गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

फ्रीकोनॉमिक्स : पुस्तक समीक्षा



"फ्रीकोनॉमिक्स"
लेखक : स्टीवन डी लेविट और स्टीफन जे डबनर
(पुस्तक समीक्षा)


फ्रीकोनॉमिक्स नाम कुछ नया है और स्वयं पुस्तक के लेखकों द्वारा ही गढ़ा गया है. फ्रीक और इकोनॉमिक्स शब्दों को जोड़कर बने युगल शब्द का तात्पर्य है- असंबद्धता का अर्थशास्त्र. नाम का हिंदी पर्याय बनाना कठिन है, किंतु भाव के रूप में यह वह अर्थशास्त्र है, जो बहुत असामान्य है, अप्रत्याशित है, असंबद्ध सा है.

स्टीवन डी लेविट और स्टीफन जे डबनर द्वारा संयुक्त रूप से लिखित लगभग दो सौ पृष्ठों में निबद्ध यह कृति अर्थशास्त्र को समाजशास्त्र से जोड़कर देखनेवाली एक महत्वपूर्ण और लोकप्रिय रचना है. सन् 2005 में प्रकाशित इस फ्रीकोनॉमिक्स ने सामाजिक अर्थशास्त्र के माध्यम से विषयों घटनाओं तथ्यों सूचनाओं, मानकों योजनाओं को नए दृष्टिकोण से देखने में प्रभावी भूमिका निभाई. पुस्तक की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लग सकता है कि न्यूयॉर्क टाइम्स की बेस्ट सेलर सूची में रही इस पुस्तक अबतक विश्व की 35 भाषाओं में मुद्रित हो चुकी है और उनकी 50 लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं. लेखकों ने फ्रीकोनॉमिक्स नाम से एक वेबसाइट भी बना रखी है, जिस पर निरंतर नये विषयों का समावेश होता रहता है.

सन् 2006 में प्रकाशित फ्रीकोनोमिक्स के संशोधित संस्करण में लगभग 100 पृष्ठ और जोड़ दिए गए हैं, जिनमें उक्त लेखकों के कतिपय नये लेख, विचार और ब्लॉग को भी सम्मिलित कर लिया गया है. इनमें कुछ जगहों पर पुराने विषयों की पुष्टि और संदर्भ भी हैं.

लेखकों में स्टीवन डी लेविट तो मूलत: अर्थशास्त्रीय विश्लेषक रहे हैं, किंतु स्टीफन जे डबनर अर्थशास्त्री न होकर पत्रकार रहे हैं. पुस्तक लेखन में लेविट की भूमिका अधिक है, दोनों का मिलन भी सांयोगिक है, जिसमें डबनर ने न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए लेविट पर लेख लिखने के लिए संपर्क किया था और उस समय उनके अप्रत्याशित निष्पादन से जो आशा जगी, उसी क्रम में इस ग्रंथ का प्रणयन हुआ.

पुस्तक मुख्यतः छ: अध्यायों में विभक्त है और प्रत्येक अध्याय प्रश्नवाचक शीर्षक लिए हुए है. हर अध्याय में शीर्षक के प्रश्न के अतिरिक्त अन्य अनेक प्रश्नों को भी उठाया गया है, अन्य अनेक बिंदुओं को भी जोड़ा गया है, कहीं पुष्टि के लिए तो कहीं अन्य विषय के लिए.

फ्रीकोनॉमिक्स को पहेलियाँ बुझाना और सुलझाना पसंद है. लेविट-डबनर को उन बातों पर सवाल पूछना अच्छा लगता है, जो हमारे लिए साधारण होती हैं और जिनके लिए हमारे मन में कोई संशय या प्रश्न नहीं उठते. अपने उत्तरों से लेविट अर्थशास्त्र के सिद्धांत से अधिक गहरी आम समझ (Common Sense) का प्रयोग करके यह दिखाते हैं कि साधारण रूप में सही लगने वाली बहुत सी बातें गलत भी हो सकती हैं, हमारे सोचे समझे सिद्धांत त्रुटिपूर्ण हो सकते हैं.

