शुक्रवार, 3 मार्च 2017

साहित्य और दर्शन

"साहित्य और दर्शन"

साहित्य और दर्शन! मानव संस्कृति चिन्तन और परिकल्पना की दो पुरातनतम विधाएँ। एक में हृदय पक्ष प्रबल है, दूसरे में मनस्तत्त्व का संबल है। भावना बनाम तर्कबुद्धि!

दोनों में ऐक्य भी है और संघर्ष भी। साहित्य में जीवन के यथार्थ का चित्रण है और आदर्श की तलाश है, दर्शन में जीवन के यथार्थ से जीवन के परे के आदर्श तक पहुँचने का प्रयास है।

दोनों के मध्य इस सैद्धान्तिक अन्तर में भी किसी दीवार का-सा अन्तराल नहीं है, बल्कि एक धूमिल सी रेखा या झीने से पर्दे का सा हाल है। किन्तु व्यवहार ? वह कह सकते हैं कि साहित्य का अपना दर्शन है और दर्शन का अपना साहित्य है। लेकिन साहित्य के किन शिखर ग्रन्थों का अध्ययन दर्शन में किया जाता है या फिर दर्शन की किन पठनीय पुस्तकों का सजग अवलोकन साहित्य प्रेमियों द्वारा किया गया होगा?

समय ने इस भेद को गहरा किया है, ऐसा प्रतीत होता है, क्योंकि तब वेद, रामायण व महाभारत से दर्शन भी निकलता था और साहित्य भी छलकता था। तब साहित्य समाज का दर्पण बाद में होता था, वह समाज का दर्शन पहले होता था। वह समष्टि का निदर्शक भी होता और व्यष्टि का निर्देशक भी।

स्थिति बदल गई। दर्पण से मोह हो गया, तो दर्शन भी खो सा गया। ऐसा नहीं था कि साहित्यकार मार्क्सवादी, फ्रायडवादी या अस्तित्ववादी धारा में रचनाएँ न रचते, लेकिन वे शायद ही मार्क्स, फ्रायड या सार्त्र को पढ़ते और जब पढ़ लेते, तो शायद ही साहित्यकार बने रहते। वे गोर्की, काफ्का, प्रेमचंद को पढ़ते, प्रशंसा करते, किन्तु स्वयं को गोर्कीवादी, काफ्कावादी या प्रेमचंदवादी न कहते।

फिर भी साहित्य में परस्पर प्रशंसा का भाव प्रबल है, जबकि दर्शन में परस्पर आलोचना का। दर्शन तर्क का जगत् है, अतः हर नए दर्शन के उद्भव में अपने पुरातन दर्शन के प्रति असंतोष प्रमुख कारण होता है।

आलोचना स्वयं में कोई आदर्श नहीं। कहते हैं, जो प्रतिभा सृजन की प्रवृत्ति खो देती है, वह आलोचक बन जाती है। पर दर्शन में तो हर सृजन ही आलोचना की नींव पर खड़ी होती है। वैसे आलोचना और आदर्श दोनों का अर्थ एक है- आलोचना है, लोचन के आगे, आदर्श है, दृष्टि के आगे।

आदर्श बनाम यथार्थ - साहित्य व दर्शन इन्हें अपने-अपने तरीके से देखते और गढ़ते रहे हैं। वैसे तो साहित्यकार और दार्शनिक दोनों यथार्थ से दुःखी रहे हैं और शब्दों-अवधारणाओं के बूते परिकल्पनाएँ करते रहे हैं। किन्तु दोनों में अलग-अलग तरह से जीवन का वृत्तान्त होता। साहित्य में वह दृष्टान्तपरक होता, तो दर्शन में वह सिद्धान्तपरक। साहित्य में भावनाओं की रागात्मकता थी, इसलिए वह कथाओं में बहता, कविताओं में छलकता, नाट्यविधाओं में विचरता। दर्शन अपनी गहनता में गद्यात्मक होता जाता और कई बार तो संक्षिप्त होकर सूत्रात्मक हो जाता।

