शुक्रवार, 3 मार्च 2017

पाषाण युग से पाषाण युग तक

पाषाण युग से पाषाण युग तक
मेरे नागर मन।
इस संभ्रांत शहर में क्लांत तन और अशांत मन लिये लौटा हूँ । सुबह की आहट के साथ चहचहाहट लिए दिन की शुरूआत करने, फिर सुदूर आकाश और धरती पर तिनके और दाने तलाशने के बाद घरौंदों में लौट आने वाले तमाम परिंदों में मैं भी हूं, बस फर्क यह है कि मैं गोधूलि के धंुधलके की बजाए गाड़ियों के धुएँ में लौटता हूँ और मेरा आकाश तारों की झिलमिलाहट की बजाए सड़कों की जगमगाहट से रौशन होता है।
कितना बड़ा शहर है? शहर है या सागर है ! हर कदम विलीन हो जाने की आशंका है। सड़क पर दौड़ती गाड़ियाँ कब उफनती लहरों की तरह निकलती हैं और ट्रैफिक के तट से टकराकर मद्धम पड़ जाती हैं, पता ही नहीं चलता।
सागर विशाल है, मगर खारा है, तट सुरम्य है, लेकिन रेतीला है। मन इस महासागर में नौका लेकर निकल पड़ता है और लहरों में खोए द्वीपों की तलाश में भटक पड़ता है-- किसी जहाज के पंछी की तरह। इस पंछी को जहाज पर लौट आना है, पर कुछ पल के लिए ये तलाश बुरी नहीं है।
कुल चार लाख सालों में हमारी प्रजाति चालीस हजार साल से पाषाण युग में जी रही है। फर्क यह है कि तब पत्थर की कंदराएँ थी, पत्थर के हथियार थे, पत्थर के औजार थे और अब पथरीली सड़कें हैं, पथरीले घर हैं, पथरीली दुनिया है और ये पथरीलापन भी कृत्रिम है, जिसे कंक्रीट कहते हैं। कुछ लोग तो कहते आए है कि वन्य युग खत्म ही नहीं हुआ है, भेद बस यह आया है कि दरख्तों के जंगल की बजाए कंक्रीट के जंगल उठ खड़े हुए हैं।
पुरातन पाषाणयुग धातुयुग से गुजरता हुआ आज के जिस नवीन कृत्रिम पाषाणयुग में पहुँचा है, उसमें कुछ टूटी या अनदेखी कड़ियाँ भी हैं। ये युग हैं- मृदा युग, काष्ठ युग और बहुलक युग।आइये इन्हें जरा अलग से देखें-
आज से दस हजार साल पहले हमने मिट्टी र्को इंट बनाने की कला सीखी थी, गूँथकर, ढालकर, तपाकर और यह कला आज भी उतनी सार्थकता से जी रही है- सिंधु घाटी के नगरों से मौर्यकालीन स्तूपों तक, सड़कों-दीवारों से अट्टालिकाओं तक। तब हमने र्‘इंट का जवाब पत्थर‘ में नहीं, ‘पत्थर का जवाब ईंट‘ में तलाशा था।
काष्ठयुग हमारे इतिहासकारों की दृष्टि से न जाने क्यों अदृश्य रहा युग है। हमने पत्थर के हथियार तो बाद में बनाए, उससे पहले ही लाठी, डंडे व मुग्दर आ चुके थे। पत्थर के औजारों की जगह जब धातु के औजारों ने ली, तब भी कुल्हाड़ी, फावड़े, फरसे, भाले, तीर-धनुष, नाव-पतवार में वह साथ-साथ भूमिका निभाता रहा। पुरानी पर्णशालाओं और झोंपड़ियों का युग तो शायद खत्म ही नहीं हुआ, नगर संरचना में वे स्तंभों, शहतीरों, मंडपों आदि के रूप में आधारभूत तत्व बना रहा। काठमाण्डू में तो काष्ठ और इष्ट (ईंट) का इतना मंजुल प्रयोग हुआ कि भारत में उसे ‘काष्ठमंडप‘ नाम से जाना गया।
पाषाणी भवन निर्माण कला में धातुओं ने पत्थरों को जोड़ने की बजाए उनको तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, विशेषतः लोहे ने। पाषाण को तराशने की कला पूरे प्राचीन और मध्यकाल की अनमोल विरासत है, लेकिन अठारहवीं सदी के अंत और उन्नीसवीं सदी के आरंभ में सीमेंट के रूप पत्थर बनाने की जो विधा विकसित हुई, उसने कला और विज्ञान के रूप ही बदल दिए। इसके साथ धातु अनिवार्य तत्व के रूप में जुड़ गई, वही फौलादी धातु, जो सरिये में थी, गार्डर्स में भी हर जोड़ में थी, हर खिंचाव में थी, हर आधार में थी।
धातु की धमक आज भी मौजूद है, मगर उसके साथ नई चीजों ने जगह जमा ली हैं- शीशे ने, फाइबर ने, प्लास्टिक ने, टाइल्स ने। इन विकल्पों ने शक्ति तो न बढ़ाई, पर सौंदर्य में चार चाँद लगा दिये, सुविधाओं में हजार इजाफा कर दिया।
आदमी से घर बनते हैं और घरों से गाँव और शहर बनते हैं। आदमियों की एक बस्ती गाँव है, क्योंकि वहाँ खेत हैं, चारागाह हैं। आदमियों की दूसरी बस्ती शहर है, क्योंकि वहाँ उद्योग हैं, व्यापार हैं। पर एक फर्क और है- गाँव वह है, जहाँ आदमी जानवरों के साथ रहकर भी उस तरह पशु नहीं बना, जिस तरह शहरों में आदमी मशीनों के साथ रहकर यांत्रिक हो गया।