पुस्तक अत्यंत लोकप्रिय, चर्चित और विवादित रही है. इसमें अनेक असंबद्ध परिलक्षित होने वाले तथ्यों को रोचक रूप में संबद्ध कर नये निष्कर्ष निकाले गए हैं. उदाहरणार्थ-
- नशीली दवाओं का व्यवसाय करने वाले अपनी मांओं के साथ क्यों रहना पसंद करते हैं?
- मोटापे और बेईमानी में गहरा रिश्ता क्यों होता है?
- अपराधों की संख्या में कमी का संबंध पुलिस सुधार या सामाजिक विकास से अधिक गर्भपात की वैधता से क्यों है?
- कुश्ती और परीक्षा के परिणामों में कैसे एक जैसी मैच फिक्सिंग की प्रवृत्ति विद्यमान है?
- कोकीन क्रैक की खोज कैसे नॉयलॉन स्टॉकिंग से जुड़ जाती है?
- नाम और सामाजिक परिणाम में क्या संबंध बन सकता है?
ऐसे ही तमाम प्रश्न और बिंदु हैं.

लेखक का मानना है, वस्तुत: जो कुछ भी हम करते हैं और जो चीजें हमें रोजाना प्रभावित करती हैं, फ्रीकोनॉमिक्स का सा एक तार्किक स्वरूप हर एक के मर्म में स्थित होता है, पर सामान्यतः हम पुराने कार्य कारण के नियमों या सहजदृश्य तथ्यों से ही इतने बँधे होते हैं कि हम उन्हें और दूर से, और गहरे जाकर देख ही नहीं पाते.

फ्रीकोनॉमिक्स स्वयं में एक पुस्तक ही नहीं, एक प्रविधि और दर्शन भी है, जो संसार की घटनाओं को पुनर्व्याख्यायित करता है. यह रोजमर्रा की जिंदगी में हमारे इर्द-गिर्द बिखरी बेतरतीब चीजों से दुनिया के बारे में जानकारियां हासिल करने में मदद करता है, यह जानने में कि हर दैनंदिनी घटना में दृश्यतल के नीचे क्या घट रहा है और जो घट रहा है उससे कहाँ क्या घट सकता है.

हल्के-फुल्के अंदाज़ में देखने पर लगता है, जैसे लेखक के लिए आँकड़ों और घटनानाओं के संसार में हर उपेक्षित तथ्य अपेक्षित है, हर दूर का संबंध निकट का संबंध है, हर असंगत जगत् कहीं सुसंगति बिठाए है-
दंड से लेकर प्रोत्साहन तक, अध्यापन से लेकर मल्लयुद्ध तक, पैरेंटिंग से लेकर राजनीति तक, मोटापे से लेकर बेईमानी तक, डर से लेकर ट्रैफिक जाम तक, सेक्स से लेकर अपराध तक, दुर्घटनाओं से लेकर प्राकृतिक आपदा तक, नाम से लेकर अनाम तक.

पुस्तक की समीक्षा के क्रम में एक बार अध्यायवार संक्षिप्त विवरण---

अध्याय-1
विद्यालय के शिक्षकों व सूमो पहलवानों में क्या समानता है ?

यह अध्याय अर्थशास्त्र, प्रशासन और प्रबंधन के सामान्य नियमों के प्रतिकूल जाकर यह दिखाता है कि सामान्य व्यवहार में कैसे दंड प्रोत्साहन बन जाता है और प्रोत्साहन दंड. और फिर इनके लिए बनाये गए नियमों को कैसे विरूपित कर संस्थाएँ और सदस्य गलत व अनैतिक तरीकों के माध्यम से लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर रहे होते हैं।

लेखकों ने इस संबंध में कई उदाहरण दिए हैं, जिनमें शीर्षक के अनुसार दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं-
सूमो कुश्ती के पहलवानों का और विद्यालयों के शिक्षकों का. प्रथम दृष्टांत जापान का है, दूसरा अमेरिका का.

सूमो पहलवान प्रतियोगिता के एक स्तर पर, जबकि उनका अगले चरण में चयन सुनिश्चित हो जाता है, मैच फिक्सिंग कर कमजोर प्रतियोगी से हार जाते हैं, ताकि अगले चरण में उन्हें ऐसे प्रतियोगी मिलें, जिनसे सरलता से जीता जा सके.