खैर, गद्य-पद्य तो अभिव्यक्ति की विधाएँ हैं, जो किसी में भी प्रयुक्त हो सकती हैं। दर्शन भी ‘गीता‘ की गेयता में प्रवाहित हो सकता है और साहित्य भी ‘चिन्तामणि‘ के चिन्तन में निबद्ध हो सकता है। अन्तर केवल प्रधानता का है।

‘‘सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्‘‘ यह ग्रीक दार्शनिक प्लेटो के सर्वोच्च शुभ की आदर्श परिकल्पना का संस्कृतानुवाद है। शिवत्व अर्थात् कल्याण का दावा दोनों का है, किन्तु साहित्य का बल ‘सुन्दरम्‘ पर है, दर्शन का ‘सत्यम्‘ पर। ऐसा नहीं है कि साहित्य में असुन्दर और दर्शन में असत्य नहीं है, लेकिन प्रायः साहित्य विद्रूपता को भी अपनी शैली से पठनीय बना देता है और दर्शन सौन्दर्य को भी प्रायः इस रूप में प्रस्तुत करता है कि वैराग्य हो जाए। अरस्तू ने कभी सौन्दर्य शास्त्र के अंतर्गत कहा था- ‘‘कुरूपता भी यदि चित्रित हो जाए, तो वह सुन्दर हो जाती है" कला के लिए उनका यह कथन साहित्य पर भी चरितार्थ हो जाता है।

यहाँ प्रश्न सत्य का नहीं। ब्लेजी पास्कल ने कहा था- ‘‘हृदय के भी अपने सत्य होते हैं, जिनका प्रायः मस्तिष्क को पता नहीं होता।‘‘ निश्चय ही हम साहित्य में प्रदर्शित भावनाओं के सत्य को दर्शन में परिलक्षित बुद्धि के सत्य से कमतर नहीं देख सकते, कम से कम व्यवहार के धरातल पर तो बिल्कुल नहीं, क्योंकि वहाँ दोनों के ही सत्य को झुठला दिए जाने की समान संभावना है।

प्रश्न सौन्दर्य या आनंद का भी नहीं है। क्योंकि यहाँ सत्य की सी वस्तुनिष्ठता है ही नहीं। कहते है, “सौन्दर्य दृश्य में नहीं, दृष्टि में होता है (Beauty lies in the eyes of beholder)" बड़ी सीमा तक चरितार्थ होता ही है। कबीर या शंकर ने इस जगत् के सौन्दर्य की कदाचित् निन्दा भी की, तो शायद कारण यह था कि उन्होंने इस जगत् से परे के जगत् का बेहतर सौंदर्य देख लिया था। हम इसके विपरीत भी कह सकते हैं। संभव है, सांख्य में कपिल प्रकृति का वह रूप देख ही न पाए हों, जो कालिदास ने शाकुंतल में देख लिया हो।
वास्तविक प्रश्न ‘शिवत्व‘ का है। साहित्य का दावा है कि वह पूर्णतः ‘जगद्धिताय‘ है, क्योंकि वह ‘हित‘ शब्द से ही बना है। दर्शन का मानना है कि उसके पास ही सच्ची आखें हैं और उसके आगे साहित्य में तो बस तोतली बातें हैं।‘‘

प्लेटो तत्कालीन साहित्य से इतने खिन्न थे कि उन्होंने अपने आदर्श राज्य से साहित्यकारों को बाहर रखने का बीड़ा उठा लिया। कुरान मजीद में कहा गया है- ‘‘शायरों की पैरवी गुमराह लोग किया करते हैं। क्या तुमने देखा नहीं है कि वे हर वादी में सिर मारते रहते हैं।‘‘ (सूरा-26, आयत-224/224) साहित्य की कल्पना और बस कल्पना से दुःखी फ्रेडरिक नीत्शे ने साहित्यकारों को मक्कार मान लिया। विल्हेल्म गोटफ्रित्ज हीगेल ने भविष्यवाणी की थी कि मानव का चिन्तन जिस द्वंद्वात्मक विरोध के रास्ते से गुजरता है, उसमें साहित्य का छूटना और मिटना तय है, क्योंकि वह तार्किकता में न तो दर्शन को छू सकता है और न ही तथ्यात्मकता में विज्ञान को। कल्पनाओं, कथाओं और कविताओं की साहित्यिक जरूरत उनकी दृष्टि में ‘क‘ से ‘कबूतर‘ पढ़ने जैसी थी।