लोग मानते हैं, शहर थोड़े ज्यादा शिक्षित हैं, संभ्रांत हैं, साफ सुथरे हैं, गाँव थोड़े अधिक निरक्षर हैं, गँवार हैं, गंदे हैं। ये बस अर्द्धसत्य हैं और इसमें भी बहुत कुछ बस दृष्टिकोण है। सबसे बड़ा फर्क है कि गाँव सुविधाविहीन हैं, शहर सुविधासंपन्न हैं। पर शहरों की सुविधा के अपने संकट भी हैं। उसकी सुविधा में प्रदूषण है, उसकी चकाचैंध में शोर-शराबा है, उसके पक्के मकानों में दड़बापन है, उसकी सभ्यता में अनजानापन है, उसकी दौड़-भाग में रंेगती हुई जिन्दगी है, धुंध है, घुटन है।
शहर बढ़ते जा रहे हैं और शहर से दूर के गाँव उजड़ते जा रहे हैं। सौ साल पहले जहाँ लगभग दस फीसदी आबादी शहरों में रहती थी, आज वहाँ एक तिहाई आबादी रह रही है। आबादी बढ़ने की दर तो घट रही है, मगर शहरों की आबादी बढ़ती दर से बढ़ रही है। वे दिन बीत गए, जब अर्थशास्त्र में सब पढ़ते थे कि हमारी तीन-चैथाई जनसंख्या गाँवों में बसती है और वह दिन भी दूर नहीं जब यह अनुपात बदल जाएगा और यह स्थिति रेखाचित्र में एक गुणा या क्रास की तरह दिखाई देगी।
एक मान्यता है, गाँव वह है, जो प्राकृतिक है और शहर वह है, जो कृत्रिम है। यह बहुत कुछ सही भी है। ऐसा नहीं कि गाँव के भोजन, वस्त्र, आवास कृत्रिम नहीं हैं, लेकिन वे न केवल प्रकृति के अधिक अनुकूल हैं, बल्कि हमारी स्वाभाविक विकासात्मक प्रक्रिया से उपजे हैं। गाँव बसते चले गए और नगर बसाने पड़े। दुनिया के अधिकांश शहर एक व्यवस्थित निर्माण से प्रारंभ हुए थे। इस व्यवस्थित निर्माण में ही उसकी संरचना का सौन्दर्य था, सुविधा थी, स्वच्छता थी और जिस दिन यह व्यवस्था टूटी, वे कस्बे भी न रहे, दड़बे बन गए, झुग्गी बन गए, धारावी बन गए। एक ऐसी बसावट जहाँ पुरापाषाण युग के पत्थर थे, मृदा युग की ईंटे थीं, लौह युग के टिन शेड थे, वन्य-काष्ठ युग की झोपड़ियाँ थीं और आधुनिक युग के नाम पर प्लास्टिक के चँदोवे थे। नालियाँ सड़कों पर ही निकलती और घर तथा टायलेट में प्रायः फर्क नहीं होता।
आदमी गृहस्थ तो तब हुआ, जब उसने गृह बनाने की कला सीखी। यूँ तो दीमकों और चीटिंयों भी बाँबियाँ बना लेती हैं, ततैया और मधुमक्खियाँ भी छत्ते बना लेते हैं, मगर आदमी के घर और नगर विशिष्ट होते हैं। यह विशिष्टता परिलक्षित होती है- संरचना में, स्वच्छता में और सुविधा में। एक दृष्टि से, ग्राम और नगर का भेद इन्हीं तीन आधारों पर खड़ा होता है या यूँ कहें कि खड़ा होना चाहिए।
प्रारंभ संरचना से करते हैं। नगर के लिए यह बिन्दु तीन कारणों से महत्वपूर्ण हो जाता है। पहला, नगर की जनसंख्या वृद्धि में उसकी स्वाभाविक जन्म दर की बजाए उसकी आव्रजन दर से जुड़ी होती है। यह वह जनसंख्या होती है, जो आजीविका के लिए आ रही होती है और जहाँ भी जगह मिले, बस रही होती है। दूसरा, नगर की इस तमाम अस्वाभाविक व अराजक वृद्धि दर के बावजूद उसमें नियंत्रित होने की चेतना व व्यवस्थित होने की शक्ति रहती है और अगर ठीक से व्यवस्था की जाए, तो सरलतया सुरूचिपूर्ण सुन्दर संरचना में ढल सकती है। तीसरा, शहर अपने विस्तार के साथ जब परिधि की ओर बढ़ता है, तो उस हाशिये पर बसने के लिए सबसे अधिक उत्सुक कभी केन्द्र में रह रहे समृद्ध और संभ्रांतजन ही होते है, क्योंकि वे अपनी तंग गलियों और बंद गलियारों की घुटन से तंग आ चुके होते हैं और अगर सचमुच बेहतर व्यवस्था की जाए, तो वे ऊँची से ऊँची कीमत देने को तैयार हो जाते हैं।
यही ऊँची कीमत एक नए तबके को जन्म देती है, जिसे हम बिल्डर, कालोनाईजर प्रापर्टी-डीलर और भू-माफिया के रूप में हर जगह फैला हुआ पाते हैं। सबसे रोचक है कि शहर अपने विस्तार के साथ सबसे पहले गाँव तक पहुँचता है, मगर गाँव का कृषक व भूस्वामी कालोनियाँ नहीं बनाता, प्रापर्टी डीलिंग नहीं करता, बिल्डर नहीं बन पाता: वह बस यह कर पाता है कि कुछ लाख में अपनी भूमि इसके उक्त प्रोफेशनल वर्ग को दे दे, जो महज कागजों पर रेखाएँ खींचकर और दफ्तरों से निकलवा कर उसे करोडों की कीमत में तब्दील करवा सके। दुनिया में उससे सफल और सबल सौदे की कोई दूसरी बानगी संभव ही नहीं है।
