आत्मविश्वास
एक
पुरानी उक्ति है- "आप सोचते हैं कि आप कर सकते हैं या फिर आप सोचते हैं कि आप
नहीं कर सकते हैं, आप
दोनों ही मामलों में सही सिद्ध होंगे।’’
आत्मविश्वास साधन भी है, साधना भी और साधना की
सिद्धि भी। गैब्रियल मार्सल के शब्दों में यह ’कुछ पाने’ (To have) की
बजाय तद्रूप ’बन जाने’ (To
Be) की
भावना है। आत्मविश्वास में अंतस् की पुकार है, अंतर्तम की प्रतिबद्धता है। प्रसिद्ध
दर्शनशास्त्री एच.एच. प्राइस ने कहा है- आदमी के विश्वासों में बड़ा फर्क है। कुछ
"विहित विश्वास’’ (Belief that) है, जो बस बाहर की सूचना की तरह है, ज्ञात तथ्य की
तरह है, किन्तु कुछ विश्वास "निहित विश्वास’’ (Belief in) है। आत्मविश्वास वस्तुतः अन्तर्निहित विश्वास
है।
आत्मविश्वास
क्या है, इसे
समझने के लिए यह पुरानी कहानी महत्वपूर्ण है:-
किसी समय में संतों का एक समूह अपने नृत्य साधना के लिए प्रसिद्ध था -
मत्त सूफियों की तरह, भक्त वैष्णवों की तरह, अनुरक्त गोपियों की तरह। कहते हैं, जब वे नाचते, बादल छा जाते, वर्षा होने लगती। बहुतेरे
नर्तकों और दर्शकों ने उस नृत्य साधना को सीखने की कोशिश की, उस संगीत पर मत्त नृत्य करने की कोशिश की, लेकिन
बादल न छाते, वर्षा न होती।
सबने सोचा, संतों के पास गुप्त मंत्र है, कोई रहस्यमय सिद्धि है। किसी साधक ने जब हठपूर्वक पूछा, तो वे बोले - "कैसी मंत्र साधना, कैसी
नृत्य सिद्धि ? हम तो बस इस विश्वास के साथ नृत्य
करते हैं कि हम नृत्य करेंगे तो वर्षा अवश्य होगी और इस समर्पण के साथ नृत्य करते
हैं कि हम तब तक नृत्य करेंगे, जब तक वर्षा नहीं
होगी।’’
आत्मविश्वास में बस विश्वास ही नहीं, समर्पण भी
है; उसमें किसी अन्य से प्रतियोगिता नहीं, बस स्वयं के स्तर पर प्रतिबद्धता है।
आत्मविश्वास एक जादुई पारस पत्थर की तरह है, परन्तु
समस्या यह है कि यह सर्वाधिक प्रबुद्धों के पास नहीं है, वरन् सर्वाधिक दृष्टहीनों के पास है। अंग्रेजी की एक कहावत है, जिसका आशय है - "बुद्धिमान जिस रास्ते पर चलने में सोच-विचार कर रहे
होते हैं, मूर्ख उसे एक छलांग में पार कर जाते हैं।’’ इसे
ही एलेक्जे़न्डर पोप कहते थे - "फरिश्ते भी जहां पैर धरने में डगमगा रहे होते
हैं, मूढ
वहां दौड लगा रहे होते हैं।’’ (Fools Rush in where Angels fear to tread)
आत्मविश्वास में रूपान्तरणकारी शक्ति है, जो
चाहें, उसे कर जाने की शक्ति है; पर हमारी बौद्धिकता की विडम्बना ही यह है कि वह सर्वाधिक द्वंद्वग्रस्त
होती है, सर्वाधिक दुविधापूर्ण होती है। आत्मविश्वास
में आवश्यक है- विवेक की दृष्टिपूर्णता भी और
भावना की संपूर्णता भी, अन्यथा वह अंध-पंगु बन जाने को
अभिशप्त है।
एक प्रचलित शब्द है- ’इच्छा-शक्ति’ और किसी ’इच्छा’ के ’शक्ति’ बनने के
बीच जो अंतर्निहित तत्व है, वह आत्मविश्वास ही है।
इच्छाएं सबमें जन्म लेती है, पर वे सबमें अदम्य
आकांक्षा या पैशन का रूप नहीं लेतीं या फिर कहें कि कामनाएं सबमें अपनी ऊर्जा भरती
हैं, लेकिन सबमें वे स्पष्ट विजन का रूप नहीं लेती। प्रसिद्ध
जर्मन दार्शनिक शापेनहावर प्रायः कहते थे - ’’मनुष्य जो चाहे, वह पा सकता है; लेकिन जो चाहे, वह चाह नहीं सकता’’।
क्रिकेट के लिए जो चाह एक क्रिकेटर में पैदा हो जाती है, अभिनय के लिए जो पैशन अभिनेता में जाग जाता है, विराट के लिए जो विज़न एड युगद्रष्टा में जन्म ले लेता है; वह सबमें नहीं जन्मता। यह अंतर्निहित प्रेरणा कुछ आंतरिक प्रकृति से
