"जाति, धर्म और राष्ट्र : खटकते मसले, भटकते फैसले"
मौसम खुशनुमा है और
माहौल खुशनुमा नहीं.
हर कुछ रोज में कुछ दंगे-पंगे हो जाते हैं,
कभी राष्ट्र के लिए, कभी धर्म के किये.
कभी जाति के लाभ के लिए, कभी जाति के अपमान के लिए.
वर्तमान परिदृश्य में
धर्म और राष्ट्र चर्चा में हैं,
अब जाति भी आ गई है.
माहौल खुशनुमा नहीं.
हर कुछ रोज में कुछ दंगे-पंगे हो जाते हैं,
कभी राष्ट्र के लिए, कभी धर्म के किये.
कभी जाति के लाभ के लिए, कभी जाति के अपमान के लिए.
वर्तमान परिदृश्य में
धर्म और राष्ट्र चर्चा में हैं,
अब जाति भी आ गई है.
भारत उस संसार में रहता है,
जहाँ धर्म छोड़े जा सकते हैं,
जाति नहीं छोड़ी जा सकती.
कानून इसकी इजाज़त नहीं देता
और वह इसलिए कि जाति नहीं होगी,
तो आरक्षण कैसे दिये जायेंगे.
जहाँ धर्म छोड़े जा सकते हैं,
जाति नहीं छोड़ी जा सकती.
कानून इसकी इजाज़त नहीं देता
और वह इसलिए कि जाति नहीं होगी,
तो आरक्षण कैसे दिये जायेंगे.
आज जिस व्यवस्था के लिए किसी धर्म या ग्रंथ को कोसते हैं,
अक्सर उसके परिष्कार के लिए वही व्यवस्था विपरीत रूप में अपनाई जा रही होती है.
बीते कल का मूल्यांकन सदा वर्तमान से नहीं हो सकता,
क्या आनेवाले कल का कोई मूल्यांकन आज करेगा कि
एक आवश्यकता से जन्मी यह आरक्षण व्यवस्था कैसे नव वर्ण व्यवस्था का रूप लेती गई,
अपने ही आरक्षण वर्ग की हर उच्च जाति कैसे निम्नक्रम के लिए रास्ते बंद करती गई.
एक ऐसा चक्र, जिसका कोई रिवर्सल नहीं.
और यहाँ तक कि स्वयं सर्वोच्च सेवा में चयनित सदस्य भी अपने परिवार को इसका लाभ न देने के लिए तैयार नहीं.
अपने पुनरीक्षण को सहमत नहीं.
अक्सर उसके परिष्कार के लिए वही व्यवस्था विपरीत रूप में अपनाई जा रही होती है.
बीते कल का मूल्यांकन सदा वर्तमान से नहीं हो सकता,
क्या आनेवाले कल का कोई मूल्यांकन आज करेगा कि
एक आवश्यकता से जन्मी यह आरक्षण व्यवस्था कैसे नव वर्ण व्यवस्था का रूप लेती गई,
अपने ही आरक्षण वर्ग की हर उच्च जाति कैसे निम्नक्रम के लिए रास्ते बंद करती गई.
एक ऐसा चक्र, जिसका कोई रिवर्सल नहीं.
और यहाँ तक कि स्वयं सर्वोच्च सेवा में चयनित सदस्य भी अपने परिवार को इसका लाभ न देने के लिए तैयार नहीं.
अपने पुनरीक्षण को सहमत नहीं.
इतिहास के अपने बर्बर नियम हैं,
कभी ऊपरी क्रम से आहत हुई जाति
अपने ऊपर आने पर अपने नीचले क्रम के लिए
कमोबेश वही तरीके अपनाती है,
जो कभी उससे ऊपर वाली अपनाती आई थी.
इसलिए इस व्यवस्था में यह विचार भी नहीं किया जाता कि
जो आरक्षण का अपात्र है,
वह लाभ लेकर अनारक्षित के लिए संकट बाद में खड़ा करेगा,
अपने ही साधनविहीन वर्ग के लिए संकट पहले खड़ा करेगा.