भूमि माता है, यह हर कोई जानता और मानता है, सिवाय इस नवसंभ्रांत-नवसमृद्ध-नवभूस्वामी वर्ग के। भूमि से अधिक सुरक्षित, सुखद और सुफल कोई व्यवसाय नहीं, क्योंकि संसार में सब चीज की कीमत गिर सकती है, मगर भूमि की नहीं और इसका कारण यह है कि हर चीज का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है, मगर धरती नहीं बढ़ाई जा सकती और उस पर अगर यह वह धरती हो, जो सात अरब से अधिक आदमियों से भरी हो, प्रति मिनट ढाई सौ लोगों को धरती पर जन्म देती रहती हो, सबसे अधिक आबादी वाले और सबसे अधिक आबादी दर वाले देश से जुड़ी हो, तो फिर घाटे की गुंजाइश ही नहीं।
भारत वह देश है, जिसने संसार भर में सबसे पुरातन और सबसे व्यवस्थित नगर संरचना के आदर्श प्रस्तुत किए। बेबीलोनिया, सुमेरिया, मेसोपोटामिया, माया, इंका, एज्टेक, इजिप्ट कहीं भी इससे बेहतर नगर संरचना के दृष्टांत नहीं हैं। मध्यकाल में देशी रजवाड़ों और बादशाहों में से अनेक ने विरासतों और महलों ही नहीं, शहरों की बुनावट व बसावट पर भी उतना ही ध्यान दिया। इतिहास में ऐसे भी वक्त और सुलतान रहे, जिन्होंने अपने नाम पर नगर बसाने की जिद में और दीवानगी की मिसालें ही कायम कर दी। पर प्राचीन काल से मध्यकाल और सच कहें तो आधुनिक काल में भी उपनिवेशकाल तक नगरीकरण की जो दर रही है, वह बस सहज सी बढ़ती दर रही है। पर उस दासता की रंध्रों से भी स्थापत्य में आधुनिकता की नूतन बयार आती रही। मुगल शैली के सौंदर्य की जगह यूरोप के रास्ते आई रोमन-गोथिक शैली के प्रभाव ने शहर की संरचना को एक नया वैभव दिया।
सच कहें, तो 18-19 वीं सदी मेें भारतीय स्थापत्य और वास्तुकला को एक नया ढँाचा प्रदान किया। ब्रिटिश शासकों ने यूरोपीय वैभव को रोमन-गोथिक शैली के रूप में भारत में लाना चाहा था, परन्तु शीघ्र की उन्होंने  पाया कि यह शैली अपने आप में भारत के लिए अपूर्व और अपर्याप्त है। फिर तत्कालीन भारतीय शैली, जिसमें तुर्क-मुगल शैली का प्रभुत्व था के रोमन-गोथिक शैली से मिश्रण कर एक नई शैली को जन्म दिया, जिसे ’’इंडो-सारासैनिक’’ शैली कहा गया। दरअसल यह सारासैनिक शब्द रोमन लोगो द्वारा इन अरबी-मरूस्थलीय कबीलों के लिए प्रयुक्त होता था, जिसनें मूल अरबी-संस्कृति से भिन्नता थी। मध्यकाल में यूरोप में इसे मुस्लिम संस्कृति का पर्याय मान लिया गया और आधुनिक काल में तुर्क-मुगल स्थापत्य का, जिसमें भारतीय स्थापत्य कला का मिश्रण हो गया था। इस शैली के प्रसार सथापत्य कला का मिश्रण हो गया था। इस शैली के प्रसान में राबर्ट चिशोल्म, चाल्र्स मैंट, हेनरी इरविल, विलियम इमर्सन, जार्ज विटेट, गिलबर्ट स्काट, फ्रेडरिक स्टीवेंस, विलियम हौजेज आदि का योगदान तो था ही, साथ ही अनेक शासकों के स्वप्नों ने साकार रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उदाहरणार्थ, अजमेर में मेयो कालेज की स्थपना के समय लार्ड मेयो ने पहले इसे रोमन शैली में बनवाना चाहा था, लेकिन तत्समय ही उसे ध्यान आया कि यदि भारतीयों को शिक्षा से जोड़ना है, तो बिना भारतीय स्थापत्य के प्रयोग के उन्हें आकर्षित करना कठिन होगा। फिर जो मेयो कालेज बना, उसमें मुगल व राजपुताना शैली का ही प्रभुत्व रहा।
            यह “इंडो सारासैनिक” शैली अपने गुम्बदों झरोखों, मेहराबों, मीनारों, छतरियों, छज्जों, कंगूरों, खम्भों आदि के वैशिष्ट्य के कारण इतनी सुन्दर थी कि जैसे ही डैनियल-द्वय (विलियम डैनियल व टामस डैनियल) ने इसके कतिपय चित्रों को ब्रिटेन में प्रकाशित किया, स्वयं वहाँ के स्थापत्य में इसे अपनाने की होड़ मच गई। अंग्रेजों ने अपनी श्रेष्ठता को प्रदर्शित करने के लिए अपने जिस स्थापत्य वैभव को प्रकाशित करने की सोची वह अंततः भारतीय वैभव के साथ उनके पास लौट गई।
