दूल्हा बनाकर विदाई करने भेज दिया।
चंदा को वस्तुस्थिति का पता रास्ते में चला,
तो वह पालकी से कूदकर जंगल में भागने लगी.
पर जब लोरिक ने मिलकर उसे समझाया,
तो वह उसके व्यवहार से प्रभावित होकर उस पर मुग्ध हो गई.
इसके आगे चंदा लोरिक की प्रेमगाथा यथावत शुरू हो जाती है।

कहानी के एक रूपांतर में
लोरिक राजा सहदेव के यहां भोज में जाता है
और चंदा-लोरिक का प्रेम वहीं प्रस्फुटित होता है।
लोरिक रस्सी पकड़ कर महल में चंदा के कक्ष में पहुँचता है।
अँधेरे में विदा होते समय अपनी पगड़ी की जगह चंदा की चादर बाँध लेता है।
बाहर जगहँसाई की इस स्थिति में एक धोबिन झूठ बोलकर उसे बचा लेती है।

साधन नामक कवि द्वारा लिखित मैनासत नामक काव्य में नायिका चंदा की बजाय मैना अर्थात् मंजरी है.
इस कहानी में मैना चाँदकुमारी से पति का लगाव होने व्यथित है.
इस दौरान वहाँ का राजकुमार रतना नामक मालिन को इस प्रस्ताव के साथ मैना के पास भिजवाता है कि वह राजकुमार से विवाह कर ले.
रतना कुटनी के रूप में चंपक का हार लेकर यह कहते हुए मैना से मिलती है कि वह बचपन में उसकी धाय रही है।
बाद में जब मैना को उसका आशय पता चलता है, तो उसे सिर मुंडवा कर बाहर निकाल देती है।
विचारकों का मानना है कि सत की महिमा के क्रम में कभी मैना की कथा स्वतंत्र रूप में भी निबद्ध हो गई होगी.

कहानी में कई जगह कई और युद्धों का वर्णन है,
कहीं महापतिया से, तो कहीं हरवा-बरवा से,
जो मूलतः किसी दस्यु आतंक या कबीलाई विद्रोह पर जीत की कहानी लगते हैं।
अधिकांश कहानियों में गौरगढ़ से हरदीपटन जाना ही समान रूप से विद्यमान है
और उसमें भी अनेक में वह या तो चंदा के साथ ही जाता है,
या फिर उसकी प्रेरणा से जाता है।
कथा में सँवरू नामक एक अन्य पात्र भी है,
जो युद्ध में उसकी सहायता करता है।

मैथिली गाथा के अनुसार हरदी के राजा मलबर (मदुबर) और लोरिक आपस में मित्र हैं।
मलबर अपने दुश्मन हरबा-बरवा के विरुद्ध  सहायता चाहता है। लोरिक प्रतिज्ञा करके उन्हें नेवारपुर में मार डालता है।
       
भोजपुरी कहानी के अनुसार हरदी के राजा महुबल से बनती नहीं थी।
महुबल ने अनेक उपाय किया, परन्तु लोरिक मरा नहीं।
अंत में महुबल ने पत्र के साथ लोरिक की नेवारपुर ‘‘हरवा-बरवा’’ के पास भेजा।
लोरिक वहां भी विजयी होता है।
अंत में महुबल को अपना आधा राजपाट लोरिक को देना पड़ता है और मैत्री स्थापित करनी पड़ती है।
      
एल्विन द्वारा प्रस्तुत कथा में लोरिक आगे करिंघा राज्य पहुँचता है,
जहाँ का राजा लोरिक को षड्यंत्र पूर्वक पाटनगढ़ भेजकर मारना चाहता है।
लोरिक नहीं जाता और करिंघा के राजा से भी युद्ध करते हुए जीत हासिल करता है.

स्पष्टत: हर रूपांतर में बाद की कहानी का अधिकांश वीरगाथा प्रधान है.
कथानुसार लोरिक ऐसे राज्य में पहुँचता है,
जहाँ वह विजेता योद्धा के रूप में ख्याति अर्जित करता है
और लोकनायक बन जाता है।

लोकगाथा व गायन में लोरिक, चंदा व मंजरी तीनों की ही अपने अपने स्तर पर प्रशंसा है,
मंजरी का सतीत्व और त्याग के लिए,
चंदा का सौंदर्य और प्रेम में साहस के लिए,
लोरिक का वीरता और मर्यादा के लिए.