कभी ऊपरी क्रम से आहत हुई जाति
अपने ऊपर आने पर अपने नीचले क्रम के लिए
कमोबेश वही तरीके अपनाती है,
जो कभी उससे ऊपर वाली अपनाती आई थी.
इसलिए इस व्यवस्था में यह विचार भी नहीं किया जाता कि
जो आरक्षण का अपात्र है,
वह लाभ लेकर अनारक्षित के लिए संकट बाद में खड़ा करेगा,
अपने ही साधनविहीन वर्ग के लिए संकट पहले खड़ा करेगा.
रोटी और बेटी के साथ जन्मी जाति व्यवस्था
बेटी से तो ऊपर उठ जाएगी,
पर मक्खन लगी रोटी के आदी हो चुके तबके को
दूसरे वंचितों को भी रोटी मिलने की संवेदना दे पाएगी,
यह संदिग्ध है.
बेटी से तो ऊपर उठ जाएगी,
पर मक्खन लगी रोटी के आदी हो चुके तबके को
दूसरे वंचितों को भी रोटी मिलने की संवेदना दे पाएगी,
यह संदिग्ध है.
और अब धर्म.
एक खबर है-
नौ देशों में धर्म व्यक्तिगत स्तर पर लगभग समापन की ओर है-
Australia, Austria, Canada, Finland, Ireland, the Netherlands, New Zealand, Switzerland and the Czech Republic.
यहाँ उनकी महत्ता और जरूरतें लगभग नहीं सी रह गई हैं.
एक खबर है-
नौ देशों में धर्म व्यक्तिगत स्तर पर लगभग समापन की ओर है-
Australia, Austria, Canada, Finland, Ireland, the Netherlands, New Zealand, Switzerland and the Czech Republic.
यहाँ उनकी महत्ता और जरूरतें लगभग नहीं सी रह गई हैं.
यह खबर तब आई है,
जब मध्य एशिया से बर्बरता के चरम झंडाबरदार
व
दक्षिण एशिया से धर्म के गेरुए पहरुए जागे हुए हैं.
एक प्रतिदिन जघन्यता की नजरें पेश कर रहा है,
दूसरे सहिष्णुता सिद्ध करने में असहिष्णु हुए जा रहे हैं.
जब मध्य एशिया से बर्बरता के चरम झंडाबरदार
व
दक्षिण एशिया से धर्म के गेरुए पहरुए जागे हुए हैं.
एक प्रतिदिन जघन्यता की नजरें पेश कर रहा है,
दूसरे सहिष्णुता सिद्ध करने में असहिष्णु हुए जा रहे हैं.
ऐसा लगने लगा है कि
जमीनी दुनिया पर आसमानी किताबें भारी पड़ने लगी हैं,
वह भी तब, जब विज्ञान व मानवता के युग के द्वारा
अंधयुग को छोड़े सदियाँ गुजर गई हैं.
जमीनी दुनिया पर आसमानी किताबें भारी पड़ने लगी हैं,
वह भी तब, जब विज्ञान व मानवता के युग के द्वारा
अंधयुग को छोड़े सदियाँ गुजर गई हैं.
धर्म किसी और लोक के नाम पर
इस लोक में लड़ा जाने वाला युद्ध बनकर रह गया है,
और सच तो यह है कि
धर्म के लगभग तीन चौथाई रास्ते आपको
तह से अँगुल भर भी ऊपर नहीं उठाते
और
लगभग एक चौथाई रास्ते नरक की तरफ ही ले जाते हैं.
स्वर्ग के लिए धर्म नहीं, धार्मिकता चाहिए.
और
सच कहें तो धार्मिकता नहीं, आध्यात्मिकता चाहिए.
इस लोक में लड़ा जाने वाला युद्ध बनकर रह गया है,
और सच तो यह है कि
धर्म के लगभग तीन चौथाई रास्ते आपको
तह से अँगुल भर भी ऊपर नहीं उठाते
और
लगभग एक चौथाई रास्ते नरक की तरफ ही ले जाते हैं.
स्वर्ग के लिए धर्म नहीं, धार्मिकता चाहिए.
और
सच कहें तो धार्मिकता नहीं, आध्यात्मिकता चाहिए.
समस्त धर्म दिव्य स्रोत से उत्पन्न माने जाते हैं,
परंतु किसी भी धर्म के ग्रंथ की एक भी पंक्ति ऐसी नहीं मिली,
जिसे बहुत सामान्य व्यक्ति बहुत सहज बुद्धि से नहीं सोच सकता
और जरा तल्ख़ होकर कहें,
तो यदि वह सहज बुद्धि से ही जरा गहरे सोचे,
तो उनसे बेहतर नहीं सोच सकता.
परंतु किसी भी धर्म के ग्रंथ की एक भी पंक्ति ऐसी नहीं मिली,
जिसे बहुत सामान्य व्यक्ति बहुत सहज बुद्धि से नहीं सोच सकता
और जरा तल्ख़ होकर कहें,
तो यदि वह सहज बुद्धि से ही जरा गहरे सोचे,
तो उनसे बेहतर नहीं सोच सकता.
संभव है कि
धर्मनुयायियों ने जो रंग चढ़ाए हैं,
उनमें धर्म के जो मूल रंग हैं,
उससे सर्वथा भिन्न हों,
परंतु कोई बहुत रास्ता नहीं कि
व्यक्ति को उसकी संस्कृति से
और
संस्कृति को उसके व्यक्तियों से अलग देखा जा सके.
धर्मनुयायियों ने जो रंग चढ़ाए हैं,
उनमें धर्म के जो मूल रंग हैं,
उससे सर्वथा भिन्न हों,
परंतु कोई बहुत रास्ता नहीं कि
व्यक्ति को उसकी संस्कृति से
और
संस्कृति को उसके व्यक्तियों से अलग देखा जा सके.
अत: जीवन और जगत् से परे तक की आशा जगाने वाले
धर्म से गहरी निराशा जन्मी है
और
बर्बर रहे या हो रहे धर्म के लिए सनी देओली ज़ुबान में कहें, तो
ये ढाई अक्षर का धर्म जब किसी पर पड़ता है,
आदमी उठता नहीं, बस गिरता चला जाता है.
धर्म से गहरी निराशा जन्मी है
और
बर्बर रहे या हो रहे धर्म के लिए सनी देओली ज़ुबान में कहें, तो
ये ढाई अक्षर का धर्म जब किसी पर पड़ता है,
आदमी उठता नहीं, बस गिरता चला जाता है.
युगधर्म की बात करते करते लगता है कि धर्मयुग में आ गए हैं,
भविष्य से वर्तमान नहीं, अपितु मध्यकाल टकराने लगा है.
वर्तमान अपने भविष्य के प्रति आशंकित सदा रहता आया है,
परंतु वह सदा इतना आतंकित रहा हो,
यह जरूरी नहीं.
भविष्य से वर्तमान नहीं, अपितु मध्यकाल टकराने लगा है.
वर्तमान अपने भविष्य के प्रति आशंकित सदा रहता आया है,
परंतु वह सदा इतना आतंकित रहा हो,
यह जरूरी नहीं.
धर्म की विडंबना है कि
धर्म में हम जितने शुद्धतावादी होते जाते हैं,
उतने ही कम संशोधनवादी रह जाते हैं.
जितने अधिक धर्म के विधानों के पथिक बनते जाते हैं,
उतने अधिक पुरातनता के समर्थक बनते जाते हैं.
धर्म में हम जितने शुद्धतावादी होते जाते हैं,
उतने ही कम संशोधनवादी रह जाते हैं.
जितने अधिक धर्म के विधानों के पथिक बनते जाते हैं,
उतने अधिक पुरातनता के समर्थक बनते जाते हैं.
उदार से उदार धर्म भी अंतस् में बहुतेरी संकीर्णताएँ लिए होता है,
कोई धर्म कितना उदार है,
बस एक बार आलोचना कर देख लें.
धर्म अपनी आलोचना नहीं सह सकता और
इसलिए वह सदा गर्हित ही होते जाने को अभिशप्त है.
कोई धर्म कितना उदार है,
बस एक बार आलोचना कर देख लें.
धर्म अपनी आलोचना नहीं सह सकता और
इसलिए वह सदा गर्हित ही होते जाने को अभिशप्त है.
हर धर्म क्षमा को महत्व देता है,
सिवाय स्वयं की आलोचना के,
जैसे ही उसकी एक विधि या पंक्ति पर आपत्ति उठाते हैं,
वह सारी क्षमाशीलता भूल मृत्युदाता बनने को उत्सुक हुआ जाता है.
सिवाय स्वयं की आलोचना के,
जैसे ही उसकी एक विधि या पंक्ति पर आपत्ति उठाते हैं,
वह सारी क्षमाशीलता भूल मृत्युदाता बनने को उत्सुक हुआ जाता है.
कहते हैं, धर्म गूँगे का गुड़ है,
पर अब वह अंधे की रेवड़ी बनता जा रहा है.
संसार में सबसे सरल है-
धर्म में अंधा होना
और
धर्म का धंधा होना.
पर अब वह अंधे की रेवड़ी बनता जा रहा है.
संसार में सबसे सरल है-
धर्म में अंधा होना
और
धर्म का धंधा होना.
धर्म बहुत बड़ी सीमा तक धंधा है,
वह पहले गोरखधंधा ज्यादा करता था,
अब शुद्धता के धंधे में उतर गया है-
प्योर, हर्बल, नेचुरल, ऑर्गेनिक.
वह पहले गोरखधंधा ज्यादा करता था,
अब शुद्धता के धंधे में उतर गया है-
प्योर, हर्बल, नेचुरल, ऑर्गेनिक.
यह बुरा नहीं, मगर एक बार धर्म का व्यवसाय से जुड़ना,
कालांतर में वही रंग लेगा, जो उसे राजनीति से जुड़ने से मिला है.
कालांतर में वही रंग लेगा, जो उसे राजनीति से जुड़ने से मिला है.
जातिप्रधान व धर्मप्राण भारत का एक सत्य और है,
यहाँ जाति के रंग से राजनीति
और
राजनीति के रंगों से धर्म को देखा जाता रहा है.
और इसी का दूसरा सिरा है कि
लगभग हर समाज की गहरी विडंबनाओं की तरह
व्यक्ति के धर्म से राष्ट्र का प्रेम आकलित किया जाता है.
परीक्षाओं व प्रहारों से आहत होकर दूसरे पक्ष का बड़ा वर्ग
सचमुच वही धारा बेहतर पाने लगता है,
जिसके कि आरोप लग रहे थे.
यहाँ जाति के रंग से राजनीति
और
राजनीति के रंगों से धर्म को देखा जाता रहा है.
और इसी का दूसरा सिरा है कि
लगभग हर समाज की गहरी विडंबनाओं की तरह
व्यक्ति के धर्म से राष्ट्र का प्रेम आकलित किया जाता है.
परीक्षाओं व प्रहारों से आहत होकर दूसरे पक्ष का बड़ा वर्ग
सचमुच वही धारा बेहतर पाने लगता है,
जिसके कि आरोप लग रहे थे.
काश कोई ऐसी दुनिया हो,
जहाँ धर्म बस अंतस् के लिए हो
और
राजनीति बस विकास के लिए.
जहाँ धर्म बस अंतस् के लिए हो
और
राजनीति बस विकास के लिए.
इसी क्रम में अब राष्ट्र.
मार्क्स ने कहा था-
राष्ट्र एक बुर्जुआ अवधारणा है
और
मजदूरों का कोई राष्ट्र नहीं होता.
मार्क्स ने कहा था-
राष्ट्र एक बुर्जुआ अवधारणा है
और
मजदूरों का कोई राष्ट्र नहीं होता.
मैं सबसे ज्यादा सहमत हूँ,
परंतु जाति की तरह ही देश भी एक तथ्य है,
और दोनों का दर्द उसमें रहनेवाले को पता चलता है.
पर कर्तव्यों की दुहाई देने वाली दुनिया
जब दायित्वों की बानगी नहीं दे पाती,
तो स्पष्ट है कि उस दुनिया के बारे में बोलने वाले बहुत हों तो हों,
उस दुनिया के लिए कुछ करने वाले बहुत कम हैं.
परंतु जाति की तरह ही देश भी एक तथ्य है,
और दोनों का दर्द उसमें रहनेवाले को पता चलता है.
पर कर्तव्यों की दुहाई देने वाली दुनिया
जब दायित्वों की बानगी नहीं दे पाती,
तो स्पष्ट है कि उस दुनिया के बारे में बोलने वाले बहुत हों तो हों,
उस दुनिया के लिए कुछ करने वाले बहुत कम हैं.
इसलिए जरूरत है कि हम धिक्कार की बजाय
परिष्कार की भाषा में बात करें.
स्वयं के प्रति आत्मश्लाघा इतनी न हो कि
समाज, देश, दुनिया सब गौण नजर आने लगें.
गदर फिल्म में नायक को पाकिस्तान में गिरफ्तार कर लिया जाता है
और
पाकिस्तान जिंदाबाद कहने को कहा जाता है,
वह दुहरा देता है,
पर फिर उसे हिंदुस्तान मुर्दाबाद कहने को कहा जाता है,
वह इनकार कर देता है,
और वह कहता है,
पाकिस्तान जिंदाबाद कहने से हिंदुस्तान मुर्दाबाद कहना कहाँ जरूरी हो जाता है,
परंतु हमारे विश्लेषकों ने साधारण नायक जितना विवेक भी खो दिया है.
परिष्कार की भाषा में बात करें.
स्वयं के प्रति आत्मश्लाघा इतनी न हो कि
समाज, देश, दुनिया सब गौण नजर आने लगें.
गदर फिल्म में नायक को पाकिस्तान में गिरफ्तार कर लिया जाता है
और
पाकिस्तान जिंदाबाद कहने को कहा जाता है,
वह दुहरा देता है,
पर फिर उसे हिंदुस्तान मुर्दाबाद कहने को कहा जाता है,
वह इनकार कर देता है,
और वह कहता है,
पाकिस्तान जिंदाबाद कहने से हिंदुस्तान मुर्दाबाद कहना कहाँ जरूरी हो जाता है,
परंतु हमारे विश्लेषकों ने साधारण नायक जितना विवेक भी खो दिया है.
और दुःख कुछ राजनीतिज्ञों या बहुत उपद्रवियों से अधिक कई बार
प्रबुद्घों की क्षमता पर होता है,
मीडिया हो या सोशल मीडिया,
लोग मूढ़ों की प्रतिक्रिया में मूढ़ हुए जा रहे हैं.
प्रबुद्घों की क्षमता पर होता है,
मीडिया हो या सोशल मीडिया,
लोग मूढ़ों की प्रतिक्रिया में मूढ़ हुए जा रहे हैं.
प्रतिक्रिया का एक दुष्परिणाम होता है कि
वह प्राय: शीर्षासन की गलत दिशा में चली जाती है.
जिसके विरोध में जो खड़ा हो, हो,
पर जो बुद्धिजीवी वर्ग है,
विपक्ष के लिए तर्क के बिल्कुल दूसरे सिरे पर पहुँचा जा रहा है.
और यह मूढ़ों की मूढ़ता को और प्रश्रय ही देगा.
वह प्राय: शीर्षासन की गलत दिशा में चली जाती है.
जिसके विरोध में जो खड़ा हो, हो,
पर जो बुद्धिजीवी वर्ग है,
विपक्ष के लिए तर्क के बिल्कुल दूसरे सिरे पर पहुँचा जा रहा है.
और यह मूढ़ों की मूढ़ता को और प्रश्रय ही देगा.
बहुत दुःखद है कि
मूढ़ तो बहुधा असंतुलित रहे हैं,
बुद्धिजीवी भी असंतुलित हो चुके हैं.
हम लगभग, जाति, वर्ग व धर्म देखकर
उसके विचारों का स्पष्ट अनुमान लगा सकते हैं,
हर पोस्ट को पढ़ने से पहले
उनकी ध्रुवीयता को भाँप सकते हैं.
फिर काहे की विचारों की वस्तुनिष्ठता,
काहे का विचारगत संतुलन?
मूढ़ तो बहुधा असंतुलित रहे हैं,
बुद्धिजीवी भी असंतुलित हो चुके हैं.
हम लगभग, जाति, वर्ग व धर्म देखकर
उसके विचारों का स्पष्ट अनुमान लगा सकते हैं,
हर पोस्ट को पढ़ने से पहले
उनकी ध्रुवीयता को भाँप सकते हैं.
फिर काहे की विचारों की वस्तुनिष्ठता,
काहे का विचारगत संतुलन?
वामपंथी हों या दक्षिणपंथी,
अपने सबसे आवश्यक समय में वे अपने दायित्व निभाने अधिकांशतः असफल रहे हैं,
भारत का स्वतंत्रता संग्राम स्वयं इसका सर्वश्रेष्ठ दृष्टांत है.
अपने सबसे आवश्यक समय में वे अपने दायित्व निभाने अधिकांशतः असफल रहे हैं,
भारत का स्वतंत्रता संग्राम स्वयं इसका सर्वश्रेष्ठ दृष्टांत है.
भूगोल में एक कोरियोलिस इफेक्ट है,
भौतिकी में फेरेल के नियम पर आधारित.
इसमें बताया जाता है कि
सागर का पानी पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में दक्षिणावर्त्त (क्लॉकवाइज)
व
दक्षिणी गोलार्ध में वामावर्त्त (एंटी-क्लॉकवाइज) घूमता है.
और इस चक्रीय गति में वह एक सिरे पर अपनी दाईं जमीन को अपरदित करता है,
तो दूसरे सिरे पर अपनी बाईं जमीन को.
भौतिकी में फेरेल के नियम पर आधारित.
इसमें बताया जाता है कि
सागर का पानी पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में दक्षिणावर्त्त (क्लॉकवाइज)
व
दक्षिणी गोलार्ध में वामावर्त्त (एंटी-क्लॉकवाइज) घूमता है.
और इस चक्रीय गति में वह एक सिरे पर अपनी दाईं जमीन को अपरदित करता है,
तो दूसरे सिरे पर अपनी बाईं जमीन को.
सबके मन ऐसे हो गए हैं,
कुछ की बुद्धिजीविता बिना धर्म, संस्कृति, राष्ट्र के खंडन के बिना पूरी नहीं होती,
कुछ की नैतिकता बिना इनके मंडन के आगे ही नहीं बढ़ती.
कुछ की बुद्धिजीविता बिना धर्म, संस्कृति, राष्ट्र के खंडन के बिना पूरी नहीं होती,
कुछ की नैतिकता बिना इनके मंडन के आगे ही नहीं बढ़ती.
लेखक न वामपंथी है, न दक्षिणपंथी.
वह सबसे गहरे नास्तिकों की तरह "ईश्वर, कुत्ता और आदमी" लिखता है,
सबसे गहरे आस्तिकों की तरह "धर्म की विज्ञानयात्रा" और "धर्म की इतिहासयात्रा" लिखता है,
और
बहुत तटस्थ की तरह "धर्म-दर्शन" लिखता है,
पर किसी ने कभी ध्रुवीयता का आक्षेप नहीं लगाया.
किसी ने उसकी हत्या नहीं की.
लेखक समस्त विश्व की संस्कृतियों का ऋणी है,
और इसके लिए वह सबसे पहले अपने देश, संस्कृति व धर्म का ऋणी है.
वह सबसे गहरे नास्तिकों की तरह "ईश्वर, कुत्ता और आदमी" लिखता है,
सबसे गहरे आस्तिकों की तरह "धर्म की विज्ञानयात्रा" और "धर्म की इतिहासयात्रा" लिखता है,
और
बहुत तटस्थ की तरह "धर्म-दर्शन" लिखता है,
पर किसी ने कभी ध्रुवीयता का आक्षेप नहीं लगाया.
किसी ने उसकी हत्या नहीं की.
लेखक समस्त विश्व की संस्कृतियों का ऋणी है,
और इसके लिए वह सबसे पहले अपने देश, संस्कृति व धर्म का ऋणी है.
कम से कम यहाँ तो वह ऋणी है ही कि
धर्मनिंदा के नाम पर हुई बर्बरता में किसी भी और धर्म या संस्कृति से उज्ज्वल अतीत रखता है.
समाज में जातिप्रथा या सतीप्रथा की निंदा कीजिए,
धर्म में काल्पनिक कथाओं व निरर्थक कर्मकांडों पर प्रहार कीजिए,
पर इसके लिये समस्त अन्य अवदानों की उपेक्षा कीजिए,
यह कहाँ उचित है.
धर्मनिंदा के नाम पर हुई बर्बरता में किसी भी और धर्म या संस्कृति से उज्ज्वल अतीत रखता है.
समाज में जातिप्रथा या सतीप्रथा की निंदा कीजिए,
धर्म में काल्पनिक कथाओं व निरर्थक कर्मकांडों पर प्रहार कीजिए,
पर इसके लिये समस्त अन्य अवदानों की उपेक्षा कीजिए,
यह कहाँ उचित है.
जितना गैर सृजनात्मक मन होगा,
उतना ही विरुद्ध होने भर में बुद्धिजीविता तलाशेगा.
और नहीं भी तो प्रबुद्घ कभी बुद्ध की राह चल
कभी मैत्री के लिए करुणा, मुदिता, उपेक्षा भी तो अपनाएँ.
आज सब हर विषयवस्तु के संरक्षक बने हुए हैं,
और जो आज प्रहरी है, वही कल का योद्धा न बनेगा,
यह कोई आश्वस्त नहीं कर सकता.
इसलिए अक्सर सोचता हूँ,
सबका प्रतिक्रिया देना जरूरी क्यों हो,
तटस्थ होने का अपराध हो तो हो.
उतना ही विरुद्ध होने भर में बुद्धिजीविता तलाशेगा.
और नहीं भी तो प्रबुद्घ कभी बुद्ध की राह चल
कभी मैत्री के लिए करुणा, मुदिता, उपेक्षा भी तो अपनाएँ.
आज सब हर विषयवस्तु के संरक्षक बने हुए हैं,
और जो आज प्रहरी है, वही कल का योद्धा न बनेगा,
यह कोई आश्वस्त नहीं कर सकता.
इसलिए अक्सर सोचता हूँ,
सबका प्रतिक्रिया देना जरूरी क्यों हो,
तटस्थ होने का अपराध हो तो हो.
नई आई फिल्म बदलापुर का अंत बड़ा अप्रत्याशित है,
जो खलनायक है,
वह किसी नायिका की लोभ व आवेश में हत्या कर देता है,
नायक चुनकर बर्बर प्रतिशोध लेता है
और अंत में जब नायक खलनायक के साथ यही करने वाला होता है,
खलनायक कहता है-
हमने तो जो किया, वह मूढ़ता और आवेग में किया,
तुम तो समझदार थे, तुम तो इतने बर्बर होने से पहले सोचते.
जो खलनायक है,
वह किसी नायिका की लोभ व आवेश में हत्या कर देता है,
नायक चुनकर बर्बर प्रतिशोध लेता है
और अंत में जब नायक खलनायक के साथ यही करने वाला होता है,
खलनायक कहता है-
हमने तो जो किया, वह मूढ़ता और आवेग में किया,
तुम तो समझदार थे, तुम तो इतने बर्बर होने से पहले सोचते.
बुद्धिजीवियों तुम भी यही कर रहे हो,
बहुत दीर्घ बातों के साथ दीर्घ विराम.
बहुत दीर्घ बातों के साथ दीर्घ विराम.
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