            संयोग से भवन नगर का यह वैभव अंग्रेज शासित और निवासित भारतीय शहरों में बड़े पैमाने पर परिलक्षित हुआ। अगर हम दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चैन्नई जैसे महा-महानगरों को थोडी देर के लिए किनारे रख दें या अजमेर, इलाहाबाद, जैसे अपेक्षाकृत लघुनगरों की भी आज की स्थिति में हाशिये पर रख दें, तो पाएँगे कि यह स्थापत्य मूलतः पर्वतों पर खूबसूरती के साथ पनपा और पल्लवित-पुष्पित हुआ। विशेषतः शिमला जो अंग्रेजों की ग्रीष्मकालीन या कहें कि अधिकांशकालीन राजधानी थी, माऊँट आबू जो राजपुताने में अंग्रजो की  ऐसी ही राजधानी थी, मसूरी, दार्जीलिंग, नैनीताल, श्रीनगर, ऊटी में इसके सुदरतम दृष्टांत हैं। जहाँ तक मेरी जानकारी है, इनमें शिमला के अतिरिक्त अन्य शायद ही किसी शहर में विरासत के भवनों को अधिनियम बनाकर संरक्षित करने की कोशिश की गई। राजस्थान के राजतंत्रकालीन नगरों के वैभव संसार को आकर्षित कर सकते थे, लेकिन इनमें जैसलमेर और कुछ अंश तक जयपुर के अतिरिक्त शायद ही किसी शहर को उसके मूल स्वरूप में बचाने की कोशिश की गई हो। यहाँ शेखावटी की चित्रित हवेलियाँ बदल गई, बीकानेर की लाल पत्थरों की झरोखेदार हवेलियाँ खो गई, बँूदी की भित्तिचित्रित कला वाली हवेलियाँ खो गईं, माऊंट आबू के अनेक ब्रिटिश भवनों के बाह्य स्वरूप बदल गए, जोधपुर के नीले अंतःकरण वाले पाषाणी शिल्प बदल गये और ऐसा केवल राजस्थान में ही हुआ, यह बात नहीं है। हम हैदराबाद के चारमीनार के पास के उन सुन्दर परिक्षेत्रों को देख लें, कोलकाता की सड़कों को देख लें, दिल्ली के चांदनी चैक को देख लें, बंगलूरू के पार्क-भिन्न क्षेत्रों को ले लें, सर्वत्र यही स्थिति है। यहाँ कोई वेनिस नहीं बचा, कोई पेरिस नहीं बना, कोई रोम नहीं बसा। कहते हैं- रोम एक दिन में नहीं बना, लेकिन रोम एक दिन में उजडा भी नहीं। हमने अपने नगरों को सदियों ही नहीें सहस्राब्दियों में बसाया था और उसे दशकों हीे नहीें कई बार सालों में ही बिगाड़ दिया।
खैर, हम अंग्रेजी युग को देख रहे थे। तब हमने मुंबई, कोलकाता और दिल्ली अर्थात तब के बाम्बे, कलकत्ता और देल्ही के रूप में बिल्कुल बदला स्वरूप पाया। हम इसे दिल्ली के इण्डिया गेट, कनाट प्लेस, संसद या राष्ट्रपति भवन, मुम्बई के गेटवे आफ इण्डिया या छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, मुंबई वी.टी. स्टेशन और कोलकता के विक्टोरिया मेमोरियल या रेसकोर्स तक सीमित नहीं करके देख सकते, बल्कि उस स्तर तक लेकर जाना होगा, जहाँ सिविल लाइंस और माल रोड के माडल उपजते हैं, जहाँ क्लाक टावर और टाऊन हाल के स्थापत्य ढलते हैं जहांँ रेलवे स्टेशन, कोर्टयार्ड, कालेज, म्यूनिसिपल भवन आदि के आदर्श प्रारूप बनते हैं, जहाँ जाब चार्नाक और एडविन ल्यूटियेंस के सपने पलते हैं और यह भी कि जहाँ औद्योगिक क्रांति से उपजती गंदगी फैलती है, जहाँ मजदूरांे की खोलियाँ और बाड़ियाँ बनती है।
संरचना का स्वरूप बहुत हद तक स्वच्छता का रूप भी बता देता है। संैधव सभ्यता केवल अपनी चैड़ी सड़कों, समकोण पर काटते चैराहों और पक्के घरों के लिए ही नहीं जानी जाती, बल्कि पक्की और ढकी नालियों के लिए भी जानी जाती है। यह शायद पहली ऐसी नगरीय संरचना थी, जहाँ गलियों और नालियों में स्पष्ट भेद रखा गया था और दोनों की समानांतर किन्तु पक्की व्यवस्था की गई थी। स्वच्छता आज भी हमारी सबसे बड़ी समस्या है। यह भारतीय जनमानस है, जिसे पवित्रताबोध तो बहुत है, परंतु स्वच्छता बोध बहुत कम है। हम अपने घर में झाडू लगाते हैं, मगर द्वार पर लाकर भूल जाते हैं, हमारे हाथ कचरे को उठाने में नहीं हिचकते, मगर कचरे के उठने तक पहुँचने में कम जाते हैं, हम गलियारों की दीवारों को पीक से रँगने में, सड़क की फुटपाथों और रेल की पटरियों और पाश्र्वों को, सार्वजनिक शौचालय-मूत्रालय बनाने से नहीं हिचकते। हमारी स्वच्छता की पोल इन सबसे बढ़कर प्लास्टिक की थैलियों ने खोल दी, जो इस चीज़ की हमारी उपयोगिता और हमारी उपभोगशीलता पर प्रश्न उठाती है और अब सुविधा। सुविधा किसकी? भोजन, वस्त्र और आवास की? नहीं, शायद बहुरंगे और वैविध्यपूर्ण भोजन-वस्त्र और आवास की। पर शहर की चाहत रोटी, कपड़ा और मकान की चाहत से बढ़कर है। वहाँ सुविधा का प्राथमिक तात्पर्य है। सुविधा शिक्षा की, स्वास्थ्य की, संपर्क-संसाधनों की। व्यक्ति नगर की ओर दौड़ता है- केवल एक अंतहीन तृषा वाली भोगवृत्ति और विलासिता के लिए ही नहीं, बल्कि एक बेहतर अथवा न्यूनतम स्तर की शैक्षणिक, चिकित्सकीय और आजीविकीय अनिवार्यता के लिए भी। आदमी अगर गाँव की खुली प्रकृति को छोड़कर शहर की दीमकों की बाँबियों जैसी झुग्गियों या फिर ततैये के छत्तों जैसी कालोनियों में रहने को ही अपनी नियति मान लेताहै, तो इसका आधारभूत कारण नहीं आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति है। यह पूर्ति भी उसकी स्वयं की अनिवार्यता की अपेक्षा उसकी भावी पीढ़ी की अनिवार्यता से अधिक जुड़ी होती है, अन्यथा हम अपनी जड़ों से जुड़े रहने की ललक को यूँ नहीं दबाते और न ही ग्राम के शांत-विस्तार के संसार को छोड़ इस भाग-दौड़, शोर-शराबे, घुटन-प्रदूषण भरी दुनिया में रच-बस न जाते।
सुविधाएँ किसकी? शिक्षा की, स्वास्थ्य की, संपर्क-संसाधनों की, बाजार की, रोजगार की, बिजली की, पानी की। कह सकते हैं, तृष्णाएँ तो मृगमरीचिका हैं, ये माँग तो अनंत तक फैलती रह सकती हैं। उपभोक्तावाद के इस संसार में विलासिता और अनिवार्यता में भेद मिटता जाएगा और कल हम हर चीज को अपनी जरूरत मान सकते हैं- सिनेमा हाल को, शापिंग माल को, मेट्रो रेल को, डिज्नीलैण्ड के खेल को, डिस्काउंट भरे सेल को, पार्क को, पार्किंग को और न जाने क्या-क्या। ये अपेक्षाएंँ बहुत गलत भी नहीं है, क्योंकि इसी की प्रेरणा और प्रत्याशा में विकास भी होता है। भौतिकवादी शक्तियाँ इन्हीं चकाचैंधों से हमें अपनी ओर बुलाती हैं और संवृद्धि के नए रास्ते सुझाती है।
            समस्या यह है कि संसाधन सदा सीमित होते हैं और आवश्यकताओं की तुलना में वे सदा कमतर सि˜होते हैं। पर इससे बड़ी समस्या दूरदर्शिता की है। शहर सपनों से बसाते हैं। उस तक आने और बसने वालों के ही आँखों में सपने नहीं पलते, बल्कि उन्हें बसानेवालों की आँखों में भी सपने होने चाहिए ऐसे सपने, जैसे विश्वकर्मा ने विश्व कि विषय में देखे थे, यक्षों ने आलका और राक्षसों ने लंका के लिए देखे थे, चाणक्य ने मगध, जयसिंह ने जयपुर, गंगासिंह ने गंगानगर, जाब चार्नाक ने कलकत्ता, एडविन ल्यूटियेंस ने दिल्ली, ली कर्बूसियर ने चण्डीगढ़ के लिए देखे थेे और यह तो केवल बानगी है। ऐसे भारत में सैकड़ों शहर हैं जो राजतंत्र में पनपे, उपनिवेशवाद में विकसित हुए, लेकिन विरोधाभासी रूप में लोकतंत्र में नष्ट हो गए।
वर्ष 1992 का समय भारतीय लोक प्रशासन में ऐतिहासक परिवर्तन का समय रहा हैै। यह वह समय है जब 73वंे संशोधन द्वारा पंचयती राज और 74वें संशोधन द्वारा शहरी स्वायत्तशासन को स्वीकृति दी गई। नगरपालिकाओं, नगर परिषदों और नगर निगमों को अधिक स्वायत्तता तो मिली, पर अलग दृष्टि न मिली और सबसे बड़ी बात कि उन्हंे अपेक्षित राजस्व संसाधन ही नहीं मिले। ऐसा नीं कि टाऊन प्लानर्स ने टाऊन प्लानिंग नहीं की, सरकारों में परियोजनाएँ नहीं बनाई, सार्वजनिक निर्माण विभाग ने सड़कें और भवन नहीं बनाए, पर पूरी प्रक्रिया में ऐसी कुछ तो कमी रही कि दूरगामी लक्ष्य तो दूर, सामान्य अपेक्षाएं भी पूरी नहीं हो पाईं। नगर निकायों में छोटे स्तर के मुहल्ले हैं, पर उससे अधिक छोटी सोच सामने आ जाती है। राजस्थान में जो नगर निकाय के अधिशाषी अधिकारी लगाए जाते हैं, उनका विधि का विशेषज्ञ होना तो आवश्यक है, पर टाऊन प्लानिंग का विशेषज्ञ होना आवश्यक नहीं है। पूरे सरकारी तंत्र का सार्वजनिक निर्माण विभाग लोक प्रशासन की सामान्य प्रक्रियाओं के प्रतिकूल खड़ा होता है। जहाँ कार्य का आंकलन करने वाली एजेंसी, उसका क्रियान्वयन करने वाली एजेंसी और मूल्यांकन करने वाली एजेंसी तीनों एक ही हों, तो न कार्य में गुणवत्ता लाई जा सकती है और न हीे सार्वजनिक धन के अपव्यय का भ्रष्टाचार में कमी लाई जा सकती है। जहाँ अंग्रेजी के तीन ‘ई‘ (एस्टीमेशन, एक्जीक्यूशन और इवेल्यूएशन) एक ही एजंेसी में केंद्रित हो जाएं, वहाँ एफिशिऐंसी और इकोनामी की अपेक्षा करना बेमानी है। तथा यही कारण नहीं है कि हम आजादी के बाद के बने लाखों भवनाों में बमुश्किल दर्जन भर भवनों को भी सौंदर्य और सौष्ठव दोनों मानदण्डांे पर खरा नहीं बता पाते। हजारों मील की सड़कों पर सौ सालों से चलती हुई अभियांत्रिकी यदि भ्रष्ट और दृष्टिविहीन हुई है, तो इसमें केवल अभियंता ही नहीं, प्रशासक व शासक भी उतने ही भागीदार हैं, क्योंकि उन्होंने तंत्र के सुधार की कोई वजनदार कोशिश नहीं की। जिस प्रकार चिकित्सा के पेशे में ‘प्रेस्क्रिप्शन‘ व डायग्नोसिस के आधार पर तमाम कमाई के संसाधन पनपते रहे, वैसे ही अभियांत्रिकी में ‘मेजरमेंट बुक‘ व ‘प्रोचेक्ट एस्टीमेट‘ की तकनीकी शब्दावलियों में भ्रष्टाचार की जगह बनती रही। अगर इन कागजी चीजों को ही केवल आवश्यक रूप से देशी भाषा में लिखना अनिवार्य कर दिया जाए, तो आधी समस्या दूर हो जाए। यह समझ नहीं आता कि महात्मा गाँधी नरेगा जैसे कार्यक्रमांे का सोशल आडिट कराने की हिम्मत दिखाने वाली सरकारी प्रक्रिया सार्वजनिक निर्माण विभाग, जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी  विभाग, नगर निगम आदि के कार्यों की सोशल आडिट से हिम्मत क्यों नहीं जुटा पाती। यह तब है कि जब किसी भी राज्य सरकार की बजट का एक-तिहाई या एक चैथाई तक इन्हीं मदों में और ऐसी विभागों द्वारा खर्च किया जाता है और फिर सैकड़ों करोड़ खर्च कर भारत-निर्माण के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया जाता है।
नगर आयोजना प्रायः संसाधन हीनता के साथ-साथ दूरदृष्टिहीनता से जूझती रहती है। नई कालोनियाँ बसती हैं, पर स्कूल पुराने मुहल्लों में रह जाते हैं। कहीं एक ही मुहल्ले में चार विद्यालय मिलेंगे और कहीं हजारों की आबादी पर एक भी नहीं। नई सड़क बनाते समय अगले साल या अगले माह ही बिछनेवाली सीवर लाईन या टेलीफोन लाईन का ध्यान नहीं रहता। सेट-बैक छोड़ना तो दूर, सरकारी भूमि पर हुए अतिक्रमणों को हर साल पंचवर्षीय योजना की तरह नियमित करने की प्रक्रिया चलती ही रहती है और आखिर गरीबों को वंचित भी कैसे किया जाए, उन्हें शहर में कहीं तो बसाना ही पड़ेगा, वरना वह तथाकथित बुर्जुआ संभ्रांत वर्ग घर में काम करने के लिए बाल मजदूर कहाँ से पाएगा, झाडू-पोंछा के लिए बाइयाँ कहाँ से लाएगा, रिक्शे कैसे चलेंगे, कपड़े कैसे धुलंेगे, दूध और अखबार कैसे बँटेगे, निर्माण कार्य के लिए मजदूर कैसे मिलेंगे, गलियाँ व नालियाँ कैसे साफ होंगी, कचरे कैसे उठेंगे, कुल मिलाकर हमें शहरी बनाने के समस्त मानवीय संसाधन कैसे जुटंेगे।
तरुण माक्र्स ने एकाकीपन या अलगाव के लिए जो ‘एलीनेशन‘ की धारणा दी थी, वह शहरों में बुर्जुआ व सर्वहारा दोनों के लिए समान रूप से चरितार्थ होती है। मजदूर के पास अपने व्यक्तित्व को विकसित कर पाने के साधन नहीं हैं और संभ्रांत के पास पैसे के बल पर व्यक्तित्व के झूठे आयाम पाने के तमाम संसाधन हैं। रूसो ने कभी समानता के लिए कहा था कि किसी के पास इतना अधिक भी न हो कि वह दूसरों को खरीद सके और किसी के पास इतना भी कम न हो कि वह खुद को बेचने को राजी हो जाए। विल्फ्रडो परेटो ने असमानता पर कभी 80: 20 का नियम दिया था। हमारे 80 प्रतिात संसाधनों पर 20 प्रतिशत आबादी का स्वामित्व होता है और 80 प्रतिशत आबादी 20 प्रतिशत संसाधनों पर जीविका चलाती है। यह अंतराल नगरों में सर्वाधिक प्रखर रूप में दृश्यमान होता है। समृद्धि अपनी लागत भी वसूलती है, जिसपर ध्यान हीं नहीं जाता। क्लोरो-फ्लोरो-कार्बन से होने वाला ओजोनक्षय शुद्ध रूप से संभ्रांत तबके द्वारा उत्पन्न संकट है, पेट्रोल कार से होने वाला ग्रीन हाऊस इफेक्ट पूरा नहीं, तो भी अधिकांश रूप में इसी तबके द्वारा सृजित रोग है। प्लास्टिक की अधिकांश थैलियाँ, अधिकांश बोतलें इन्हीं घरों से निकलती हैं और मजेदार बात है कि गंदगी पर यही तबका सबसे अधिक कुढ़ता है। ऐसी तिमिरांधता का क्या निदान है?
