शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

संस्कृत : देवभाषा बनाम लोकभाषा

"संस्कृत : देवभाषा बनाम लोकभाषा"
(एक कम बोध वाले का शोध)

इस बात पर किसी को आपत्ति नहीं कि
संस्कृत बहुत प्राचीन है,
बहुत व्यवस्थित है,
बहुत परिमार्जित है,
बहुत प्रशंसित है.

किंतु
संस्कृत पर कुछ समीक्षात्मक बातें-

संस्कृत बहुत वैज्ञानिक है, परंतु इसीलिए बहुत कठिन भी हो गई.
संस्कृत बहुत देवभाषा है, परंतु इसीलिए बहुत अलौकिक हो गई,
संस्कृत बहुत साहित्यिक है, परंतु इसीलिए बहुत अनेकार्थक शब्दकोश वाली भी हो गई.

संस्कृत वाणी में कठिन है, बुनावट में जटिल है,
परंतु
संस्कृत की जटिलता भी एक रहस्य है.
कोई भाषा जन्म से इतनी जटिल या प्रौढ़ नहीं होती,
पर किसी अन्य पठित भाषा के इससे पुराने के होने के बहुत साक्ष्य नहीं हैं.
वैदिक बनाम लौकिक के अंतर से पता चलता है कि
इसका भी एक प्रवाह रहा है.
पाणिनि ने इसे भाषा कहा,
और
बाद की परंपरा ने संस्कृत कहा,
तो इतना तय है,
कुछ तो मूल रहा होगा, जो भिन्न रहा होगा
और कालांतर में परिष्कृत हुआ होगा.

कम लोग जानते हैं,
संस्कृत शब्द स्वयं अपाणिनीय है.
अष्टाध्यायी की मानें,
तो शुद्ध शब्द सँस्स्कृत या संस्स्कृत होगा.

संस्कृति ने संस्कृत की शुद्धता पर बहुत आग्रह रखा है,
यह बहुत अच्छा है,
परंतु कुछ बुरा भी है.
फिर हर नाममात्र की त्रुटि अक्षम्य सी मान ली जाती है.
सुना है,
दयानंद सरस्वती को काशी के विद्वानों ने केवल इसलिए समवेत स्वर में पराजित घोषित कर दिया कि बोलने में उनसे कुछ व्याकरणिक त्रुटि हो गई.

संस्कृत की कठिनाई कहाँ या कहाँ-कहाँ है,
-विभक्ति, जो शब्दों से अलग नहीं हुई,
-लिंग, जो कभी वैज्ञानिक नहीं हुआ,
-प्रत्याहार, जो रक्षा में हत्या हो गई,
-पर्याय, जो साहित्य में सागर बन गई.

संस्कृत के अध्ययनारंभ का आधा बल शब्द रूप व धातु रूप के स्मरण में चला जाता है,
इनमें धातु रूप अर्थात् क्रिया का स्वरूप तो
लगभग सभी भाषाओं में वचन व काल के अनुसार बदलता रहा है,
परंतु संस्कृत में पद रूप पद ही नहीं,
लिंग के अनुसार भी बदलता है.
पदरूप भी पदांतता पर चलता है,
अकरांत हो तो अलग,
उकरांत हो तो अलग.
यहाँ यदि विभक्तियाँ हिंदी अंग्रेजी की तरह पद से पृथक् होतीं, तो आधा श्रम कम हो जाता.

संस्कृत के प्रति सामान्य धारणा है कि
यह सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है,
परंतु यह अर्धसत्य है,
क्योंकि
ध्वनि विज्ञान व व्याकरण में बहुत व्यवस्थित क्रम लिए होकर भी दो क्षेत्रों में बहुत अवैज्ञानिकता या असमरूपता से जूझती है.
इनमें सर्वप्रथम है, लिंग.
विद्वान से विद्वान व्यक्ति भी संस्कृत में लिंग शुद्धता का दावा नहीं कर सकता.
उदाहरणार्थ
नारी के तीन पर्याय लें-
स्त्री -स्त्रीलिंग
दारा -पुल्लिंग
कर्ल्वम् -नपुंसकलिंग

यह वस्तुतः साहित्यिक छूट के लिए विकसित लिंगपरकता थी.
संस्कृत साहित्य विश्व के किसी भी साहित्य से श्रेष्ठ है, उपमाओं व रूपकों में.
यहाँ जब किसी के लिए उपमा गढ़ी जाती थी,
तो उपमान को उपमेय के ही लिंग में ढालने पर बल होता था,
इससे शब्दकोश भी बढ़ा और लिंगविधान की अस्पष्टता भी.