इसी प्रकार अनेक शिक्षक विद्यालय और शिक्षकों का प्रदर्शन बेहतर करने के लिए कई प्रश्नों व परीक्षाओं में छात्रों के अंक अप्रत्याशित रूप से बढ़ा देते हैं. अपने उदाहरण में लेविट दिखाते हें कि विद्यालयों की पढ़ायी के स्तर में सुधार लाने के लिए बनाये गये विधिक प्रावधानों से शिक्षकों को गलत काम करने की प्रेरणा मिली, जिससे उन्होनें परीक्षा में छात्रों को अतिरिक्त अंक देना प्रारंभ कर दिया.

शिकागो पब्लिक स्कूल के शिक्षकों और जापानी सूमो पहलवानों के अनेक स्तरों के आँकड़ों का विश्लेषण कर वे सिद्ध करते हैं कि यदि समुचित ध्यान न दिया जाए, तो प्रतियोगिताएँ और परीक्षाएँ शीघ्र ही परस्पर कपटसंधि का शिकार बन जाती हैं. जहाँ दाँव-पेंच, साजिशें, धोखाधड़ी सहजदृश्य न होकर भी गहरे तक स्थान बना लेती है. लेखक दिखाते हैं कि हारने के लिए की गई कपटनीति किस प्रकार जीतने के लिए की गई कपटनीति से अधिक बुरी सिद्ध होती है.
लेखक का निष्कर्ष है कि प्रोत्साहन तीन तरह के हो सकते हैं -
आर्थिक, सामाजिक और नैतिक. जिस प्रोत्साहन में तीनों गहनता से संबद्ध रहेंगे, परिणाम बेहतर होंगे, अन्यथा बदतर की संभावना बनी रहती है.

लेखक का मानना है कि संस्था या संगठन जब एक सीमा से अधिक बड़ा हो जाता है तो वह अकुशल होने को अभिशप्त हो जाता है.


अध्याय-2
कू क्लक्स क्लान जैसे आपराधिक संगठन रियल एस्टेट एजेंट के कार्यों के समान प्रवृत्ति क्यों रखते हैं?

यह अध्याय सूचना की शक्ति बताता है और यह दिखाता है कि यदि उद्देश्य बदल दिये जायें, तो इनसे जुड़े लोग कैसे गलत लाभ ले जाते हैं, कैसे सही लक्ष्य या मूल्य से भटका जाते हैं.

लेखक बताते हैं कि एक विशेषज्ञ को जो राशि दी जाती है, वह वस्तुतः उसकी विशेषज्ञता को दी जाने वाली प्रोत्साहन राशि होती है, किंतु कई बार वे अपनी विशेषज्ञता से हमें लाभ पहुँचाने की बजाय हानि पहुँचाने का प्रयास करते पाए जाते हैं. प्रकारांतर से कहें, तो वे या तो हमसे अधिकाधिक राशि लेना चाहते हैं या फिर कम लाभ देने वाले विकल्प की ओर ले जाते हैं.
यह चिकित्सक या वकील करे, तो बहुत अस्वाभाविक नहीं लग सकता, पर जहाँ कमीशन आधारित कारोबार है और आप यह सोचते हैं कि यदि हमारा प्रोपर्टी डीलर हमारी संपत्ति का विक्रय में अधिकाधिक मूल्य दिलाना चाहेगा, ताकि उसे अधिकाधिक कमीशन मिले, तो यह हमारी चूक है. रियल एस्टेट डेटा के अपने विश्लेषण कर लेविट यह दिखाते हें कि कैसे घर बेचने का काम करने वाली व्यावसायिक कम्पनियाँ आप के घर को कम कीमत में बेचती हैं, जबकि आप को बाज़ार में उसके कुछ अधिक दाम मिल सकते थे. वस्तुतः प्रोपर्टी डीलर हमारी संपत्ति के शीघ्र विक्रय पर अधिक रुचि दिखाते हैं, अधिक मूल्य पर विक्रय में कम, क्योंकि वे तत्काल प्राप्त होने वाले कम कमीशन को बाद में प्राप्त होने वाले थोड़े अधिक कमीशन से ज्यादा तवज्जो देते हैं. इस प्रकार वे हमारी संपत्ति का वास्तविक से कम मूल्यांकन करते हैं.

