मंगलवार, 22 मई 2018

अबोली के बोल


अबोली के बोल

माँ!
आज मैं तुम्हें बहुत दूर से आवाज दे रही हूँ. क्या तुम मेरी आवाज पहचान रही हो? शायद नहीं, क्योंकि अभी तो मैंने तोतली भाषा में बोलना भी नहीं सीखा था। अभी तो मैं ठीक से रो भी न पाई थी कि तुमने मेरी साँसें रोक दी। और अब तो मैं बहुत दूर भी जा चुकी हूँ. कल मैं तुम्हारे घर के टिमटिमाते दिये की लौ थी, आज पथरीली जमीन की समाधिविहीन स्मृति बन चुकी हूँ . माँ मुझे फिर भी यकीन हैं कि मेरी बेजुबान आवाज तुझ तक जरूर पहुँच जाएगी, क्योंकि तू अपने आँख के आँसू तो सुखा लेगी, पर अपनी छाती का दूध कैसे सुखा पाएगी।

माँ!
मैं सचमुच ही अबोध हूँ, जो अपनी माँ को ही सीख देने चल पड़ी हूँ। तुमने मुझे जन्म दिया था, फिर भला मैं तेरा ऋण कैसे चुका पाती ? अच्छा हुआ कि तुमने मुझे कर्ज मुक्त कर दिया, वरना तू यही मानती कि नौ महीने रहा पेट का यह भार शायद जिन्दगी भर के लिए दिल का भार बन जाता। पर यकीन करो माँ, मैं तुमसे कभी कुछ नही माँगती। मैं भैया की पुरानी कमीज और तुम्हारी चुनरी के टुकड़े को पहनकर ही बड़ी हो लेती। तेरी ही पायल की रुनझुन को सुनकर मैं खुश हो लेती। छोटे भाई की गेंद को ही अपनी गुड़िया समझ लेती। दुःख यही है माँ कि तूने मुझे मेरे हिस्से के बचपन का इतना भी प्यार नहीं दिया, जो कभी तुमने अपने बचपन में अपनी गुड़िया को दिया था।

माँ!
मैं फिर भी कोई शिकायत नही करती। भूख-प्यास से आकुल और अपनी साँस लेने के लिए व्याकुल जब मैंने पहली बार अपना मुँह खोला था, तभी तुमने मेरी जीभ पर अमल की डली और होठों पर रेत की पोटली रख दी थी। मेरी आवाज सदा के लिए खामोश हो गई। अगले चार सालों तक घर में गूँजने वाली मेरी किलकारियाँ बस चार लम्हों की घुटन और हिचकियों के साथ ही खत्म हो गईं। मैं चीख भी न सकी, पर आज तुझे इतनी सीख तो दे ही देती हूँ माँ कि तू भी कभी मेरी तरह नवजात बच्ची थी और तेरी भी कोई माँ थी, जिसने जन्मते ही तुझे दूध पिलाया था और जरा सा रोते ही गले से लगाया था। मैं तो यही सोचकर दंग रह जाती हूँ कि भला मेरे मुँह पर मुठ्ठी भर रेत रखने के पहले तुझे अपने सीने पर कितना बड़ा पत्थर रखना पड़ा होगा।

माँ!
मेरे जन्म से पहले बड़ी चहल-पहल हुई थी, पर जन्म के बाद जल्द ही वह कानाफूसी और शोर-शराबे में बदल गई। जन्म देने वाली माँ, जन्म दिलाने वाली दाई माँ, गोद में खिलाने वाली दादी माँ, थाली बजाने वाली बड़ी माँ-- सब तो थे। इतनी माँओं के होते हुए भी तेरी बच्ची बच न सकी। मेरे जन्म के साथ ही तू माँ बनी थी, पर सचमुच क्या तू ठीक तरह से माँ बन सकी थी ? मैं जानती हूँ कि तूने कितने ताने सुने थे, कितना तनाव सहा थाः परन्तु इस दबाव में अगर तू एक बार तनकर खड़ी हो गई होती माँ, तो शायद तुझे अपने दूध पर गर्व होता। लेकिन माँ, मैं तुझे दोष देकर फिर पीड़ा नहीं दूँगी, क्योंकि तू अभी-अभी प्रसव पीड़ा से गुजरी है और मुझे बिना पीड़ा के मौत देने की कोशिश की है।