एलरीज क्लीवर की प्रसिद्ध उक्ति है- ‘या तो हम समाधान के हिस्से हैं या हम स्वयं ही समस्या हैं।‘ निश्चय ही समस्याएं हैं, तो समाधान भी हैं। हमें वह तंत्र विकसित करना होगा, जिसमें एम.एन.विश्वेश्वरैया जैसे लोग अभियांत्रिकी के आदर्श बन सकें- ऐसे प्रशासक प्रोत्साहित करने होंगे, जो सूर्यदेवरा रामचंद्र राव की तरह सूरत को स्वच्छ बना सकें, ऐसे कल्पनाशील प्रशासक चुनने हांेगे, जो ललित पँवार की तरह जैसलमेर की विरासत को बचा सकें या फिर ई.श्रीधरन की तरह रेल व मेट्रोरेल की आधारशिला रख सकें। हमारे नब्बे फीसदी बड़े शहर तो मात्र ट्रैफिक की समस्या तले दबे हैं और हम इस समस्या का अंदाजा इस बात से ही लगा सकते हैं कि आज हर कामकाजी व्यक्ति प्रायः अपनी कार्यावधि का आधा समय अपने कार्यस्थल पर आने-जाने में व्यतीत करता है। ट्रैफिक समस्या का समय रहते निदान न होने से हमने कलकत्ता को पिछड़ते और लगभग मरते देखा है। आज नहीं कल यही हाल बैंगलूरू का भी हो सकता है। कभी प्राचीन नगरी के रूप में विख्यात रही काशी आज एक महानगर की बजाए महाकस्बा बनकर रह गई है और कमोबेस यही हालात उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश के अधिकांश शहरों की है। कोई कच्ची सड़कों से भरा है, तो कोई कच्ची बस्तियों से। आबादी के लिहाज से विद्युत् या पेयजल समस्या का सम्यक् निदान न हो पाने का सरल उदाहरण गुडगाँव दिख सकता है, जो समृद्धि के शिखर पर होकर भी इन आधारभूत सुविधाओं से अत्यंत वंचित होता जा रहा है। शिक्षा व स्वास्थ्य पूरी तरह से सार्वजनिक क्षेत्र से उठकर महँगे निजी क्षेत्र में जा चुका है। नगर अपराध के अड्डे बनते जा रहे हैं, क्योंकि यहाँ भू-माफियाओं का स्वर्ग बन रहा है, अनुचित आव्रजन का अभयारण्य बन रहा है।
पर हर स्याह बादल में रूपहले किनारे तो होते ही हैं। यू सरकारों की यू.आई.डी.पी., आई.डी.एस.एस.एम.टी., जे.एन.यू.आर.एम. जैसी योजनाएँ अपने स्तर पर रंग भरने की कोशिश कर रही है अधिकांश घने शहरों में मेट्रो परियोजना जडें जमा रही है, अनेक सरकारें चिकित्सा और शिक्षा के लिए पहले से अधिक संवेदनशील हो रही हैं, फोर-लेन से लेकर सिक्स-लेन के हाइवेज और कंक्रीट की सड़कों के जाल बिछ रहे हैं, नई कालोनीज के लिए भू-रूपांतरण के कानूनों में परिवर्तन लाया जा रहा है, विकास की राजनीति करने वालों को जाति की राजनीति करने वालों के ऊपर तरवीज मिलने लगी है, उद्योग-व्यवसाय व रोजगार की स्थितियाँ अस्सी नब्बे के दशक से कई गुना बेहतर होकर उभरी हैं, इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट के शिक्षण संस्थानों की बाढ़ हो गई है, शहरी मजदूरांे के लिए महत्वांकाक्षी हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम का कवरेज बढ़ता जा रहा है, और ऐसी अनेक बानगियाँ हैं। आज भारत में शहरों में बसी लगभग तीस करोड़ आबादी के लिए स्वर्णिम युग भले हो न हो, पर पुराना ‘तमस्-काल‘ तो नहीं ही हैं।