संधि व समास संस्कृत के गुण रहे हैं,
परंतु इनसे शब्दों की जटिलता कुछ बढ़ती भी है,
विशेषतः जब संधि को कुछ स्थितियों में वैकल्पिक की बजाय अनिवार्य कर दिया जाये.
समास में दो पद विभक्ति छोड़ कर मिलते हैं,
अत: वह सुविधानुसार अर्थ निकालने का विकल्प दे जाता है.

संधि समास पर इतने बल का कारण यहाँ का छंदविधान भी रहा है.
संस्कृत ने बहुत प्रारंभ से ही छंदों में अतुकांतता पर बल दिया,
परंतु आंतरिक तौर पर वर्णों ही नहीं,
मात्राओं तक की संख्या निश्चित कर दी और इससे भी आगे बढ़कर प्रत्येक चरण में उनका क्रम तक निश्चित कर दिया.
ऐसे में यदि पर्यायवाचियों का विशाल समांतर कोश और पर्याप्त संधि समास का विधान न होता,
तो पद्यरचना ही बहुत कुछ असंभव हो जाती.

संसार की हर विकसित भाषा में एक वृहत् समांतर कोश होता है,
परंतु संस्कृत का समांतर कोश इतना विशाल है कि
पर्याय का पर्याय जुड़ते-जुड़ते सहस्रनाम स्तोत्र बनता जाता है.
इतने पर्यायवाची साहित्य को तो समृद्ध करते हैं,
परंतु
वैज्ञानिकता के लिए कुछ संकट भी पैदा करते हैं,
क्योंकि वहाँ एक शब्द को अंततः एक ही अर्थ में रूढ़ होना पड़ता है.
संस्कृत कभी "मघवा मूल, विडौजा टीका' बनी,
तो इसमें कुछ भूमिका पर्यायवाचियों की भी थी.

पद्य में जहाँ माधुर्य पर बल रहता है,
वहीं गद्य में गांभीर्य पर बल चला जाता है,
परंतु
गद्य का गांभीर्य
वाक्यों की सुदीर्घता, शब्दों की जटिलता, पदों की दुरूहता पर.
संस्कृत का अपना पांडित्यवाद रहा है,
जो श्रीहर्ष, भारवि, माघ में तो रहा ही है,
परंतु
गद्य कवियों ने तो इसमें चरम ही अपनाया.
बाणभट्ट की कादम्बरी में
विशेषणों के विशेषण ऐसे जुड़े हैं कि
विंध्याटवी वर्णन में 65 विशेषण हैं,
कादम्बरी वर्णन में 72 पंक्तियाँ हैं.

प्रत्यय व प्रत्याहार संस्कृत की वैज्ञानिकता व व्याकरणपरकता के मूल आधार रहे हैं.
पाणिनि स्वयं में एक दर्शन हैं,
वे अभिव्यक्ति की सूक्ष्मतम विधा जानते हैं.

परंतु
प्रत्यय व प्रत्याहार के अपने संकट भी हैं.
वस्तुतः
संस्कृत में प्रत्ययों का पूरा विराट् संसार है,
जो तद्धित और कृदंत रूप में बड़े अप्रत्याशित  रूप में जुड़ते हैं.
कभी कोई प्रत्यय आता है,
तो लगभग पूरा ही बदल जाने के लिए,
या फिर पूरा ही विलुप्त हो जाने के लिए.
पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी को
चौदह माहेश्वर सूत्रों पर आधारित कर रखा है,
ये सूत्र प्रत्याहारों पर आधारित हैं
और
इन प्रत्याहारों की प्रकृति कुछ कुछ प्रत्ययों सी है.
कभी कभी तो लघुसूत्र पूरा बड़ा सा पदसमूह ही विलुप्त करने आता है,
"चूटू" की तरह.

संस्कृत बहुत वैज्ञानिक है,
परंतु भाषा के सभी अंगों में नहीं.
ध्वनि वैज्ञानिक है,
पर लिपि वैज्ञानिक नहीं.
वर्णक्रम जितना व्यवस्थित है,
संसार में संभवतः किसी अन्य भाषा में नहीं.
परंतु
लिपि पर बात उतनी सटीक नहीं.

सामान्यतः संस्कृत की जे दुविधा उसकी लिपि से आती है,
जिसपर ध्यान कम जाता है.
किसी शब्द के अंतिम वर्ण को सामान्यतः हलंत उच्चारण से बचाने के लिए अधिकांश पदों के अंत में विसर्ग (:) या हलंत म (म्) लगने से रेफ व अनुस्वार को वर्ण के ऊपर लगाना पड़ता है,
तमाम अधूरे वर्णों के ऊपर अगले वर्ण को चढ़ाना पड़ता है,
जिससे जटिल पदावली और दुरूह दिखने लग जाती है.