माँ!
मैंने अभी बोलना नहीं सीखा था, पर सुनना बहुत पहले ही सीख लिया था। सुना था कि नानी ने मेरे लिए चाँदी की झारी भेजी थी। दादी ने अपने हाथों से मेरी ‘‘राली‘‘ पर कशीदे किये थे। तुमने खुद मेरे लिए रेशमी ताने-बाने बुने थे। दादाजी ने सुन्दर-सा पालना भी बनवाया था। चलो, ये फिर भी कभी न कभी तो काम आ ही जाएँगे, मेरे काम न आये तो क्या। तब तक इन चीजों के रंगों के साथ मेरी यादें भी धुँधली पड़ चुकी होंगी। ठीक तो यही होगा माँ कि तुम पहले ही शहर जाकर मशीन से पता करा लेना। सुना है कि वे बस चन्द हफ्तों में ही चुपचाप हमें जाँचने व मारने का काम कर लेते है। तब तुम भी मेरे मारने के पाप से बच जाओगी। सुना है, अगर वे पकड़े जायें, तो उन्हें सजा होती है, पर बताओ माँ, इन हजारों सालों में कभी एक भी माँ को सजा हुई क्या?


माँ!
मैं नहीं कहती कि मेरे जाने के बाद ये घर-आँगन सूना हो जाएगा। तुम्हारी गोद फिर भर जाएगी, ये बधाईयाँ फिर बँट जाएँगी। मेरी जुबान पर रखी अमल की कड़वाहट तेरे मुँह में रखे सांधाणे की मिठास से धुल जाएगी। कितना अच्छा होता कि गुड्डे जैसे छोटे भाई को मैं भी अपनी गोद में रख लेती। बड़ा होता, तो रक्षाबंधन पर उसकी कलाई में राखी बाँध देती। भैयादूज पर उसके मुँह में मिठाई रखकर तालियाँ बजाती। उसकी शादी में खूब नाचती-गाती और अपना नेग लेकर ही उसे छोड़ती। पर मेरी किस्मत में मेरी हसरत का पूरा होना न लिखा था। एक विनती है माँ! उसे बड़ा होने पर कभी न बताना कि उसकी कहीं कोई बहन भी थी, वरना तीज-त्यौहार पर अगर वह कभी उदास होगा, तो मेरी आत्मा को शांति न मिल पाएगी।

माँ!
जब सुबह तुम आइने में अपना अक्स देखना या फिर किसी शाम को पापा के साथ अपनी पुरानी सजीली तस्वीर निहारना, तब जरा ठिठक कर सोचना, क्या कुछ ऐसे ही नैन-नक्श तुम्हारी बिटिया में नहीं थे। अभी तो मेरे गोल चेहरे में बस दो पतले होंठ और चार पलकें ही खुल पाती थीं, फिर भी उनमें साफ नजर आता था कि वे तुम्हारी ही आँखें हैं और जी सा की ही नाक। नींद में सोने का बहाना किए मैं मन ही मन कितना मुसकाती, जब जी सा तुमसे लड़ते कि मैं तुम पर नहीं उन पर गई हूँ, पर न उन्होंने अपनी छवि का ध्यान रखा, न तुमने अपनी छाया का। माँ तुम्हारी परछाईं तो आज अँधेरों में खो गई, पर न जाने जिंदगी की धूप में कब फिर वह तुम्हारे पीछे खड़ी हो जाए, तब तुम मुझे अपना चेहरा कैसे दिखा पाओगी?


माँ!
लौटते समय मेरे भगवान ने मुझसे पूछा था -‘‘क्या तुम दुःखी हो ?" मुझे दुःख तो था, पर अपने मरने का नहीं था, बल्कि इस बात का था कि मुझे मारने वाली मेरी ही माँ थी। लेकिन सच मानो माँ, मैं हँसकर बात छिपा गई, वर्ना भला वे क्या सोचते ? मैं भोली भी बड़ी बड़बोली हूँ माँ! तुम मेरी इस पाती को जल्दी से छिपा देना, अन्यथा दुनिया की दूसरी माताएँ बेवजह ही हमेशा के लिए दागदार हो जाएँगी।

माँ!
कहते हैं माता कभी कुमाता नहीं होती, परन्तु आज तेरी बच्ची यह कहती है कि माता कुमाता हो भी जाए, तो कन्या कभी कुकन्या नहीं होती। आशीर्वाद लेने की उम्र में भी वह तुझे शुभकामना देती रहेगी। यह कुछ गलत भी नहीं है, क्योंकि परम्परा सदा से हमें पूज्य मानती रही है। दुर्गा से लेकर संतोषी माता तक की कथाएँ याद कर लेना, नवरात्र के व्रत रख लेना, मीरा-राधा के गीत गाना, पर याद करना माँ कि तुम्हारे कृष्ण कुल में भी एक बार आदि शक्ति ने कन्या के रूप में जन्म लिया था और इस बार कंस उसके मातृ पक्ष से नहीं, बल्कि पितृ पक्ष से आया था। मेरी कामना है माँ कि तू अब इतनी शक्तिशाली बनना कि फिर कभी किसी अशक्त अबोध कन्या की निरपराध ही हत्या न करनी पड़े।