सूचना कितनी सशक्त होती है, इसका पता एक पत्रकार स्टेटसन कैनेडी के द्वारा तत्कालीन अमेरिकी आपराधिक संगठन कू क्लक्स क्लान की प्रविधि के रहस्योद्घाटन से चलता है, जिसने इस संगठन के पतन का मार्ग प्रशस्त कर दिया.
आगे इसी संदर्भ में लेखक अलग जाकर यह दिखाते हैं कि ऑनलाइन डेटिंग करने वाले प्रायः कौन से झूठ बोलते हैं. यह प्रवृत्ति अन्य अनेक क्षेत्रों में भी पाई जाती है.

लेखकों का निष्कर्ष है कि सूचना और जानकारी का किन्हीं विशिष्ट हाथों में होना उनके किसी हित या लाभ का आधार बन सकता है. अक्सर ऐसे में व्यक्तियों या संगठनों द्वारा अलग अलग तरह से उपयोग या दुरुपयोग किया जाता है.

अध्याय-3
मादक द्रव्यों के डीलर अपनी माँ के साथ क्यों रहते हैं?

इस अध्याय में लेखक इस आम धारणा को तोड़ते है कि सभी मादक द्रव्यों के विक्रेता बहुत अपारिवारिक जीवन जीते हैं या फिर इस व्यवसाय से जुड़े सब लोग बहुत पैसे कमाते हैं या यह अधिकांश तस्करों के लिए बहुत पैसेवाला व्यवसाय है.
वे शिकागो के एक मादक द्रव्यों के गिरोह के आर्थिक कामकाज व उसके वित्तीय अभिलेखों के अपने ढंग से विश्लेषण कर यह साबित करते हैं कि ज्यादातर सड़क स्तर के मादक द्रव्यों के डीलरों को अर्जित होने वाली आय सामान्य न्यूनतम मजदूरी से भी कम है। लाभ का आधे से अधिक भाग बमुश्किल 2.2 प्रतिशत लोगों के पास चला जाता है.

उन्होंने कहा कि प्रोत्साहन का स्वरूप सामाजिक-आर्थिक संदर्भ में बदल जाता है। मादक द्रव्यों के गिरोह के प्रभाव में लोग अधिकांशतया इसलिए आते हैं कि वह उन्हें सहज ही आजीविका के साधन दे देता है और आर्थिक सामाजिक स्तर पर कुछ छिपी जरूरतों को पूरा कर देता है.

इसी सन्दर्भ में आगे बढ़ते हुए वे नये किंतु संबद्ध बिंदु जोड़ते जाते हैं जैसे मादक द्रव्यों के डीलर्स, फुटबाल के क्वार्टरबैक तथा संपादकीय सहायक में क्या समानता होती है, क्रैक कोकीन की खोज ने कैसे नॉयलॉन स्टोकिंग की खोज का मार्ग प्रशस्त किया, इत्यादि.

पुन: लेखक दिखाते हैं कि यह समाज वह है, जहाँ वेश्याएँ भवननिर्माण के विशेषज्ञ से अधिक आय अर्जित कर ले जाती हैं. इसी प्रकार वे अलग-अलग सन्दर्भ में नये किंतु संबद्ध बिंदु जोड़ कर नये निष्कर्ष प्रतिपादित करते जाते हैं.


अध्याय-4
सारे अपराधी कहाँ चले गए?

यह पुस्तक के सर्वाधिक विवादित और चर्चित निष्कर्ष वाला अध्याय है. इसमें उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका में 1990 के मध्य हिंसक अपराध में अचानक तेजी से आई गिरावट का कारण पुलिस सुधार या सामाजिक विकास की बजाय लगभग तीन दशक पूर्व 1973 में गर्भपात के वैधीकरण को बताया है.