क्या सचमुच समाज में बढ़ती तथ्यात्मकता व तार्किकता साहित्य के लिए संकट है? अरस्तू ने मनुष्य की परिभाषा एक सामाजिक व तार्किक प्राणी के रूप में दी थी और ढाई हजार वर्षों से हम उसे ऐसा मानते भी आ रहे हैं। मगर सिग्मंड फ्रायड ने कहा था- ‘‘मनुष्य एक मिथ्या तार्किक प्राणी है। वह कार्य तो अपनी मूल वृत्ति व भावना के अनुरूप ही करता है, बस तर्क से उन्हें सही ठहराता रहता है।‘‘

तर्क पर प्रायः भावनाएँ हावी होती रही हैं। समाज वचन को तर्क के दुहराता रहा है, मगर आचरण में भावनाओं को ही अपनाता रहा है। इसीलिए अगर हम प्लेटो, हीगेल व नीत्शे के सुर में सुर मिला भी लें, तब भी साहित्य की भूमिका को अनदेखा नहीं कर सकते हैं। ऐसा लगता है, मनुष्य की तार्किकता साहित्य को जीने नहीं देगी और उसकी भावनात्मकता साहित्य को मरने भी नहीं देगी।

साहित्य समाज का दर्पण है” - यह उक्ति आधुनिक काल में बहुशः दुहराई गई है। मगर यह अर्द्धसत्य है। साहित्य इतिहास की तरह घटनाओं के यथातथ्य वर्णन में रुचि नहीं लेता, अन्यथा वह बस समाचार पत्र बन कर रह जाता और हर बीते दिन के साथ बिसरा दिया जाता। “साहित्यदर्पण” ग्रन्थ लिखने वाले विश्वनाथ को भी शायद साहित्य के दर्पण होने का विश्वास नहीं था, अन्यथा वे रस की बजाय यथार्थ को साहित्य का मानदण्ड मानते।

दर्पण भी पूरा सच कहाँ बताता है। वह दाएँ को बाएँ करके दिखाता है, गति को दुगुनी करके बताता है और आकृति बदल जाए, तो शक्ल भी बदलकर दिखाता है।

दर्पण तथागत है, वह वर्तमान में जीता है। दृश्य बदलने के साथ सारा परिदृश्य भी बदल जाता है। वर्तमान मात्र पर जीने वाला साहित्य दीर्घजीवी नहीं हो सकता दर्पण का आदर्श उसे दर्पण की तरह क्षणभंगुर भी बना देता है।

लेकिन वही साहित्य यदि गहरे तक उतर जाए, तो वह “दर्पण“ से “दर्शन“ बन जाता है। उसमें वर्तमान का यथार्थ तो होता है, किन्तु भविष्य का आदर्श भी होता है। तब उसके पास तरल आँसू ही नहीं होते, बल्कि तीसरी आँख भी होती है। वह वर्तमान विद्रूपताओं के विरुद्ध विषवमन तो करता है, किन्तु उनके निदान के लिए अमृतमंथन का उपक्रम भी जारी रखता है।

परन्तु क्या दर्शन ने ऐसे किसी अमृत को तलाश लिया है? कार्ल मार्क्स ने अपने पूर्ववर्ती दर्शन की आलोचना करते हुए कहा था -“दर्शन ने अब तक तो संसार की व्याख्या भर की है, लेकिन असली सवाल तो संसार को बदलने का है।"

बदलाव के लिए आँसू पर्याप्त नहीं होते। पसीना बहाने से वक्त बदलता है, मगर उसमें पहले पीढ़ियाँ बदल जाती हैं। तब शायद बदलाव को खून की जरूरत पड़े। फ्रेडरिक नीत्शे ने कहा था-“अब तक जो कुछ कहा गया है, उसमें मुझे बस वह प्रिय है, जो रक्त से लिखा गया है, क्योंकि ऐसे अक्षर कागज से पहले कलेजे में उतारे जाते हैं।“

