बुधवार, 2 नवंबर 2016

राम और श्याम : चरित और चरित्र के द्वैताद्वैत

"राम और श्याम : चरित और चरित्र के द्वैताद्वैत"



परंपरा कहती है,
दीपावली राम के गृह-नगरागमन का पर्व है,
इसके दूसरे दिन गोवर्धन पूजा आती है,
कृष्ण की गृहनगर-रक्षा का पर्व बन कर.
यह कुछ विस्मयजनक है.
जन्मदिवस के रूप में मनाए जाने वाले
रामनवमी और जन्माष्टमी से परे भी दोनों के दो पर्व हैं-
राम की विजयादशमी और दीपावली,
कृष्ण की गोवर्धन पूजा और होली.
इनकी अपनी समानताएं हैं,
उनके व्यक्तित्वों की तरह ही.

परंतु चरित्र की दृष्टि से राम और कृष्ण बहुत भिन्न हैं,
इतने कि राम और श्याम के विपरीत नायक चरित्र गढ़े जा सकें,
सीता और गीता जैसी नायिकाएं कल्पित की जा सकें.

राम और कृष्ण
हिंदू परंपरा के सबसे लोकप्रिय ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य वाले देव हैं.
दोनों चरित की दृष्टि से बहुत कुछ एक से हैं,
इतने कि दोनों एक ही देव विष्णु के अवतार माने गए हैं,
दोनों श्याम वर्ण हैं,
नीलाभ और कमनीय.
सुंदर इतने कि अनजाने भी मुग्ध हो जाएँ.
दोनों ने नदीतट पर जन्म लिया,
दोनों को अल्पायु में घर छोड़ना पड़ा,
दोनों का यौवन यायावर सा बीता,
दोनों को महायुद्ध का सहभागी बनना पड़ा,
दोनों को शासक न रहते समय बर्बर शासकों से संघर्ष करना पड़ा,
ऐसे तमाम का हंता बनना पड़ा, जो राक्षसवत् थे,
दोनों का अपने भ्राता से अगाध स्नेह रहा,
दोनों के जन्म में पितृपक्ष धर्मसंकट में है,
दोनों का बालकाल राक्षसों से युद्ध के बावजूद मधुर है,
दोनों के यौवन में प्रव्रजन का संघर्ष है,
और
दोनों का प्रौढकाल समस्त परिजनों की सहमृत्यु का विषाद लिए है।

पर समानताओं में कितनी भिन्नता लिए हैं-
एक त्रेतायुग के हैं, दूसरे द्वापर के,
एक सूर्यवंशी हैं, दूसरे चंद्रवंशी,
एक मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, दूसरे लीला पुरुषोत्तम,
एक का जन्म ग्रीष्म में हुआ, दूसरे का वर्षा में,
एक का दोपहर में, दूसरे का मध्य रात्रि में,
एक वरिष्ठ पुत्र हैं, दूसरे कनिष्ठ पुत्र,
एक विश्वामित्र के शिष्य हैं, दूसरे संदीपनि के,
एक के लिए शबरी के बेर हैं, दूसरे के लिए गोपियों के मक्खन,
एक ने सरयू तट पर जीवन आरंभ किया, दूसरे ने यमुना तट पर,
एक धनुर्धर बने, तो दूसरे चक्रधर और वंशीधर,
एक में त्याग का आदर्श, दूसरे में भोग का विमर्श,
एक मुख्यतः निवृत्तिमार्गी, दूसरा मुख्यतः प्रवृत्तिमार्गी,
एक ने संसार में रहकर अध्यात्म का आदर्श अपनाया,
दूसरा अध्यात्म का आदर्श बताकर संसार की राह चला.

एक ने वन और वचन के लिए राज छोड़ा,
उत्तर से दक्षिण चलते हुए सागर तक गए,
चौदह वर्ष के लिए,
दूसरे ने नये राज्य के गठन और समुदाय की रक्षा के लिए राज छोड़ा,
पूरब से पश्चिम चलते हुए सागर तक गए,
सदा के लिए.

कृष्ण के चरित में युवा प्रेम का मंचन है, बालसुलभ लीला है,
उनके समर का भी मंचन हो सकता है, लीला हो सकती है,
पर वहाँ से शौर्य कम, दर्शन अधिक निकलता है।
यहाँ तक कि बालकाल में कंस के अतिरिक्त कोई ऐसा राक्षस नहीं है,
जिसकी सचमुच कोई राक्षस रूप में सिद्धि की जा सके,
उनकी कोई पूर्व-प्रसिद्धि पाई जा सके.

परंपरा कहती है, मानव रूप में
राम और कृष्ण का अपना कर्म-भोग है,
राम के लिए जो स्त्रियाँ मुग्ध हुईं,
कृष्ण के समय गोपिका बनकर जन्मीं.
राम का बालिवध इस युग में उनके लिए
व्याध का तीर बनकर लगा.

राम और कृष्ण का भेदाभेद बहुत कुछ
रामायण और महाभारत का भेदाभेद है.
कृष्ण के साथ कपट और व्यूह भरी महाभारत है,
पर उसमें अलग से दर्शन भरी गीता है.
राम के साथ मर्यादित रामायण है,
पर उसमें जीवन से अलग कोई दर्शन नहीं है.

रामायण व महाभारत
एक ही परंपरा के दो दिव्य ग्रंथ,
एक ही देव के दो अवतारों की गाथा,
परंतु दोनों के लिए अलग आदर क्यों कि
महाभारत को जगह देने से बचना चाहें
और
रामायण को जीवन में रचना चाहें.

मान्यताएँ और किंवदन्तियाँ तो बहुत हैं कि
महाभारत रखने से घर में महाभारत शुरू हो जाती है
और
रामायण पढ़ने से जीवन में रामायण उतर आती है.

रामायण का हर आदर्श ही नहीं, आदर्शहीन पात्र तक
एक सीमा तक अनुकरणीय है,
महाभारत का आदर्शहीन तो दूर, आदर्श पात्र तक बहुत सीमा तक उपेक्षणीय है.

रामायण के युद्ध में भी धर्म है,
महाभारत के धर्म में भी युद्ध है,
रामायण की आधी कहानी त्याग से त्याग की है,
वहाँ स्वत: आदर उमड़ आता है,
महाभारत की आधी कहानी भोग से परिग्रह की है,
वहाँ स्वत: कुत्सा उमग आती है.
महाभारत के शब्दों भर में गीता है,
रामायण के आचरण में गीता है.

वैसे कुछ व्यावहारिक कारण भी हैं,
रामायण बढ़कर जुड़कर भी 24 हजार श्लोकों तक पहुँची,
महाभारत बढ़ते जुड़ते 24 हजार से 1 लाख श्लोकों तक पहुँच गया,
इतने महाकाय ग्रंथ को लाना, पढ़ना भी तो दुष्कर है.
शायद इसीलिए कृष्णकथा की 24 हजार श्लोकों की भागवत अधिक प्रसिद्ध हुई.

अब दूसरी दृष्टि से देखें,
कितने घर होंगे,
जिनमें वाल्मीकि की रामायण होगी,
जो समस्त रामकथाओं का मूल है
और
वैसे कितने घर होंगे,
जिनमें कृष्ण की गीता न होगी,
जो मूलत: महाभारत का ही अंश है.

एक दृष्टि से
जीवन और जगत्
रामायण और महाभारत का योग है,
कुछ रामत्व भी, कुछ कृष्णत्व भी,
कुछ आदर्श भी, कुछ यथार्थ भी,
कुछ शास्त्र भी, कुछ लोक भी,
कुछ गांभीर्य भी, कुछ माधुर्य भी,
कुछ दाम्पत्य की निष्ठा भी, कुछ प्रेम की लीला भी,
कुछ ज्योति की दीपावली भी, कुछ रंगों की होली भी.

इसी चरितार्थता के संदर्भ में एक मध्यकालीन ग्रंथ का रूपक स्मृत हो आया है।
कांचीपुरम के 17वीं शती के कवि श्रीवेङ्कटाध्वरि का लिखा एक विस्मयजनक ग्रंथ है,
"श्री राघवयादवीयम्"
इसमें राम व कृष्ण दोनों की कहानी है,
पर संयुक्त रूप में एक ही ग्रंथ में, एक ही श्लोक में.
मात्र 30 श्लोकों की इस पुस्तक को सीधे-सीधे पढ़ते जाएँ,
तो रामकथा बनती है
और
विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा बन जाती है।
इस कारण इस ग्रन्थ को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है।
कई बार लगता है,
यह अनुलोम-विलोम काव्य ही नहीं,
जीवन का भी सत्य है,
सीधी राह चलिए,
जीवन में रामायण ही लाएँगे,
त्रिभंगी बनिए,
महाभारत को उतरता पाएँगे.

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