एक भाषा बहुत व्यापक होगी,
तो उस भाषा की कुछ बोलियाँ होंगी,
कई लिपियाँ होंगी.
संस्कृत की जो लिपि आज है,
वह कल नहीं थी.
सैंधव लिपि पढ़ी नहीं जा सकी है,
परंतु
आज जो देवनागरी है,
क्रमशः
ब्राह्मी, खरोष्ठी, शारदा व सिद्धमातृका से होकर आई है.
देवनागरी लगभग उतनी ही पुरानी है,
जितनी कि हमारी हिंदी.

संस्कृत में
देवभाषा बनाम लोकभाषा
या
शास्त्र बनाम जनभाषा का विवाद सनातन रहा है.
जनभाषा रहे होने के साक्ष्य में लोग इसकी
अस्तित्वगत दीर्घकालिकता और
साहित्यिक विशालता को प्रस्तुत करते हैं.
परंतु
यह संभवतः पर्याप्त आधार नहीं.
भाषा कितनी जीवित व जीवंत थी,
इसकी पहचान
काव्य नहीं, नाट्य से हो सकती है,
क्योंकि वह जनसामान्य का वर्णन नहीं,
चरित्र चित्रण करता है.
सीता, प्रतिहारी, ग्राम्यजन सब प्राकृत बोलते हैं.

संस्कृत में कतिपय आयातित शब्द वैदिक काल से मिल जाते हैं.
अथर्ववेद के आलिगी-बिलगी जैसे पदों को यास्क ने निरर्थक माना था, बाद में पाया गया कि वे अरब क्षेत्र की नागदेवियों के नाम हैं.
शाकप्रिय पार्थिव के लिए पृथक् से समास रखा गया है,
उसमें पार्थिव शब्द मूलतः पारसी ईरानी क्षेत्र के शक व पहलव शासकों के लिए था, जो क्रमशः सीथियन व पार्थियन कहलाते थे.
पालक मूलतः इसी क्षेत्र का बहुपोषक शाक था,
जिस कारण शाकपार्थिव नाम सार्थक हुआ था.
यहाँ तक कि संस्कृत के माने जाने वाले गंगा, इंद्र, सांख्य, रावण आदि पदों का संस्कृत व्याकरण को तोड़ मरोड़ कर अर्थ निकालना पड़ता है.
संभ्रान्त, नितांत जैसे शब्द संस्कृत सम दिखकर भी बांग्ला भाषा के हैं.
ज्योतिष के होरा व अबकहरा चक्र के नाम से स्पष्ट है, इनपर अरब की छाया है.
पुराने ऋषियों में लोमश, मय आदि का नाम श्रद्धा के साथ लिया जाता है,
परंतु दोनों वैदेशिक थे.

संस्कृत साहित्य
कई विरोधाभासी परम्पराओं का भी शिखर रहा है.
यहाँ सबसे छोटे सूत्र भी मिलेंगे,
तो सबसे बड़े वाक्य भी.
सबसे चरम दार्शनिक गंभीरता मिलेगी,
सबसे अश्लील साहित्यिक परंपरा भी.
यह वह भाषा है,
जिसने सबसे ऊँची मर्यादाएँ भी बनाईं,
सबसे कमतर वर्जनाएँ भी अपनाईं.

एक रोचक तथ्य है कि
संस्कृत की अधिकांश महान व प्रसिद्ध सूक्तियाँ
किसी महान व प्रसिद्ध धर्मग्रंथ की नहीं हैं-
"वसुधैव कुटुम्बकम्" हितोपदेश की उक्ति है,
"सर्वे भवंतु सुखिन :" कालिदास की विक्रमोर्वशीयम् का किसी के द्वारा संशोधित नटवचन है,
विश्वधर्मसंसद में विवेकानंद द्वारा उद्धृत प्रसिद्ध
"नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसार्णमिव" श्लोक
शिवमहिम्नस्तोत्रम् का अंश है.

मैं संस्कृत का ऋणी हूँ,
जिसमें विश्व का प्राचीनतम वाङ्मय आज भी सुरक्षित है,
मैं संस्कृत का ऋणी हूँ,
जिसमें विश्व का तब का विशालतम वाङ्मय विरचित है,
मैं संस्कृत का ऋणी हूँ,
जिसमें नैतिकता, आध्यात्मिकता व साहित्यिक रूपकात्मकता का शिखर रूप निदर्शित है,
मैं संस्कृत का ऋणी हूँ,
जिसकी संस्कृति आज भी जीवित है.
मैं संस्कृत का ऋणी हूँ,
जिसमें विश्व का प्राचीनतम ही नहीं, विचारों में उदारतम व अधिकांशतम धर्म परंपरा निहित है.
मैं संस्कृत का ऋणी हूँ,
जिसका आदिग्रंथ ऋग्वेद
"एकं सत्यं विप्रा बहुधा वदन्ति"
और
"आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत :"
का उद्घोष करता है.