लोरिक उसके जीवन और कथा का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ चंदा से प्रेम है,
क्योंकि इसी के साथ वह धीरललित व धीरोदात्त दोनों प्रकार का नायक बनता है।
एक सामान्य ग्वाल के भीतर राजोचित संघर्ष और युद्ध की महत्वाकांक्षा लाने में संभवतः चंदा का ही योगदान है.
चंदा द्वारा राजकुमारी होकर एक सामान्य युवक से प्रेम ने भी
लोकगाथा के लिए अनुरूप सामग्री प्रदान कर दी.

चंदा का नाम कहीं चाँदकुमारी मिलता है, कहीं चंद्राली, कहीं चाँदा, कहीं चनवा, तो कहीं चनैनी भी.
चंदा का प्रेम साहसिक है,
वही प्रेम का प्रारंभ करती है,
अपने विवाह को तोड़ती है,
परपुरुष के प्रेम में पलायन करती है।
मंजरी का नाम भी कहीं मैना, मयना या मयनावती मिलता है.
संभवतः उसका मूल नाम तो मंजरी था,
परंतु घर या पुकार का नाम मयना हो गया था।
अधिकांश जगहों पर उसे सती व एकनिष्ठ पत्नी के आदर्श की तरह अपनाया गया है।
नायक लोरिक का नाम भी कहीं नूरक मिल जाता है।
बावन भी कहीं वीरबावन है,
परंतु किसी भी रूपांतर में बावन के लिए अच्छे भाव नहीं हैं.

नगर व स्थान में भी गौरगढ़ कहीं गौरा, गोवरगढ़ या गढ़गौरा है,
तो कहीं हरदीपटन केवल हरदी भर.
कथा के ये गौरगढ़, हरदीपटन, नेवारपुर, करिंघा, राजापुर आदि नगर मूलतः कहाँ रहे हैं, स्पष्ट रूप से सिद्ध नहीं.
कतिपय अनुसंधेताओं का मानना है कि मध्यप्रदेश के रायपुर जिले के आरंग एवं रींवा के मध्य का क्षेत्र गौरगढ़ के रूप में "लोरिक-चंदा’’ का क्षेत्र रहा है,
परंतु यह निर्विवाद नहीं है।
लोरिक के जीवन से जुड़े बहुतेरे स्थलों पर अन्यत्र भी दावेदारी है.
नाम से हरदीपटन में पटन शब्द पट्टन के रूप में किसी पत्तन का वाचक लगता है,
जो समुद्री तट पर ही संभव है.
बिहार के सुपौल जिले के हरदी चौघारा गाँव को कुछ लोग हरदीपटन मानते हैं।
दरभंगा जिले के बहेड़ी के कैगराडीह को तो लोग लोरिक की राजधानी तक मानते हैं।
यहीं बांदीहुली के लोग इसे लोरिक की युद्धभूमि भी मानते हैं.
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के राबर्ट्सगंज शहर से कुछ दूर ही शक्तिनगर मुख्यमार्ग पर मारकुंडी घाटी में वीर लोरिक पत्थर विद्यमान है,
जिसके लिए प्रसिद्ध है कि
लोरिक ने अपने प्रेम व पराक्रम के प्रमाण के लिए एक विशालकाय पत्थर को दो टुकड़ो में खंडित कर दिया.
कहानी है कि इस नदी के किनारे कभी अगोरी नाम का एक राज्य था।
उस राज्य के राजा का नाम मोलागत था।

मोलागत वैसे तो बहुत अच्छा राजा था,
लेकिन उनके ही राज्य में रहने वाला मेहरा नाम का एक यादव युवक उनके लिए चुनौती था.
वह अपने विशाल समुदाय का नायक था,
जिनपर राजा की नहीं, उसकी अपनी हुकूमत चलती थी।

राजा ने मेहरा को विजित करने की तरकीब निकाली.
उसे अपनी द्यूतक्रीडा के कौशल पर बहुत विश्वास था.
एक दिन उसने मेहरा को जुआ खेलने की दावत दी।
प्रस्ताव ये रखा गया कि जुए में जो जीतेगा,
वही इस राज्य पर राज करेगा।

मेहरा ने राजा के प्रस्ताव को मान लिया।
जुआ शुरू हुआ।
राजा को उम्मीद थी कि वह जीत जाएगा।
लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
एक एक कर  राजा सब कुछ हार गया।