सुकरात को जहर मिला, जीसस को सूली मिली, ब्रूनो को जिन्दा जलाया गया, टॉमस मोर की गर्दन गिलोटिन पर रखी गई, अल-हिल्लाज-मंसूर को कतरों में कत्ल किया गया और ऐसी जाने कितनी बानगियाँ है। दर्शन की राह पर चलने वाले साहित्यकारों ने भी कम नहीं सहा है। जहर के प्याले मीरा ने भी पिये। खलील जिब्रान को भी देशनिकाला मिला। तस्लीमा नसरीन को भी फतवे का सामना करना पड़ा।

साहित्यकार का सरोकार समाज से ज्यादा है और दर्शन का धर्म से। स्वाभाविक है कि साहित्यकार भी जब धर्म के क्षेत्र में अपने विचार रखता है, तब उसे उसी खतरे से रूबरू होना पड़ता है, जिससे प्रायः दार्शनिकों का वास्ता पड़ता रहा है। साहित्य के लिए सामाजिकता ही धर्म है और रोचक है कि धर्म की दुनिया में भी दर्शन से अधिक साहित्यकार प्रभावी होते रहे हैं, क्योंकि धर्म के प्राधिकारी प्रायः सामाजिक व्यक्ति होते हैं और उसके द्वार पर दस्तक देने वाले भी प्रायः सामाजिक अपेक्षाओं को लेकर ही आते रहे हैं।

दर्शन कई मायनों में असामाजिक रहा है और सामाजिक अर्थों में प्रायः अधार्मिक भी रहा है। साहित्य की तरह वह भी कल्पनाएँ गढ़ता है, किन्तु उसकी कल्पनाएँ सृष्टिपरक कम, दृष्टिपरक अधिक होती है। साहित्य पात्रों और चरित्रों से अपनी बातें रखवाता है, दार्शनिक स्वयं को ही पात्र व चरित्र बना देता है। साहित्यकार की मूल आकांक्षा है कि वह समाज का निदर्शक बन जाए, जबकि दार्शनिक की मूल आकांक्षा है कि वह समाज का निर्देशक बन जाए।

पर समाज भावनाओं के भरोसे ही नहीं चलता, अन्यथा साहित्य धर्मग्रन्थ की तरह पूज्य हो जाता। समाज तर्क के आधार पर भी नहीं चलता, अन्यथा दार्शनिक देवता की तरह श्रद्धेय हो जाते। जितनी दूरी तक समाज अपनी मूलवृत्ति से चलता है, उतनी दूर तक कामपरक साहित्य व अर्थपरक दर्शन के आगे परम्परागत कालजयी साहित्य व दर्शन दोनों को हाशिये पर खड़ा रहना ही पड़ता है। अखबारों में सुर्खियाँ बटोरने वाला साहित्य अखबारों की खबर की तरह की श्रमजीवी होने को अभिशप्त है। शक्तिमता और अर्थसंपन्नता के दर्शन को अपनाने वाले समाज के समक्ष प्रबन्धन गुरुओं की तूती बोलती तो है, मगर उसे भी शीघ्र नक्कारखाने की तूती बनकर तिरोहित होना ही पड़ता है।

परंपरा के असफल हो चुकने के अपने साक्ष्य है और आधुनिकता के भी असफल हो जाने की अपनी भविष्यवाणियाँ है। कभी हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘पुनर्नवा’ का उपाख्यान करते हुए ठीक ही कहा था कि अगर विचार के साथ व्यवस्थाएँ नहीं बदली तो अंततः व्यवस्थाएँ तो बदलेंगी ही, अपने साथ समाज को भी तोड़ देंगी।

माना जाता है कि समय के साथ दर्शन उतना दृष्टिहीन नहीं हुआ है, जितना कि साहित्य सतही हो गया है। बकौल जॉन गेटे “साहित्यकार अपनी स्याही में पानी कुछ ज्यादा ही मिलाने लगे हैं।" कागज और कलेवर में चमक आ गई है, मगर अक्षर फीके पड़ने लगे हैं।
कारण क्या है? नए साहित्यकार कहते हैं-“गहरा साहित्य कोई पढ़ना नहीं चाहता।“ पुराने साहित्यकार कहते हैं-“साहित्यकार स्वयं भी कुछ पढ़ना नहीं चाहता।“ जॉर्ज लिचेनबेरी ने ठीक ही कहा था, “साहित्य की रोचक विडम्बना है। इसके मुद्रण का कार्य वे करते हैं, जो इसे नहीं पढ़ते। इसके प्रकाशन व विक्रय का कार्य वे करते हैं, जो इसे नहीं पढ़ते और अब इसके लेखन का भी कार्य वे करते हैं, जो इसे नहीं पढ़ते।“

साहित्यकार अब सार्थक पाठक नहीं रहा, इसलिए वह सार्थक लेखक भी नहीं रहा। इमर्सन ने ठीक ही कहा था- “जिसके लिखने में कोई अध्ययन और प्रयत्न नहीं किया जाता, उसके पढ़ने में भी आनंद नहीं पाया जा सकता।“

युग के साथ युगधर्म भी बदलता है। समाचार पत्र ही आज प्रातः का साहित्य है और दूरदर्शन ही आज का निशा-दर्शन। हम फेसबुक पर अध्ययन के और गूगल पर अन्वेषण के अभ्यस्त हो चुके हैं। जिन्हें कल ‘क्लासिक’ का दर्जा दिया जाता था, वे ‘क्लास’ और ‘शेल्फ’ दोनों से विलुप्त हो चुकी हैं। क्लासिक के लिए मार्क ट्वेन ने कभी कहा था-“यह वह साहित्य है, जिसे रखना तो सब चाहते हैं, लेकिन पढ़ना कोई नहीं चाहता।“

साहित्य के लिए यह संकट नया है, परन्तु यह संकट परंपरागत साहित्य के लिए ही है। हैरी पॉटर की जादुई किताब करोड़ों में बिक कर अरबों का लाभ दे जाती है, जबकि ‘‘दास कैपिटल’’ और ‘‘दस स्पोक जस्थुस्त्रा’’ को प्रकाशन के समय सौ पाठक भी नहीं मिल पाते।

साहित्य के क्षेत्र में गहरे पाठकों का अभाव अब हुआ है, किन्तु दर्शन के क्षेत्र में यह अभाव शाश्वत रहा है। जो दार्शनिक प्रकृति का साहित्य लोकप्रिय था, वह भी जन सामान्य में ‘पाठ’ का विषय अधिक था, ‘‘अध्ययन’’ के विषय कम। वैसे श्वेत हंसों के लाए फल हरित शुकों को मधुर प्रतीत होने लगे, इसमें कुछ अन्यथा भी नहीं है, क्योंकि मानव जगत् में शुकदेव मुनि भी परमहंस ऋषियों से कमतर नहीं होते। पुराणों में, धार्मिक महाकाव्यों में साहित्य से कमतर दर्शन निःसृत नहीं होता और प्रायः दार्शनिक सूत्रों और आध्यात्मिक मंत्रों से अधिक ही प्रभावी होता है।

सच कहूँ, तो यहीं से दर्शन और साहित्य के मध्य सुन्दर संतुलन सूत्र मिलता है । सर्वश्रेष्ठ साहित्य वह है, जो अपने भीतर सुंदरतम दर्शन समाहित किए हुए हो और सुंदरतम दर्शन वह है, जो साहित्य का स्तर प्राप्त कर ले। साहित्य में दर्शन की आँख हो और दर्शन में साहित्य के पर, तो शायद यह मणिकांचन संयोग हो। अंत में एक दार्शनिक अरस्तू के शब्दों में ‘‘साहित्य कई बार इतिहास की तुलना में अधिक परिष्कृत और दार्शनिक होता है, क्योंकि इतिहास जहाँ कुछ विशिष्टों तक सीमित रह जाता है, वहीं साहित्य सार्वभौम बन जाता है।‘‘

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