माँ!
अच्छा है, कि तुम करवा चौथ के व्रत रखकर अच्छी पत्नी का धर्म निभा लोगी। यह भी अच्छा है कि तुम कन्यादान के व्रत से मुक्त हो जाओगी, फिर भी एक अच्छी माँ ही कहलाओगी। तुम्हारे घर में न कोई मण्डप सजेगा, न कभी तोरण बँधेगा और न ही कोई डोली उठेगी। बहू उतारकर तुम अपने अरमान पूरे कर लेना। माँ के अधूरे धर्म का शाप लिए तुम पूरी जिन्दगी बिता लोगी। पर जब कभी तुझे अनायास ही हिचकी आए, सपनों में कोई तुझे पुकार कर बुलाए, स्वयं धरती की गोद में बैठ तुझे मंदिर में बुलाए, तो समझना तेरी उसी बेटी ने अपने सूने-वीराने से तुझे आवाज दी है।


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पिताजी!
आपको देखे बिना ही मैं दुनिया से विदा हो गई। आप साँसें थामे हाथ पर हाथ रखे ये बेरहम नजारा देखते रहे और आपकी नजरों के सामने ही मेरी साँसें सदा के लिये थम गईं। एक भोली नवजात कन्या की ओर बढ़ते काल के क्रूर हाथों को देखकर भी आपकी भुजाएँ न फड़कीं, गला घोंटने के बाद भी किसी का गला न रूँधा, श्मशान की मिट्टी में गहरे दफन करने के बाद भी किसी के हृदय का पत्थर न पिघला। जी सा (पिताजी)! मै तो आपका ही खून थी, पर अपने सामने ही मेरा खून होते देख आप गौरवान्वित होते रहे ? मैंने तो आपसे गले लगाने का हक न माँगा था, फिर आपने मुझे अपने पाँव छूने के भी अधिकार से वंचित क्यों कर दिया?


पिताजी!
आपने इतिहास अवश्य पढ़ा होगा और न भी पढ़ा हो, तो अपने इतिहास पर गर्व अवश्य होगा। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और रानी दुर्गावती का इतिहास भुला भी दें, तो भला पद्मिनी और रत्नावली केा आप कैसे भुला पाएँगें? क्या ये गौरव की गाथाएँ बस साफे की तरह माथे बाँधने के लिये हैं, हार की तरह हृदयंगम करने को नहीं ? क्या मेरी भोली आँखों के काजल से ही आपके उन्नत मस्तक पर कलंक का टीका लग जाता है ? जी सा! मैं आपसे सवाल नही करती, पर अपने-आपसे यह जवाब ढूँढने का प्रयास करती हूँ कि क्या मेरा कुल वाकई वही कुल है, जो कृष्ण को जन्म देने के लिए गोकुल की बेटी को आमंत्रित और अभिमंत्रित करता रहा है।

पिताजी!
संसार ने कंसवध और रावणवध देखा नहीं है, पर सुना अवश्य है। आपके इस छोटे से संसार में सबने कन्यावध को न केवल सुना है, बल्कि देखा भी है, फिर भी सबने इसे अनदेखा किया है। अगर यह किसी आदिवासी समुदाय की आदिम प्रथा होती, तो अब तक खत्म हो चुकी होती। किन्तु विडम्बना यह है कि यह हमारे कुलीन वर्ग की ही कुल-परम्परा बनी हुई है, जो न सच सुनना चाहते हैं, न ही देखना। अच्छा हुआ कि मैं इस परिवार का हिस्सा न बनी, अन्यथा क्या पता मैं भी कल इसी विषबेल की वाहक बन जाती और हमारा समाज मूक दर्शक बना इसे यों ही देखता रहता।

पिताजी!
धर्म कहते हैं कि यह पाप है। कानून कहता है कि यह अपराध है। समाज कहता है कि यह परम्परा है। मैं तो तर्क करना भी नहीं जानती। पर तुम जरा अपनी मानवता के सामने यह प्रश्न उठाना कि तुमने अपने जीवन में भला क्या कोई इतना बड़ा पुण्य किया है, जो तुम्हारे इतने बड़े पाप को धो पाएगा! मानवता की बात तो शायद बड़ी और दूर की बात हो जाएगी। मैं तो अपनी छोटी सी दुनिया में केवल अपने जी सा को जानती हूँ और यह भी जानती हूँ कि मेरी बात सुनकर मेरे जी सा का भी दिल कितना भारी हुआ होगा। पर क्या करूँ, इतनी सी बात कहने से मेरा दिल कुछ तो हल्का हो जाता है।

पिताजी!
सच सुनना सदा से कड़वा रहा है और उसे सहना तो बहुत ही कठिन रहा है। पर क्या करें, बच्चे तो मन के सच्चे होते हैं। वे अपनी तोतली भाषा में भी इतनी सीधी और साफ बात कह जाते हैं, जो और लोग अपनी लच्छेदार गोल-मटोल बातों में भी नही कह पाते। युग बदल रहा है और आप वक्त के साथ भी नहीं चल पा रहे हैं। क्या आप सचमुच यह शपथ ले पाएँगे कि आप इन्हीं मर्यादाओं के बल पर समाज के अग्रदूत हैं और संसार को समय से आगे ले जा पाएँगे!