शर्त के अनुसार राजा अपना राज पाट छोड़ निकल गया.
वह व्यथित हुआ पश्चिम दिशा की ओर निकला ही था कि
कहते हैं, राजा की ऐसी दुर्दशा देखकर भगवान ब्रह्मा साधु के वेश में उनके पास आए
और कुछ सिक्के देकर बोले-
जाओ एक बार इन पैसों से जुआ खेलो,
तुम्हारा राज-पाट वापस हो जाएगा।

राजा ने ऐसा ही किया।
इस बार मेहरा हारने लगा।
लगातार पाँच बार हारने के बाद जब उसके पास हारने के लिए कुछ भी नहीं बचा,
तो छठवीं बार वह पत्नी को भी हार गया।
लेकिन उसकी पत्नी गर्भवती थी।
इसलिए उसे एक और अवसर दिया गया
और सातवीं बार वो अपनी पत्नी का गर्भ भी हार गया.

राजा ने थोड़ी उदारता दिखाते हुए कहा कि
तुम्हारी पत्नी तुम्हारी ही रहेगी,
बस उसके बच्चों पर आगे हक राजा का होगा.
अगर बेटा हुआ, तो उसके अस्तबल में काम करेगा।
अगर बेटी हुई, तो उसे रानी की सेवा में नियुक्त कर दिया जाएगा।

मेहरा के सातवीं संतान के रूप में एक सुंदर पुत्री का जन्म हुआ।
नाम रखा- मंजरी।
लड़की बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा वाली थी.

राजा को जब पता चला,
तो वो मंजरी को लिवाने के लिए दूत भेजे.
मंजरी की मां ने राजा को संदेश भिजवाया कि
मंजरी लड़की है,
शादी होने तक पिता की जिम्मेदारी है,
जब मंजरी की शादी हो जाए,
तो उसके पति के साथ ही मंजरी को भी ले जाएँ।

राजा ने यह बात मान ली।
जब मंजरी युवा हुई,
तो माता-पिता को उसकी शादी की चिंता सताने लगी.
उन्हें ऐसा वर चाहिए था,
जो राजा को पराजित कर
उनका स्वाभिमान लौटा सके.

कहते हैं,
मंजरी बचपन से ही अद्भुत बच्ची थी.
वह बोली कि उसे पता है कि उसका वर कौन है।
दूर बलिया ग्राम में लोरिक नाम का एक युवक रहता है।
उससे मेरे जन्मों का नाता है और वही राजा को हरा भी सकेगा।

मंजरी और लोरिक का रिश्ता तय हो गया।
लोरिक की बारात अब बहुत असाधारण हो गई.
सारा समुदाय शक्ति प्रदर्शन के लिए एकजुट हो गया.
कहते हैं, उसकी बारात में डेढ़ लाख लोग थे.

लोरिक जब मंजरी से शादी करने के लिए इतने बारातियों को लेकर निकला,
तो राजा के कान खड़े हो गए.
बारात जब सोन नदी के इस किनारे पहुँची,
राजा अपने सैनिकों के साथ उससे लड़ने पहुंच गए.

युद्ध में एक समय ऐसा आया,
जब लोरिक हारने लगा।
मंजरी शादी के जोड़े में लोरिक के पास गई
और बोली कि
अगोरी के इस किले के पास ही गोठानी नाम का एक गांव है। वहां भगवान शिव का एक मंदिर है।
एक बार उनकी उपासना करो,
मुझे यकीन है, इस युद्ध में जीत तुम्हारी ही होगी।

मंजरी की कामना व लोरिक की मंगलकामना सफल हुई.
लोरिक विजयी हुआ।
दोनों की शादी हुई।
मंजरी की विदाई हो रही थी,
गांव की दहलीज छोड़ने से पहले मंजरी ने लोरिक से कहा कि
कुछ ऐसा करो,
जिससे यहां सब तुम्हारे प्रेम व पराक्रम को याद कर रखें.
यह याद करें कि
मेरा लोरिक अपनी मंजरी के लिए प्यार में क्या कर सकता था।

लोरिक बोला,
तुम्हीं बता दो,
कहो तो कदमों से पहाड़ में राह बना दूँ,
हथेलियों से पत्थर को तोड़ कर दिखला दूँ.