1980-90 के दशक में अमेरिका में अपराध दर बढ़ती जा रही थी और सभी चितिंत थे कि यह कम नहीं होगी, बढ़ती ही जायेगी. पर ऐसा हुआ नहीं और अपराध दर कम होने लगी. विशेषज्ञों का मानना था कि यह अपराध को रोकने की नयी नीतियों की वजह से हुआ. लेखक सिद्ध करते हैं कि नहीं, यह इसलिए हुआ, क्योंकि बहुत पहले 1973 में अमेरिकी कानून ने गर्भपात की अनुमति दी थी, जिससे गरीब घरों की कम उम्र वाली स्त्रियों-माँओं को गर्भपात करने में सरलता हो गई और इन परिवारों से अपराध के जगत् में आने वाले युवकों की संख्या घट गई.

इसमें आगे कई नये किंतु अनेक संबद्ध बिंदुओं का समावेश किया गया है, जैसे मृत्युदंड क्यों अपराधों को रोक नहीं पाता, क्या पुलिस सचमुच अपराध रोक पाती है, क्यों मादक द्रव्यों के क्षेत्र में पुराने डीलर्स माइक्रोसॉफ्ट के करोड़पति की तरह थे और क्यों बाद के डीलर्स पेट्स डॉट कॉम की तरह हो गये, वरिष्ठ नागरिक बनाम सुपर डेटर में क्या समानता होती है, इत्यादि.

अध्याय 5 और 6 दोनों बच्चों के लालन-पालन (Parenting) के विभिन्न पहलुओं पर केंद्रित हैं.


अध्याय-5
वह क्या चीज है, जो किसी को पूर्ण या उपयुक्त माता पिता बनाती है?

इस अध्याय में बच्चों के लालन-पालन से जुड़ी कई धारणाओं को मिथ्या सिद्ध किया गया है, जिनमें सबसे प्रमुख यह है कि बच्चे विद्यालय के स्तर से अधिक अपने समूह (Peer Group) से सीखते हैं. वहाँ माता-पिता की स्थिति, शिक्षा पद्धति या विद्यालय के स्तर से अधिक प्रभाव इस बात का पड़ता है कि बच्चे को अपना समूह किस प्रकार का मिला है.
इसके अतिरिक्त लेखक दो खतरों और जोखिमों की तुलना कर दिखाते हैं कि कई मायनों में बच्चों के लिए हमारे घर के पार्श्व का स्विमिंग पूल एक बंदूक की तुलना में अधिक घातक सिद्ध होता है और आँकड़े बताते हैं कि एक बंदूक की तुलना में स्विमिंग पूल में डूबने से हुई मौतें 100 गुना अधिक हैं. एक बच्चा बंदूक के साथ खेल रहा होता है, तो अक्सर हमें और उसे पता होता है कि इससे मरने की संभावना है परंतु स्विमिंग पूल में ऐसी संभावना पर दोनों ही नहीं या कम विचार करते हैं, परिणाम सामने है.

लेखक सिद्ध करते हैं कि बच्चों के पालन पोषण का विषय कैसे कला से विज्ञान बनता गया है, साथ ही प्रदर्शित करते हैं कि बच्चों के पालन पोषण के स्वभाव बनाम संस्कार द्वैत (Nature vs Nurture Quagmire) के कौन से अदृश्य पक्ष हैं तथा वो कौन सी आठ चीजें हैं जो काम करती हैं और वो कौन सी आठ चीजें हैं जो काम नहीं करती हैं.

अध्याय-6
क्या 'रोशनदा' किसी और नाम से भी वैसी ही मधुर अनुभूति जगाएगी?

छठा व अंतिम अध्याय संयुक्त राज्य अमेरिका में बच्चों के नामों की लोकप्रियता और आवृत्ति के आधार पर नामगत निर्धारणवाद और सांस्कृतिक रंगभेद या विभाजन को प्रदर्शित करता है.
पश्चिमी परंपरा में नाम बहुत महत्वपूर्ण नहीं माने जाते, जैसा कि शेक्सपियर की उक्ति है-
“नाम में क्या रखा है ?”

