मंगलवार, 8 नवंबर 2016

दीपावली : अमावस्या की सिद्धि से संपदा की दीपमाला तक

"दीपावली : अमावस्या की सिद्धि से संपदा की दीपमाला तक"

सांस्कृतिक पर्व बहुरंगी होते हैं,
बहुत दिशाओं में यात्रा करते हैं,
और बहुतेरे रूप लेते चलते हैं.

हिंदू संस्कृति चूँकि किसी भी अन्य परंपरा से अधिक पुरातन और मिश्रित है, अत: उसमें वैविध्य भी सर्वाधिक है. इनमें दीपावली के अवसर पर उसके रूप परिवर्तन व परिवर्धन की ओर चलते हैं,
जिसका अनेक अन्य हिंदू पर्वों की तरह
क्रमिक शास्त्रीयकरण व लौकिकीकरण हुआ है -
आदिम युग में नीरव एकाकी साधना से लेकर
आधुनिक युग में पटाखों के शोर में खोने तक.

माना जाता है कि
प्रारंभ में आहारसंग्राहक या आखेटक युग तक यह आदिम कबीलों का पर्व था,
जब अमावस्या की रात्रि में जादू-टोना, तंत्र-मंत्र की क्रिया होती थी, सम्मोहन, उच्चाटन, वशीकरण के लिए दीप जला कर काजल बनाया जाता था. उल्लू का वाहन माना जाना कहीं यहीं से जुड़ा है. इसमें लक्ष्मी की बजाय श्री की उपासना की जाती थी और तब यह उत्सव से अधिक अमा में सिद्धि का अवसर था. आज भी हिंदू तांत्रिक परंपरा इसे सर्वाधिक महत्ता देती है.

सिद्धि चूँकि शक्ति की देवी की नहीं, सौंदर्य की देवी की होती, अत: उसका स्वरूप नवरात्र से भिन्न होता, जहाँ नववसंत में कामनाएँ प्रतिफलित होने की अपेक्षा अधिक होती. सौंदर्य की देवी का पर्व कामना का पर्व न बनता, तो शायद उसकी सार्थकता खो जाती- "प्रियेषु सौभाग्यफला ही चारुता."

पुनः वैष्णव भक्ति काल में यक्षों की देवी लक्ष्मी से श्री का एकीकरण कर दिया गया और कुबेर के स्थान पर गणेश को प्रतिष्ठित कर दिया गया. तब यह सिद्धि की बजाय समृद्धि का पर्व बन गया. दिवस या कहें रात्रि वही रही,
परंतु पूरा चरित्र बदल गया. यहाँ यह भी सिद्ध या प्रसिद्ध किया गया कि समुद्र मंथन में लक्ष्मी इसी दिवस को निकलीं थीं. धन्वंतरि की त्रयोदशी जब अर्थ व भाव बदलकर धनतेरस बन गई, तो दो दिन बाद अमावस्या को लक्ष्मी का प्राकट्य मानकर लक्ष्मी का पर्व बना दिया जाना कठिन न था. संभावना अधिक है कि इस रूप में यह मूलत: यक्षसंस्कृति का उत्सव रहा हो, जिसे आर्य संस्कृति ने पूर्वपरंपरा में जोड़ने की सहज स्वीकृति दे दी हो.

कृषि व वाणिज्य के विकसित युग में यह समृद्धि का द्योतक बन गया, क्योंकि अब कृषकों के लिए खरीफ की फसलें बहुत हद तक तैयार थीं, पशुपालकों के लिए चारागाह हरे-भरे थे, समुदाय के एक बड़े वर्ग के लिए आशाएँ जगी हुई थीं.
और इसी क्रम में यह नववर्ष का पर्व भी बना, जो कम लोगों को ज्ञात है. आज भी दक्षिण के अनेक पुराने संवत् कार्तिक से प्रारंभ होते हैं. परंपरागत वणिक् वर्ग आज भी इस दिन को वित्तीय वर्ष का प्रारंभ मानते हुए बही खोलता है.

कुछ सामयिक जरूरतें भी थीं- भोजन, वस्त्र एवं आवास की.
हाल की बीती बारिश में बिखरे और कलई उतरी दीवारों वाले घरों को सर्दियों के लिए ढकने सँजोने का काम भी करना था, तो यह साफ सफाई रंग रोगन का त्यौहार भी बन गया.
बदलते मौसम में सबके लिए गरम कपड़े खरीदने थे. नये अन्न और व्यंजन के लिए बर्तन जुटाने थे. तब सर्दियाँ अधिक गहरी होती थीं, इसलिए साधन अधिक जुटाकर रखने होते थे. फलत: लेनदेन का कारोबार बढ़ जाता.
व्यापारी वर्ग को यह सुहाता कि अभी से लेन देन के लिए लोगों को तैयार कर ले, क्योंकि धंधा उम्मीदों की उधार पर भी तो चलता है.

जो हो, सिद्धि का एकाकी और प्रच्छन्न सा रहने वाला दीप
संपदा के सान्निध्य में बहुल व बहिर्मुखी हो गया,
पूजागृह या गर्भगृह से निकलकर द्वार तक पहुँच गया,
ताकि लक्ष्मी आ सकें. अब यह प्रकाशपर्व बनने को तैयार था, क्योंकि संपदा हो, सौंदर्य हो, दर्शन व प्रदर्शन चाहता है.

अगले क्रम में महाकाव्य काल में जब रामायण में राम के स्वगृहगमन के समय दीपोत्सव की कथा मिली, तो इसे संयोगवश इसे पूर्वप्रचलित लक्ष्मी के दीपपर्व से जोड़कर दीपावली का उत्सव बना दिया गया. कालांतर में यह भी प्रचलित कर दिया गया कि पांडव अपना 12 साल का वनवास काट कर इसी दिन वापस आये थे.
और फिर दीपमाला घर के द्वार से दीवार तक जा पहुँची, संख्या में बढ़कर, लौ की लड़ी बनकर.

और फिर वो प्रदेश , जहाँ के लोग व्यापार व जीविका की तलाश में प्रवासी हो गए थे, उन लोगों के परदेश से वापस अपने देश लौटने का पर्व भी बन गया, जो आज के गतिशील समाज में भी बदस्तूर कायम सा है.

संस्कृति की दीवारों पर शुभ-लाभ के प्रतीक सजने लगे हैं,
चाक से उतरकर दीये चौपाटियों पर सजने लगे हैं.
ये अगणित दीप अनगिनत सालों से अनगिनत कहानियों और मान्यताओं के साथ जलते रहे हैं.
मान्यता कहती है-
जब दूर से आए के लिए अनेक दीप सजते हैं,
तो दूर गए के लिए एक प्रतीक्षा का दीप भी जलता है,
और सच कहूँ,
तो अंतर्मन कहता है कि
वह एकाकी दीप राम का नहीं, लक्ष्मण के नाम का है
और
वह लक्ष्मी की प्रतीक्षा में नहीं, उर्मिला की प्रतीक्षा का जला है,
जिसने अपने हृदय सिंहासन पर एक पादुका रख रखी है,
उस पति की, जिसे पति के साथ उसके पदचिह्नों पर चलने का अधिकार नहीं मिला,
बस उसके पदचिह्नों को निहारते रहने की सुदीर्घ प्रतीक्षा मिली.

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