पिताजी!
सुना है मेरा खानदान बड़ा ऊँचा है, सारे समाज में दूर-दूर तक इसका नाम है। मुझे भी गौरव होता कि मैं कृष्ण के उस वंश की हूँ जहाँ राधा ही नहीं, सुभद्रा भी पूजी जाती हैं। मुझे अभिमान होता कि शौर्य का पराक्रम दिखलाने वाले मेरे परिजन सबसे पहले शक्ति का ही पूजन करते हैं। मुझे खुशी होती कि मैं उस परिवार का हिस्सा हूँ, जो अबला की रक्षा में प्राण देना जानता हैः किसी अबोध के प्राण लेने केा अपनी संस्कृति का हिस्सा नहीं मानता। काश कि ये गाथाएँ सच होतीं और ये घटनाएँ झूठी होतीं! फिर मैं अगले जन्म में भी यदुकुल में जन्म लेने की कामना करती और ईश्वर से सदा इस वंश के वृक्ष के बढ़ने की ही प्रार्थना करती।

पिताजी!
मैंने आपके घुटनों पर खेलने का सौभाग्य नहीं पाया। मैंने दादाजी के कंधों की ऊँचाईयाँ भी नहीं जानी। मैंने चाचा की अंगुलियाँ पकड़कर खड़ा होना भी नहीं सीखा। जाने कौन-सा अपशकुन लेकर मैं पैदा हुई थी कि मुझे आपसे कुछ सीखना तो दूर, आपको देखने तक का पात्र नहीं समझा गया। पर जी सा! मेरा जी रखने के लिए ही सही, इतना तो बतलाना कि क्या अगर तुम खुद मेरी आँखों में झाँक कर देखते, तब भी यूँ ही मुझे मिटा देते? याद रखना, मैं मिटकर भी ईश्वर से यही कहूँगी कि मुझे अपने मम्मी-पापा के पास फिर एक बार भेजना, क्या पता उन्हें फिर अपनी भूल सुधारने का मौका मिले न मिले।

पिताजी!
पश्चात्ताप का समय सभी की जिन्दगी में आता है, परन्तु प्रायश्चित्त का मौका सभी को नहीं मिलता। जो खो गया, वह तो सदा के लिए दूर हो गया। अगर आज भी आपने मुझ जैसी अभागी किसी कन्या की जान बचा ली, तो समझना तुम्हारी बिटिया फिर से जिन्दा हो गई। उसकी ही चहक में, महक में, शोखी में, गुस्ताखी में तुम मेरी आत्मा पाओगे, क्या पता इसी बहाने तुम भी अपनी अंतरात्मा से मिल पाओ।

पिताजी!
कल हो सकता है, मेरा यह पत्र किसी समाचार पत्र की सुर्खी बन जाए। भावुकता में लोग जल्द ही भड़क उठते हैं। हो सकता है, दूसरे ही दिन लेखक यह बयान दे दे कि ये बातें न मेरे द्वारा कही गई हैं और न ही तुम्हारे लिए लिखी गई हैं, क्योंकि मैंने उसके घर पर शुतुर्मुर्ग की तस्वीर देखी है, परन्तु आज मैं दो टूक बात करना चाहती हूँ कि या तो मेरा यह खत हर घर में पहुँच जाए या फिर शुतुर्मुर्ग की वह तस्वीर उन घरों में टँग जाए।

पिताजी!
जब आप इसे पढ़ रहे थे, तब मैं आपके पीछे ही खड़ी थी। फिर जब आप पन्ने पलट रहे थे, तब आपकी आँखों के कोनों में कुछ आँसू की तरह तिर आया था। यह ठीक नहीं। आप तिनके का बहाना लेकर उसकी ओट ले लीजिएगा और फिर इसे तीली सुलगाकर आग के हवाले कर दीजिएगा। मैं तो खुद अंगार बोकर राख बन चुकी, कैसे कहूँ कि मेरे आस-पास फिर कोई बेल न मरेगी। इसलिए यदि देना ही है तो इन पुलकित पलकों का पानी इन नई बेलों को देना, न कि अपने कुल-खानदान के उस भारी पानी को तवज्ज़ो देना, जिसकी खातिर हम जैसे फूल इन टीलों में मटियामेट होते रहे हैं।

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