देर तक और दूर तक तथ्यों की बातें हों गईं। मन फिर से इन पाषाणी स्थापत्य से टकराकर अपनी मिट्टी से जुड़ना चाह रहा है। भाषा भी अनूठी है, जो नगर से ‘नागरिक‘ शब्द बनाती है और गाँव से ‘गवाँर‘ शब्द। आज जबकि गरीबी मल्टीप्लेक्स के चलचित्रों से गायब होने लगी है, बेराजगारी की बेबसी पर संवेदनाएं मरने लगी है, ‘ये तेरा शहर भी कितना अजीब है, न कोई दोस्त है, न कोई रकीब है‘ की उदास गुनगुनाहट नए शोर-शराबे में खोने लगी है, तब मन अपने मनमोहन नागर से परिवाद करने लगा है, जो द्वारकाधीश बनकर ब्रजभूमि, वंृदावन व गोकुलग्राम को भुला बैठा है, जो बाँसुरी पर ऊँगलियाँ फिराने की बजाए ऊँगली पर चक्र घुमाने में निरत रहने लगा है, जो गोवर्धन की शंात उपत्यका छोड़ कुरूक्षेत्र की भूमि में रच-बस गया है, जो प्यारे कान्हा से ‘नटवर नागर‘ में बदल गया है। यह अवश्य है कि आज कानागर समाज अपनी महत्त्वकांक्षा में कोई महाभारत तो नहीं मचाता, लेकिन अपनी आकांक्षाओं की उन्मुक्तता में महारास को भी बुरा नहीं मानता। ग्राम समाज का योगोन्मुख मानव महानगर में तंत्रोन्मुख हो गया है और मांस-मदिरा-मोहिनी-मुद्रा को बुरा नहीं मानता। वह महाकाल के जाल में उलझ गया है और वक्त की दौड़ में बेतहाशा भागा जा रहा है। उसे एक पल का भी चैन नहीं हैं और इस तनाव में उसका स्वयं से अलगाव हो गया है।
एक कहानी स्मृत हो आई है। शहर का कुत्ता भटककर गाँव आ गया और किसी गाँव के कुत्ते से मिला। यूँ तो अपने इलाके में कोई किसी दूसरे कुत्ते को देखना पसंद नहीं करता, लेकिन शहरी कुत्ता स्वच्छ था, स्वस्थ था, संुदर था। ग्रामीण कुत्ते ने अपनी मलिन और दुर्बल काया पर संकोच करते हुए उसका स्वागत किया और उससे उसके व्यक्तित्व का राज पूछा। शहरी कुत्ते ने उसे अपने साथ चलने का आमंत्रण दिया और काह कि उसे वहाँ भोजन, शयन और भ्रमण की वह सुविधा उपलब्ध होगी, जो नब्बे फीसदी लोगों को भी उपलब्ध नहीं होती। ग्रामीण कुत्ता ऐसे स्वर्गीय सुखों की कल्पना से मंत्रमुग्ध हो गया और चलने को राजी हो गया। पर चलते-चलते अचानक उसकी दृष्टि शहरी कुत्ते के गले में पड़ी देखी। ग्रामीण कुत्ते ने उसका रहस्य पूछा तो शहरी कुत्ते ने कहा- यह एक बंधन है जो उसे उसके स्वामी से जोड़ता है। ग्रामीण कुत्ते ने कहा- ‘‘मित्र, मुझे अब नगरीय विलास की आवश्यकता नहीं रही क्योंकि मुझे भोजन और भवन की इतनी भी आवश्यकता नहीं है कि मैं उसके लिए अपने गर्दन में पट्टी डाल कर घुमूँ।
सचमुच यह आज के शहरी जीवन की विडम्बना है, जो हमारे गले में फन्दे की तरह लगी होती है और हम सोचते हैं कि हम सुखी हैं। कहते हैं, जरूरतें फकीरों की भी पूरी हो जाती हैं और हसरतें बादशाहों की भी अधूरी रह जाती हैं। ऐसे में नगरीय जीवन प्रायः मृगमरीचिका सिद्ध होता है।

जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे ने कहा है कि मनुष्य इस धरती का चर्म रोग है। सचमुच अगर हम आकाश से देखें तो मानव बस्तियाँ एक धब्बे की तरह दिखाई देंगी और इसका कारण यह है कि इस बसावट में बेतरतीबी है, बदसूरती है। खलील जिब्रान ने ‘द प्रोफेट‘ में घर के विषय में कहा है कि अगर मेरा वश चले, तो मैं अपनी मुट्ठी में तुम्हारे घरों को समेट लूं और उन्हें खेतों, पहाड़ों और जंगलों में बीज की तरह बिखेर दूं, तब शायद तुम्हारे घर सचमुच घर की तरह दिखेंगे, क्योंकि वे प्रकृति के परिवेश में हांेगे, उनमें प्रकृति से सुरक्षा भी होगी और प्रकृति से निकटता भी। उनमें प्रकृति का सौंदर्य भी होगा और प्रकृति स्वास्थ्यगत अनुकूलता भी होगी। देखते हैं, आज बेसमेंट में बस्तीे बसाने वाली, स्काई-स्क्रैपर में गगनचुंबी उंचाइयां छूने वाली, सागर में शहर बनानेवाली ये दुनिया कब ये स्वर सुनती है, तबतक के लिए मैं ”नगर-नगर और डगर-डगर, मैं तो बस चला-चला” गाता हुआ विदा लेता हूं।

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