रविवार, 30 अक्तूबर 2016

दीप एकाकी, अपंक्ति का

"दीप एकाकी, अपंक्ति का"


दीपावली आज छोटी है,
कल बड़ी हो जाएगी।
आज एक दीप जलेगा,
कल दीपों की अवली होगी,
पूरी पंक्ति, माला, हार सी, कतार सी.
दीप एकाकी हो,
तो पूजन के लिए है, ध्यान के लिए है, त्राटक के लिए है,
पूरी शृंखला सी हो, तो उत्सव के लिए है, सौंदर्य के लिए है,
शृंखला का दीप परंपरा का है,
एकाकी दीप वैयक्तिक भी हो सकता है,
अपनी निजता में जलाना चाहें, तो जला सकते हैं,
न जलाते हों, यह और बात है.
पर वे किसी अदृश्य में तो जलते ही रहते हैं।
संभव है,
तमस् के समक्ष दीपों की अवली के समक्ष
एकाकी दीप की दीप्ति उतनी दूर तक सशक्त न हो,
पर वह हवाओं के समक्ष दीपों की अवली भी उतनी ही निर्बल है,
जितनी कि एकाकी दीप की लौ.
और समय के समक्ष भी एकाकी दीप की दीप्ति उतनी ही देर तक सशक्त है,
जितनी कि बहुतेरे दीपों की अवली.
दीप के तले अँधेरा है,
यह लोकोक्ति में है,
पर उसके शीर्ष पर धूमाच्छादित अँधेरा है,
यह लोकोक्ति में नहीं है,
दीप के लौ के मध्य में उसकी वर्तिका के पास भी अँधेरा है,
यह भी लोकोक्ति में नहीं है.
कहने को दीप नहीं जलता,
उसकी बाती जलती है,
उसका तेल जलता है.
उसकी देह नहीं जलती,
उसकी आत्मा जलती है,
उसका हृदय जलता है।
दीप का अपना अंतर्मन है,
यह एक रूपक है,
अंतर्मन का अपना दीप है,
यह दूसरा रूपक है।
दीपक का एकाकीपन एक अलग भाव रखता है,
उसका पंक्तिपन दूसरी कविता रचता है।
दीप का एकाकीपन उसमें एकाग्रता लिए है,
ये दीप नजर टिकाने के लिए हैं, भटकाने के लिए नहीं.
पर यह दीप का अहम् भी बन सकता है,
अज्ञेय की पंक्ति की तरह-
"यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर
इसको भी पंक्ति को दे दो।"
ऐसे ही "दीपदान" पर टैगोर की एक कविता है,
पर भाव बहुत भिन्न हैं-
नायिका दीप लेकर मंदिर में आती है.
नायक कहता है- "मैं अँधेरे में हूँ, एक दीप मुझे दे दो!"
नायिका दीप को शिखर पर झूलते आकाशदीपों में झुला कर चली जाती है.
दूसरे दिन नायिका दीप लेकर सरोवर तट पर आती है.
नायक फिर कहता है- "मैं अँधेरे में हूँ, एक दीप मुझे दे दो!"
नायिका दीप को सरोवर में बह रहे अनगिनत दीपों  में बहा  कर चली जाती है.
तीसरे दिन नायिका दीप लेकर देहरी पर आती है.
नायक कहता है- "मैं अँधेरे में हूँ, एक दीप मुझे दे दो!"
नायिका दीप को दीवारों और झरोखों में जगमगा रहे अनगिनत दीपों में सजा कर चली जाती है.
निराश नायक को
"तमसो मा ज्योतिर्गमय" से आगे
"आत्म दीपो भव !" का स्वर सुनाई पड़ता है
और वह अज्ञात की ओर निकल पड़ता है.
एक दिन वह किसी वृक्ष के नीचे निष्कंप दीपशिखा सा शांत बैठा है-
नायिका अनजला दीपक लिए आई.
नायक बोला- "आज ये दीपक?"
नायिका बोली-
"तब मैं संसारिकता की लौ जलाये घूम रही थी
और तुम दीपक की तरह जल रहे थे,
अब तुम्हारे भीतर दीपक जल रहा है,
जिसकी अलौकिकता की लौ लेने आई हूँ."
(अंत में गीत की कथा में किंचित् परिवर्तन के साथ)

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