परंतु लेविट-डबनर पाते हैं कि अर्थ की महत्ता न होकर भी काले और गोरे लोगों के बीच नाम रखने की प्रवृत्ति अलग अलग है. काले लोग विशिष्ट नामों पर बल अधिक देते पाये गये, गोरे लोग सामान्य नाम से जुड़े अधिक देखे गए. परंतु साथ ही कुछ नाम आय वर्ग से भी संबद्धता रखते पाये गये. यह भारत में भी सामान्य है. लेविट डबनर का तर्क है कि कुछ प्रकार के नामों के साथ रंग, संस्कृति या वर्ग का जो भाव अवचेतन मन में जुड़ गया है, उससे उनका भविष्य भी प्रभावित होता है. एक ही बायोडाटा दो अलग-अलग नामों से भेजने पर साक्षात्कार के लिए बुलाए जाने की संभावना अलग-अलग पाई गई.

नामकरण वह हिस्सा है, जो माता पिता द्वारा बच्चे के संबंध में प्रथम आधिकारिक घोषणा बनता है और वह यह बताता है कि जब किसी बच्चे को नाम दिया गया था, तब संसार को क्या कहना चाहा गया था. अपरिचयजन्य अनामता की ओर बढ़ती आधुनिक महानगरीय जीवन पद्धति की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण निष्कर्ष है.

पुस्तक में परिशिष्ट के रूप में कई नई पुरानी बातों का समावेश किया गया है, जिसमें कतिपय वे सूत्र भी हैं, जो लेखकगण की अगली पुस्तक सुपर फ्रीकोनॉमिक्स का आधार बनते हैं. लेखकगण किसी माध्यम या पद्धति के औचित्य पर टिप्पणी करते हुए या अच्छे और बुरे की अवधारणाओं पर विचार करते हुए बताते हैं कि यह सब बहुत कुछ देश-काल सापेक्ष है.

जो टेलीविज़न भारत में स्त्रियों की दशा में सुधार लाने के कारण अच्छा सिद्ध हुआ है, वही अमेरिका में हिंसक व संपत्तिविषयक अपराधों को बढावा देने वाला सिद्ध हो रहा है। लेखक मानते हैं कि भारत में टीवी देखने वाली स्त्रियाँ जागरूक हुई हैं, वे घरेलू हिंसा का प्रतिरोध करने लगी हैं, उनका पुत्र संतति के प्रति मोह घटा है और वे अधिक निजी स्वायत्तता का प्रयोग करने लगी हैं.

परिशिष्ट के लेखों में लेखक जिन विषयों पर विचार करते हैं, उनमें एक है- अच्छे और बुरे की अवधारणा. इस पर विचार करते हुए वे कहते हैं कि एक दृष्टि से संदर्भविहीन स्थिति में लोग न अच्छे कहे जा सकते हैं न बुरे. वे तो उन कारकों या प्रेरकों से आकर्षित व प्रभावित होते हैं, जिनका प्रयोग दुधारी तलवार की तरह किया जा सकता है. इसकी पुष्टि में वे ईरान का उदाहरण देते हैं, जहाँ प्रोत्साहन (इंसेंटिव) का प्रयोग करने से किडनी डोनर्स की संख्या बढ़ गई. परंतु विपरीत पक्ष के दृष्टांत भी हैं, जैसे कि चिकित्सक जानते हैं कि कैंसर की एक अवस्था में कीमोथेरेपी रोगी की जीवनरक्षा में प्रभावी सिद्ध नहीं होती है, फिर भी आर्थिक लाभ के लोभ में उनके द्वारा इसका प्रचुर प्रयोग किया जाता है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में सीजेरियन ऑपरेशन का बढ़ता अनुपात इसका सरल दृष्टांत बन सकता है.

विशेषत: कारकों व प्रेरकों की भूमिका का पुनर्मूल्यांकन करते हुए वे कहते हैं कि इन कारकों की समुचित समझ के बिना 'अनपेक्षित परिणामों का नियम' (लॉ ऑफ अनइनटेण्डेड कॉंसिक्वेंसेस) तमाम सुधारों को नष्ट कर सकता है.
इस संबंध में वे मोटे तौर वे तीन परामर्श देते हैं-
एक: हमें वैयक्तिक प्रोत्साहनों (इनसेंटिव्ज़) की अंतर्निहित प्रकृति और और प्रभाव को विविध आयामों में समझने का प्रयास करना चाहिए.
दो: हमें परिवेश के स्वरूप व व्यवहार को समझना चाहिए और यह भी देखना चाहिए कि सामाजिक संस्कृति व राजकीय नीतियों में परिवर्तन हमारे वैयक्तिक प्रोत्साहनों या कारकों को किस प्रकार से प्रभावित करते हैं.
और
तीन: समस्या के समाधान के लिए तथ्यों व आँकड़ों का सम्यक् विश्लेषण आवश्यक है, क्योंकि कुछ आयाम ऐसे हैं ही कि आँकड़ों के सम्यक् विश्लेषण के बिना या तो गलत समझा जा सकता है या फिर बहुत कम समझा जा सकता है.

वैसे 2005 में पुस्तक के प्रकाशन के बाद अब तक विश्व के आर्थिक परिदृश्य में कुछ क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं. पुरानी सशक्त अर्थव्यवस्थाएँ कमजोर पड़ रही हैं, पुरानी वर्ग, जाति, धर्म, संस्कृति की समस्याएँ नए रूप में सिर उठाने लगी हैं. ऐसे में परंपरागत अर्थशास्त्र समाजशास्त्र से जोड़े बिना कोई निदान नहीं पा सकता.

परंतु फ्रीकोनॉमिक्स के ऐसे संयुक्त दर्शन व प्रविधि के बावजूद गहरी समस्याएं असमाधेय स्थिति में रहती हैं. लेखकद्वय की स्वीकारोक्ति भी है कि पुस्तक ऐसे अनेक विंदुओं का समाधान तो प्रस्तुत नहीं करती, किंतु तब भी इसकी उपादेयता एक व्यापक संदर्भ में है और वह यह है कि पुस्तक वस्तुतः उन स्थितियों से आगाह कर देती है, जिनमें सामान्यतः मानव मन या विशेषज्ञ जन स्थितियों को आधारभूत आर्थिक तत्वों के साथ रखकर देख पाने में असफल रहते हैं.

फ्रीकोनॉमिक्स की भाषा प्रवाहपूर्ण है, आँकड़ों और तथ्यों से बात करती है, किंतु ऐसे नहीं कि पुस्तक नीरस व बोझिल हो जाए. अर्थशास्त्र सरल बिंदुओं को जटिल भाषा में प्रस्तुत करने में रस पाता रहा है, परंतु यहाँ लेखकों ने जटिल बिंदुओं को सरल भाषा में प्रस्तुत करने में सफलता पाई है. कुछ या अधिकांश बातें भारतीय संदर्भ में चरितार्थ होती कम प्रतीत होती हैं, किंतु परिप्रेक्ष्य बदल दें, तो सुसंगत भी दिख सकती हैं. दंड और पुरस्कार के विद्यालय के उदाहरण अकादमी में भी दिख सकते हैं, जैसे व्यायाम में किसी और के द्वारा उपस्थिति पत्रक पर हस्ताक्षर किया जाना, शैक्षणिक व प्रशैक्षणिक चीजों का भावी मूल्यों या प्रदर्शनों से बहुत संबंध न रह जाना आदि.

जो भी हो, पुस्तक अनेक महत्वपूर्ण आर्थिक तथ्यों के साथ दूसरी चीजों को रोचक रूप में जोड़ने में समर्थ होती है, विशेषतः समाजशास्त्र व अपराध विज्ञान से. वस्तुतः जो बात इस पुस्तक को इतनी महत्वपूर्ण बनाती है, वह है- किन्हीं भी दो या अधिक असम्बद्ध प्रतीत होने वाली चीज़ों की अंतरनिर्भरता का विश्लेषण. और इनके माध्यम से कतिपय मौलिक निष्पत्तियों और नूतन सिद्धांतों तक पहुँचने की दृष्टि से यह कृति अत्यंत उपयोगी सिद्ध होती है.

-कृष्णा कांत पाठक

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