मंजरी ने लोरिक को मुस्कराहट के साथ
एक पत्थर दिखाते हुए कहा कि
इसे तलवार के एक ही वार से काट दो।
पत्थर को ऐसे काटना कि
उसके दोनों हिस्से एक ही जगह पर खड़े रहें।

कहते हैं,
लोरिक के तलवार के एक वार से ही
विशाल पत्थर दो टुकड़े हो गया।
कालांतर में उसका एक हिस्सा पहाड़ से नीचे गिर गया।

मंजरी व लोरिक के प्यार की निशानी बने
ये पत्थर जमाने से वहीं खड़े हैं।
जनमानस मानता है कि
प्यार करने वाला कोई भी जोड़ा यहां से मायूस नहीं लौटता.
इनके अनुसार यहीं कहीं लोरिक की पत्नी मंजरी का ग्राम था.

कथा के विस्तार से कहानी की घटना दूर तक जुड़ी दिखती है।
एक संभावना यह भी है कि गौरगढ़ से हरदीपटन की यात्रा में ही
लोरिक चंदा मध्यप्रदेश से उत्तरप्रदेश होते हुए बिहार तक पहुँचे रहे हों.
कथा का कुछ अंश निस्संदेह ऐतिहासिक है,
किन्तु जिस रूप में यह लोकगाथा में रचा बसा है,
उसका अधिकांश कल्पनाप्रसूत हो गया है।

चंदा-लोरिक की कथा को सर्वप्रथम किसने लिखा या कहा, पता नहीं.
लिखित रूप में जो सबसे प्राचीन कृति उपलब्ध है,
वह इस कथा पर मुल्ला दाऊद द्वारा अवधी बोली में लिखित "चंदायन" नामक काव्य है.
इसकी रचना हिजरी संवत् 719 या 781 में मानी जाती है।
मुल्ला दाऊद तेरहवीं-चौदहवीं सदी के भक्तिकाल के प्रेमाश्रयी शाखा के कवि हैं.
चंदायन को हिंदी का ज्ञात प्रथम सूफी प्रेमकाव्य भी माना जाता है।
यह काव्य भी चंदैनी की पुरानी लोकगाथा का स्वभाषा में निबंधन है,
परंतु काफी भाग स्वयं मुल्ला दाऊद द्वारा भी लिखा माना जाता है।
काव्य में कथा दोहा व चौपाई छंदों में वर्णित है। 
अन्य सूफी काव्यों की भाँति इसमें भी रहस्यभावना की प्रतिष्ठा है। 
वर्तमान में इसकी उपलब्ध दो प्रतियों में कतिपय अंतर हैं।

पंद्रहवीं से सोलहवीं सदी के बीच कभी साधन नामक कवि ने "मैनासत" नामक काव्य रचा,
जिसमें मैना अर्थात् मंजरी की कहानी है,
चंदा बस पृष्ठभूमि में है, सौत सी,
चाँदकुमारी के नाम से.

मुल्ला दाऊद की काव्यकृति को 1964 में परमेश्वरी लाल गुप्त ने
तथा 1967 में माता प्रसाद गुप्त ने अपने अपने स्तर पर संपादित कर प्रकाशित किया.
इस कहानी को सन् 1890 में श्री हीरालाल काव्योपध्याय ने "चंदा की कहानी" के नाम से प्रकाशित किया था। कथानक छत्तीसगढ़ी था और भाषा में वहीं का प्रभाव था.
बाद में बेरियर एल्विन ने सन् 1946 में लोेकगाथा के इसी छत्तीसगढ़ी रूप को अंग्रेजी में अनुवाद करके अपने ग्रंथ "फोक सांग्स आफ छत्तीसगढ़" में रखा.
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने उपन्यास पुनर्नवा में इनकी गाथा को बहुत परिष्कृत रूप देकर निबद्ध किया है. इस कथा में लोरिक का मूल नाम गोपाल आर्यक है और मंजरी का मृणाल मंजरी.

आज विभिन्न क्षेत्रों में कार्तिक पूर्णिमा को लोरिक जयंती व लोरिकोत्सव भी मनाया जाता है। लोरिकदेव की लोकनायक से लोकदेव तक की प्रतिष्ठा है. कुछ विचारकों के अनुसार लोरिकगाथा यादव जाति के लिए वही सम्मान रखती है, जो रामायण की हिंदू के लिए रही है।