संस्कृतविदों का एक पुराना शग़ल है,
वैदेशिक जनों को कोसने का-
-भारतीय संस्कृति की नकल कर अपने ज्ञान का नाम देने के लिए,
-भारतीय संस्कृति के महान ग्रंथों की चोरी कर अपने ज्ञान का नाम देने के लिए,
-भारतीय संस्कृति के महान ग्रंथों में प्रक्षिप्त करने के लिए.

वे कीथ, ग्रियर्सन, मैक्समूलर, जोन्स, विंटरनित्ज, विल्सन, हॉपकिंस, मैकडॉनेल, श्रेडर, जैकोबी, बर्नेट, बेशम, कनिंघम, मिराशी, प्रिंसेप के नामों से परिचित तो होते हैं,
उनके अवदानों से पूरे परिचित हों,
यह आवश्यक नहीं.
ये विद्वान संस्कृत के वैश्विक राजदूत व प्रसारक बने,
पुराने साहित्य के अन्वेषक व उद्धारक बने.
विलियम जोन्स वह विद्वान थे,
जिन्होंने सर्वप्रथम संस्कृत भाषा को अन्य वैश्विक भाषाओं से जोड़ने में सफलता पाई.
प्रिंसेप वह विद्वान थे,
जिन्होंने अथक प्रयत्न कर सर्वप्रथम ब्राह्मी लिपि पढ़ने में सफलता पाई.
ऐसी कहानी सबकी है,
किसी ने वैज्ञानिकता तलाशी,
तो किसी ने ऐतिहासिकता.

संस्कृत संकट में है,
परंतु यह संकट विश्व की तमाम भाषाओं पर है.
संसार में लगभग 7000 भाषाएँ हैं, जिनमें 2000 से अधिक अकेले एशिया में हैं.
ये भाषाएँ मिट रही हैं, हर साल बीस से पचास तक.
इस सदी के अंत तक विश्व का आधी भाषाएँ मिट जाएँगी,
तमाम प्रजातियों की तरह,
तमाम संस्कृतियों की तरह.
संकट
जब कुछ सदियों पुरानी हिंदी पर ही आने लगे हैं,
तो सहस्राब्दियों पुरानी पर कैसे न आएगा.

संस्कृत का मिटना भी वस्तुत: उसकी संततियों में जीना है,
क्योंकि अमेरिका-यूरोप की लगभग समस्त भाषाएँ, मध्य एशिया की आधी व भारत की तीन चौथाई भाषाएँ की जननी या मौसी संस्कृत है.

भारत में संस्कृत की सुरक्षा के लिए जो त्रिभाषा सूत्र (भाषा = मातृभाषा, राष्ट्रभाषा और विश्वभाषा) दिया गया था,
उससे कुछ रक्षा तो हुई,
परंतु अपेक्षा पूरी न हुई.

अब विश्वभाषा का युग है,
तो संस्कृत पर खतरे और बढ़ गए हैं.
भाषा एक प्रवाह है और वह अपने युगधर्म के अनुरूप राह बदलती रही है। 

संस्कृत संकट में है.
संस्कृत का संकट भाषा व साहित्य का संकट बाद में है,
वह ज्ञान से अधिक विज्ञान का संकट है.
तब के ज्ञान विज्ञान की
कृतियाँ जब संस्कृत में लिखी गईं,
सारे संसार ने पढ़ा-
दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष
यही तब के मुख्य शास्त्र थे, तब के प्रमुख विज्ञान थे.
इनका विपुल साहित्य आज भी आकृष्ट करता है,
इनकी वैश्विक माँग आज भी यथावत् है,
अत: अपनी विशिष्टता के क्षेत्र में विशेषज्ञता अर्जित कर यह आज भी शिखरस्थ हो सकता है.

संस्कृत के प्रसार में जो संलग्न हैं,
वे सराहनीय हैं,
उनसे अपेक्षा है,
जब वे संस्कृत भाषा का ज्ञान दें,
तब उसके विशाल साहित्य का संक्षिप्त परिचय भी दें,
जब वे भारतीय संस्कृति का अभिज्ञान करायें,
तब उसके गहन दर्शन पर भी कुछ प्रकाश डालें.
वे जब उसकी वैज्ञानिकता का गुणगान करें,
तब उसके वैज्ञानिक ग्रंथों का उद्धरण भी दें.

संस्कृत जीवित है,
पर जीवंत नहीं है.
वह प्रतिष्ठित है,
पर प्राणवंत नहीं है.
वह देवभाषा है,
पर लोकभाषा नहीं है.
संस्कृत के जीवन-मृत्यु
अथवा
साहित्य बनाम व्याकरण पर कभी कही गई पुरानी उक्ति स्मृत हो आई है-
"संस्कृत का व्याकरण इतना कठिन है कि
वह इसे जीने नहीं देगा
परंतु
संस्कृत का साहित्य इतना विशाल है कि
वह इसे मरने भी नहीं देगा."

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