सर्जित होती है और कुछ बाह्य परिस्थिति से निर्मित होती है, जिसे अंग्रेजी में हम नेचर (Nature) बनाम नर्चर (Nurture) का नाम देते हैं।
आत्मविश्वास एक मनःस्थिति है, जो प्रकृति, संस्कृति, परिस्थिति, नियति किसी के भी विरूद्ध खड़ी हो सकती है और फिर किसी के साथ भी खड़ी हो
सकती है। आवश्यक नहीं कि उसका मार्ग नया हो; पर जिसके
साथ भी होती है, उसकी अपनी नई ऊर्जा साथ खड़ी होती है।
आत्मविश्वास में जितना विश्वास अपनी और अपने पास की ज्ञात प्रकृति पर होता
है, उतना ही विश्वास उसके पूरक अज्ञात जगत् पर भी होता
है। तुलसीदास ने शिव-शक्ति की कल्पना क्रमशः श्रद्धा और विश्वास के रूप में की है
- ’’भवानी-शंकरौ वन्दे श्रद्धा-विश्वास-रूपिणौ’’ (रामचरित मानस-1/2) संदर्भार्थ यह है कि आत्मविश्वास में जितना आवश्यक विश्वास है, उतनी ही महत्वपूर्ण श्रद्धा है। श्रद्धा का अर्थ भक्ति नहीं, भरोसा या ट्रस्ट है। संस्कृत में यह शब्द ’श्रत्’ अव्यय में ’धा’ धातु
लगाने से बनता है, जिसका अर्थ है भावनापूर्वक धारण करना
और भावना इतनी गहरी हो कि वह प्रतिकूल स्थितियों में भी संभावनाओं के आकाश में
बाहें फैलाए रखे, विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी
अभिलाषाओं में आशाओं के दीप जलाए रखे, तमाम वेदनाओं को
सहकर भी संवेदनाओं को बचाए रखे।
आत्मविश्वास में एक बालसुलभ सहज विश्वास है, एक
युवजनोचित प्रतिबद्धता है और एक प्रौढजनोचित दृष्टिपरकता है। एक कहानी से इसे
स्पष्ट किया जा सकता है -
किसी जगह लोगों ने वर्षा के लिए यज्ञ का आयोजन किया। उन्हें विश्वास
दिलाया गया था कि यज्ञ की पूर्णाहुति के साथ वर्षा होगी।
यज्ञ पूर्ण हुआ, परन्तु वर्षा न हुई। कुछ
आश्चर्यजनक रूप से पास के गांव में मूसलाधार बारिश हुई। यज्ञायोजकों और पुरोहितों
ने कहा- "प्रभु, हमने जो इतनी साधना की, जो समर्पण किया, जो श्रद्धा दिखाई, जो विश्वास किया; क्या वह निरर्थक था ?’’
कहते हैं, रात में सभी को सामूहिक स्वप्न आया।
स्वप्न में सभी बच्चों के बीच थे। किसी फरिश्ते ने उन्हें उद्बोधित करते हुए कहा-
"तुम कहते हो, तुममे श्रद्धा है, परन्तु क्या तुमने अपने संसार को उस विस्मय और आनन्द से देखा है, जिस भाव से वो बालक फूलों-पत्थरों को देख रहा है ?’’
तुम कहते हो, तुममे समर्पण है, लेकिन क्या तुम्हारे समर्पण में वह तन्मयता और निष्कामना रही है, जो नदी के तट पर रेत के घरौंदे बनाते बच्चे में दिखती है ?
तुम कहते हो, तुम भरोसा रखते हो, पर क्या कभी किसी शिखर से फिसलते समय तुम्हारे भरोसे में वैसी निश्चिंतता
व वैसा हास्य रहा है, जो माँ द्वारा उछाले गए शिशु के
चेहरे पर है ?
और तुम कहते हो तुममें विश्वास है, लेकिन क्या
यज्ञ करते समय तुम्हारे मन में वह विश्वास था, जो बारिश
वाले गांव के उस बच्चे में दिखा, जो पूर्णाहुति के दिन
अपनी दादी के लिए छतरी ले आया था, ताकि वे अगर यज्ञ में
गई, तो भींगे नहीं।
इसलिए जब भी आत्मविश्वास को परखें, यह अवश्य
देखें उसके विश्वास में "आत्म’’ कितना है और आत्मविश्वास में "आत्मा’’
कितनी है। आत्मविश्वास वह भूमि है, जो आत्माभिव्यक्ति
के आकाश में शाखाएं फैलाती है। वह बाह्य आरोपण नहीं, स्वयं
बीज का प्रस्फुटन है और इसी लिए वह एक समय के बाद आनंद का सूत्र ही नहीं, स्वयं आनंद का स्वरूप भी बन जाता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें