मकर संक्रांति
सूर्य के उत्तरायण
होने और मानव के दाक्षिण्य का पर्व
मकर संक्रांति
का पर्व है। सांस्कृतिक दृष्टि से यह भारत का सर्वाधिक व्यापक लोकप्रियता वाला पर्व है; ज्योतिषीय दृष्टि से यह सूर्य के बारह अध्यायों वाले राशि-ग्रंथ का दशम
ग्रंथ है; धार्मिक दृष्टि से यह स्नान-दान, परिमार्जन व पुण्यार्जन का पर्व है; सामाजिक-व्यावहारिक
रूप से यह नई फसल का उत्सव मनाने का पर्व है।
स्पष्ट है कि
हिंदू परंपरा के अन्यान्य पर्वों की तरह मकर संक्रांति के भी चार मुख्य आयाम हैं- पहला, धर्म का, जहाँ यह
स्नान-दान का पर्व है; दूसरा, संस्कृति का, जहाँ यह भोजन व नृत्य का उल्लास है; तीसरा, खगोल व ज्योतिष का, जहाँ यह उत्तरायण, माघी व मकर संक्रांति नामों की
सार्थकता पाता है; चौथा, व्यवहार
व विज्ञान का, जहाँ यह नई फसल और नए हौसले के पर्व के रूप
में पहचान स्थापित करता है।
प्रारंभ
संस्कृति से करते हैं। पर्वधर्मा संस्कृति में अगणित व्रत-पर्व हैं, पर जहाँ तक उत्तर-मध्य है, चार सबसे मुखर हैं- होली,
दीपावली, रक्षाबंधन और मकर संक्रांति। इनमें संक्रांति जरा अनूठी है, क्योंकि यह अन्य
तीनों से अलग जरा व्रत की सी भी तासीर लिए है, स्नान-दान
के रूप में। संक्रांति "खान-पान" का त्यौहार
है, किन्तु उससे पूर्व यह "स्नान-दान" का पर्व है। दीपावली रात के लिए है, होली दिन के लिए, परंतु मकर संक्रांति रात, प्रात और दिन तीनों के लिए
है। एक दृष्टि से यह संस्कृति में एकमात्र प्रभाती पर्व
है, व्रत तो प्रात: के बहुत हैं, उत्सव
नहीं। पर्व भी ऐसा कि सर्वथा
निर्मल व परार्थी मन का पर्व। "तेन त्यक्तेन
भुंजीथा:" का उद्घोष करता हुआ। सूर्य के उत्तरायण होने के साथ मानव के
दाक्षिण्य (उदारता या दान का भाव) का विधान इसकी अपनी विशेषता है.
यह स्नान पर
इतना बल देता पर्व है कि ऐसा लगता है, जैसे संस्कृति चाहती है कि जितने दिन सूर्य
दक्षिणायन था, उत्तरायण के आगमन पर वह उसके तमिस्र को पूरी
तरह से धुल कर निर्मल कर दे। स्नान एक दिन का हो सकता है, किंतु
इसी अवसर पर माघ मेले और कुंभ मेले का भी आयोजन होता है। वहां एक माह तक परंपरावादी
जन कल्पवास भी करते हैं और वह उस कल्पवास में अपने को संसार और सांसारिकता से दूर
और भी आध्यात्मिक और भी परिष्कृत करने का यत्न करते हैं। तब मकर संक्रांति के
बहाने जनसामान्य गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी एक मास के संन्यास का रस पा जाता था।
जिनको धनु-मकर
की सौर संक्रांति की जटिलता जानने में रस नहीं, वे अलग तरह से भी संक्रांति मान सकते हैं, वह यह कि इस समय ऋतुचक्र में सूर्य शीतलहर के साथ शीत आधा पार कर वसंत की
ओर बढ़ रहा होता है। शीत-वसंत की संक्रांति की चर्चा आगे ज्योतिष के खंड में
करेंगे। परंतु यह कह सकते हैं कि संक्रांति रात्रि-दिवा की भी है, लोहड़ी की आग की गीत भरी रात से शुरू हो जाती है, अलसभोर
में ही स्नान-दान करने जुट जाती है और फिर पूरे दिन नवान्न का व्यंजन बनाकर समापन
करती है।
उत्सव भी ऐसा कि
कुछ सजाया नहीं जाता, बस खाया-खिलाया जाता है। कहीं दही-चूड़ा, कहीं लइया-ढुंढा, कहीं पकौड़ी-बड़ी, तो कहीं खींच-खिचड़ा। कुछ विरोधाभास से उभर आते हैं- सरसों फूलने का मौसम है और तिल के
लड्डू-पट्टी-गजक बन रहे हैं। रबी की फसल है और खरीफ के
चूड़े-पोहे-लाई से व्यंजन बन रहे हैं। बस एक मौसम का
गुड़ है, जो सबमें घुले जा रहा है, मिठास
घोले जा रहा है।
संक्रांति बहुत
सहज है, बहुत
कीमत नहीं माँगती। कोई दीपावली के मेवे नहीं, बस मूँगफलियाँ काफी हैं, कोई दीवार रंगने,
फर्श पर रंगोलियाँ बनाने की जरूरत नहीं, न
होली की गुझिया चाहिए, न दिवाली के लड्डू, बस गर्म खिचड़ी चाहिए, मीठे में तिलकुट, गजक, दालपट्टी, ढुंढा हो, कोई साज सज्जा नहीं करना, बस आसमान में रंगीन
तिलंगियाँ उड़ाने और उड़ा न सके तो निहारने का आनंद उठाना है।
हर त्यौहार किसी
बहाने जिंदगी में जिंदादिली लौटाता है, कभी बचपन लौटाकर, कभी
यौवन लेकर। मकर संक्रांति में यह अपेक्षाकृत अदृश्य है, पर कुछ तो प्रकट हो ही जाता है। लोहड़ी की रात
तेज हुई लपटों के साथ यौवन जागता है, संक्रांति की सुबह
प्रौढ़पन स्नान-दान कर तृप्ति पाता है, फिर दुपहर से
साँझ ढले बस बचपन चहकता है, लौटता हुआ, लूटता हुआ, पतंगी तिलंगी व्याज से।
मकर संक्रांति सांस्कृतिक
दृष्टि से भारत का सर्वाधिक व्यापक और व्यापकता के कारण बहुत सीमा तक राष्ट्रीय सा
हो चुका पर्व है, जो नाम और परंपरा में किंचित् के परिवर्तन के साथ अपने
हर क्षेत्र में विद्यमान रहा है, पूरब से पश्चिम तक, उत्तर से दक्षिण तक। सब जगह अलग अलग नाम हो सकते हैं-
-बिहार, उत्तर प्रदेश में खिचड़ी;
मिथिलांचल में तिल संक्रांति; हरियाणा,
हिमाचल में माघी; असम में भोगाली बिहू;
कश्मीर में शिशुर सेंक्रात; -तमिलनाडु में ताइ
पोंगल, उझवर तिरुनल; कर्नाटक में मकर संक्रमण, सुग्गी
हब्बा, गुजरात, उत्तराखण्ड में उत्तरायण; पश्चिम बंगाल में पौष संक्रान्ति।
इन्हीं से मिलते
जुलते नाम अन्य क्षेत्रों में भी हैं। दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में भी जहाँ कभी
हिंदू संस्कृति बसती थी, बहुत परिवर्तन के बाद भी वहाँ संक्रांति मनाई जाती
रही है। अधिकांश जगहों पर अपने क्षेत्रीय नामों के साथ मकर संक्रांति नाम भी चलता
रहता है। जगह के साथ नाम ही नहीं, कुछ परंपरा भी बदल जाती है। पंजाब हरियाणा में
लोहड़ी एक दिन पहले जल जाती है, दिन भी नहीं, वरन् रात में, तिल मूँगफली के साथ में। बिहार में खिचड़ी दही चिउड़ा के साथ गोभी, प्याज की
पकौड़ियाँ भी जुड़ जाती हैं।
पर्व वस्तुत:
औपचारिकता के लिए नहीं होते, वे उल्लास के लिए होते हैं, इतने
उल्लासमय कि किसी शुभकामना का औचित्य ही न हो, इतने मंगलमय
कि किसी मंगलकामना की अपेक्षा ही न हो। मकर संक्रांति में न दीपावली की राम-राम है,
न होली का श्याम गीत। पर उल्लास में कमी नहीं। मन कहता है कि पर्व
हो ही ऐसा कि रोम-रोम पुलकित हो जाए, हर कोई
"तन-मन-धन" से उत्सव मनाये। अब हर पर्व "तन-मन" का होता है,
पर हर पर्व "तन-मन-धन" का नहीं होता, होली में "तन-मन" है, तो दीपावली में
"मन-धन" है। पर संक्रांति "तन-मन-धन" का पर्व है, बिना राग के अतिरेक के। अनजाने में ही सही, पर
संक्रांति है तो ऐसी ही-- पहले तन का स्नान, धर्म के साथ; फिर धन का दान, अन्न
और व्यंजन के साथ ; फिर मन की उड़ान, पतंगों
के साथ।
संक्रांति मूलतः
तो नई फसल का त्यौहार है, जो व्यंजनों में सजता है; परंतु सूरज के बदलने के साथ नये साल के नये हौसले का भी त्यौहार है, जो पतंगों में दिखता है और उससे भी पहले शरद के
निर्मल बहते जल में यह तन को निर्मल करने का भी त्यौहार है, जो तीर्थ स्नान में निखरता है। सच कहूँ तो
जिन्हें भी निर्मलता में रस है, स्वयं का कुछ बाँटने
में गौरव है, मकर संक्रांति उन्हीं के लिए खास है।
खगोल के जगत्
में चलते हैं। सूर्य के धनु से मकर राशि में प्रवेश को उत्तरायण माना जाता है। इस
राशि परिवर्तन के समय को ही मकर संक्रांति कहते हैं। हिंदू पर्व अधिकांशतः
चांद्रमास के पर्व हैं, केवल कर्क व मकर संक्रांति ही इसके अपवाद हैं,
जो सूरज को देख कर चलते हैं। यहाँ तक कि सूरज को अर्घ्य देने का
बिहारी मूल का पर्व छठ भी चंद्रमा की तिथि को देख कर चलता है। चंद्रमा बहुत अनियत
है, परंतु सूर्य बहुत निश्चित है, इसीलिए
इनकी अंग्रेजी सौर कैलेंडर में भी 14 जनवरी की तिथि तय है। कभी
जरा परिवर्तित होकर एक दिन पहले या बाद हो सकती है, क्योंकि
वर्ष गणना में कुछ घड़ियाँ हर साल कम पड़ जाती हैं, अगले साल
लीप ईयर बनाने के लिए।
दृश्य में सूर्य
शासक हैं, दर्शन
में सूर्य शास्ता हैं। सूरज सदा से महान शासन का प्रतीक
रहा है, परंतु उससे अधिक महान अनुशासन का भी। सूर्य हुताशन है, हुतात्मा है, परंतु वह स्वयं अपनी आहुति भी है, अपनी समिधा
भी है। बहुत ऊँचे और बड़े होने का मूल्य उसे स्वयं का जीवन होम करके चुकाना पड़ता है। संक्रांति सूर्य को हमारी शास्ता
और ऊर्जा स्रोत मानकर ही नहीं, हुताशन मानकर भी पर्व
मनाती है, तभी तो सूर्योदय से पहले स्नान कर उसका
स्वागत करती है, "तेन त्यक्तेन भुंजीथा" के
भाव से।
संक्रांति शब्द
जरा भ्रमित सा करता है। वह कुछ द्वंद्व समास सा भाव लिए है, जैसे
ऐसा कुछ है, जो अपने संक्रमण काल में है, कदम उठाया है, कहीं जाने का, पर
जाते-जाते एक कदम पीछे रह गया है। परिवर्तन तो हो रहा है, अभी
पूरा हुआ नहीं है। कुछ क्रांति सी होती, यदि यह परिवर्तन जरा
आमूल होता, तीव्र होता।
खगोलीय व
भूगोलीय रूप से पृथ्वी के सापेक्ष सूरज संक्रांति में है। वह राशि के सहारे अयन
बदल रहा है। यह अयन क्या है? काल विभाजन में मास और वर्ष का अपना विभाजन है,
मास चंद्रमा का विभाजन है, वर्ष सूर्य का। और
जिस प्रकार चंद्रमा का मास कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में विभक्त है, वैसे ही सूरज का वर्ष भी दो भागों में विभक्त है- उत्तरायण और दक्षिणायन। दो
पक्षों का एक मास है, दो अयनों का एक वर्ष है।
पृथ्वी सूर्य की
परिक्रमा कर रही है। वह जरा तिरछी है, जहाँ से घूम रही है, वहाँ
साढ़े तेइस डिग्री झुक कर चल रही है। शायद पिता सूर्य को नमन करती, या फिर स्त्र्युचित स्वभाव से किंचित वंकिम भंगिमा अपनाती। ऐसे में जब वह
सूरज का एक चक्कर पूरा करती है, तो कभी सूर्य पृथ्वी के
उत्तरी गोलार्ध में अधिक दीप्त होता है, कभी दक्षिणी गोलार्ध
में। मकर संक्रांति के पूर्व सूर्य पृथ्वी के सापेक्ष दक्षिणी गोलार्ध में अपनी
दृष्टि अधिक रखता है, मकर संक्रांति के दिन सूर्य पृथ्वी के
सापेक्ष उत्तरी गोलार्ध में प्रयाण करने लगता है। सूरज भला क्या प्रयाण करेगा,
बस पृथ्वी ही परिक्रमा करते करते जरा उत्तराभिमुख हो जाती है। धरती
की दिशा बदली, और सूर्य उत्तरायण हो गया। भगवान भुवन भास्कर
का अपना उत्तर-दायित्व है। सबको समान नियम से आलोकित करना है। सूरज जितनी दूर तक
धरती पर सीधा दीप्त हो सकता है, वह विषुवत रेखा के उत्तर में
कर्क रेखा और दक्षिण में मकर रेखा तक जाता है। पर्व के लिए विषुवत रेखा की अपनी
कोई राशि नहीं, वह बस संक्रमण की रेखा है, संक्रांति की। जिसके उत्तर गए कि मकर संक्रांति का प्रारंभ हो गया। संयोगवश इन्हीं दोनों रेखाओं की राशियों की संक्रांति पर्व है। दो ऋतुओं
के प्रतिनिधि के रूप में, शीत और ग्रीष्म। कर्क संक्रांति
ग्रीष्म का पर्व है, ठीक वैसे ही जैसे मकर संक्रांति शरद का
पर्व है। बस अंतर यह है कि कर्क संक्रांति वैशाखी है, मकर
संक्रांति माघी है।
यहाँ खगोल
विज्ञान पर चलता ज्योतिष कहता है, सूरज राशि के सहारे अयन बदल रहा है। मकर राशि के
सहारे। राशि क्या है? पृथ्वी सूर्य का चक्कर एक साल में
लगाती है। अगर आकाश एक घडी है, तो ये राशियाँ उसके बारह घंटे।
इस बारह खानों वाली घड़ी में कभी-न कभी कोई न कोई ग्रह आता है। कुंडली में इसे ही
बारह खानों में दिखाते हैं। ग्रहों में चाँद और सूरज सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। भारत
में माना जाता है कि ग्रहों में चाँद सबसे निकट होने के कारण प्रभावी है, इसलिए यहाँ आदमी की वो राशि मानी जाती है, जिसमें
चन्द्रमा स्थित हो। पश्चिम में माना जाता है कि ग्रहों में सूर्य सबसे विशाल और
केंद्रीय तारा होने के कारण प्रभावी है, इसलिए यहाँ आदमी की
वो राशि मानी जाती है, जिसमें सूर्य स्थित हो। इस तरह एक ही
आदमी की दो-दो राशियाँ हो सकती हैं।
सूर्य की गति
चूंकि निर्धारित है, अतः सूर्य के अनुसार राशि बताते समय उसकी अवधि
लिखी जाती है, जैसे (14 जनवरी से 13
फरवरी तक) जबकि चन्द्र के अनुसार राशि बताते समय कोई अक्षर लिखा
जाता है, जैसे च, चा, चू, इत्यादि। ये अक्षर भी 27 नक्षत्रों
के 4 चरणों के लिहाज़ से 108 हो जाते
हैं। एक ग्रह किसी राशि में कब आता है, इसकी गणना भी दो तरह
से की जाती है, जिन्हें क्रमशः "निरयण" और
"सायन" कहा जाता है। भारत में "निरयण" और पश्चिम में
"सायन" परंपरा अपनाई जाती है। "सायन"
"निरयण" से लगभग तीन सप्ताह से एक माह तक आगे चलता है, जैसे भारत की "निरयण" परंपरा में मकर राशि में सूर्य 14 जनवरी को आता है, जबकि पश्चिम की "सायन" परंपरा
में मकर राशि में सूर्य 22 दिसंबर से 19 जनवरी तक रहता है। यही सभी राशियों के साथ होता है।
इस प्रकार किसी
आदमी के एक साथ चार राशियाँ हो सकती हैं, जिनमे दो सूर्य की होंगी और दो चन्द्रमा की। ये
कुल बारह राशियों का एक तिहाई है। अब अगर गौर करें, तो
इन्हीं आधारों पर कह सकते हैं कि सूर्य की एक साथ सूर्य दो राशियाँ या
संक्रांतियाँ भी दिख सकती हैं, "सायन" से अलग,
"निरयण" से अलग। परंतु यहाँ ज्योतिष की नहीं, खगोल की बात है, एस्ट्रोलोजी नहीं, एस्ट्रोनोमी की। ज्योतिष कहता है- बारह राशियां हैं, जिनमें मकर, कुम्भ, मीन,
मेष, वृषभ तथा मिथुन राशि में सूर्य के
परिभ्रमण की स्थिति उत्तरायण की मानी जाती है। शेष कर्क, सिंह,
कन्या, तुला, वृश्चिक,
धनु राशि में सूर्य के परिभ्रमण की स्थिति दक्षिणायन की मानी जाती
है।
अब यदि बारह राशियाँ हैं, तो प्रति मास ही सूर्य बारह राशियों में एक से
दूसरी में प्रवेश करता रहता है। ऐसे में सौरमान से हर माह एक संक्रांति है,
क्योंकि प्रति मास सूर्य के एक राशि से दूसरी में प्रवेश कर रहा
होता है। परंतु संस्कृति ने सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करने की मकर
संक्रांति को विशेष पावनता दे रखी है। कर्क संक्रांति भी लगभग उतना ही महत्वपूर्ण
है, पर वह शायद संख्या व विस्तार बल में मकर से कम पड़ जाता
है।
सूर्य हर माह
किसी राशि की संक्रांति में हैं। यह संक्रांति पाश्चात्य कैलेंडर में मध्य में
पड़ता है। ऐसा लगता है कि कभी सौर मास की गणना चौदह दिनों पूर्व या पश्चात्
प्रारंभ करने की परंपरा रही होगी, जो विलुप्त हो गई। बारह राशियों से जुड़ कर ही
बारह मास बने, द्वादश आदित्यों की कल्पना हुई। देवों के
जुड़ने के साथ धर्म व अध्यात्म के रूपक आ जाते हैं। मकर राशि का स्वामी शनि है,
इसलिए समय के साथ कथा रची गई कि मकर संक्रांति के दिन भगवान सूर्य
अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाते हैं। यह पुराणकारों द्वारा जनसामान्य
को बात समझाने का अपना तरीका था।
ऐसी अन्य
कहानियाँ धर्म व संस्कृति को आधार देने के लिए रची गईं। जैसे यह कि मकर संक्रान्ति
के दिन ही मकर संक्रांति के दिन ही गंगा का धरती पर अवतरण हुआ था। यह गंगास्नान की
महत्ता को रेखांकित करने का सेतु बन गया। ऐसे ही एक अन्य कथा के अनुसार मकर
संक्रांति के दिन ही गंगा भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई
सागर में मिली थीं। लोक गंगास्नान करता ही था, कथा उसे सागर तक जोड़ जाती है, गंगासागर में माघस्नान का आमंत्रण सा देते हुए।
सूर्य के
उत्तरायण होने के साथ जुड़ी कुछ अन्य बातें भी हैं। पृथ्वी जहां से झुकती है, पूर्वोत्तर
का कोना ईशान कोण कहा जाता है और दक्षिण पश्चिम का कोना नैऋत्य कोण का। ईशान
अर्थात् वहां जहां ईश हों, और नैऋत्य वह जहां ऋत को न मानने
वाले हों। अर्थात कुछ आसुरी है वहाँ। पुरानी परंपरा मानती थी कि सूरज जब दक्षिणायन
हो जाएंगे, वह देवों के लिए तमिस्र काल होगा, जब यह उत्तरायण होंगे तब देवों के लिए आलोकमय होगा। यह बात इतनी घर कर गई
कि संस्कृति ने दक्षिणायन काल को मुक्ति में भी बाधक मान लिया। श्रीकृष्ण ने गीता
में कहा है कि जो योगी ज्योति, अग्नि, दिन,
शुक्लपक्ष, उत्तरायण, के
छह माह में देह त्यागते हैं, ऐसे लोग ब्रह्म को प्राप्त होते
हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता। इसके विपरीत धुंआ, रात्रि, कृष्ण पक्ष एवं दक्षिणायन के छह माहों में
जो देह त्यागते हैं, वह चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त करके
पुनः लौटते हैं अर्थात् उन्हें पुनः जन्म लेना पड़ता है।
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥
(गीता, अध्याय- 8, श्लोक- 24-25)
कृष्ण का
निहितार्थ कुछ आध्यात्मिक आलोक से रहा होगा, किंतु रूपकों से ऐसा ध्वनित होता है, जैसे सूर्य के उत्तरायण होने पर पृथ्वी प्रकाशमय और सूर्य के दक्षिणायन
होने पर पृथ्वी अंधकारमय होती है. उत्तरायण में मृत्यु पाने वाले तो ब्रह्ममय होकर
मुक्ति पा जाएँगे, परंतु दक्षिणायन में मृत्यु पाने वाले
तमिस्र में भटकते हुए फिर चाँद की सी कामना लिए लौट आएँगे। बात कृष्ण के कहे
अनुसार या फिर उनके कहने से पहले ही इतनी घर कर गई थी कि महाभारत में पितामह भीष्म
ने सूर्य के उत्तरायण होने पर ही स्वेच्छा से शरीर का परित्याग किया था। "तमसो मा ज्योतिर्गमय" कहता मन भला तमस्
माने जा चुके काल में "मृत्योर्मा अमृतं गमय" कैसे कहता।
अब व्यवहार और
विज्ञान की ओर लौटते हैं, इसमें भी विज्ञान से अधिक व्यवहार की ओर, क्योंकि विज्ञान की बात हर जगह संभव है, परंतु वह
अक्सर कुछ खींचतान का रूप ले लेती है। मन कहता है, जिस समय
ये बातें शुरू हुई हों, वे व्यवहार से अधिक आई होंगी,
विज्ञान से कम। विज्ञान अंतर्निहित रहा हो सकता है।
लगभग सभी
मानेंगे कि मकर संक्रांति की महत्ता उसके नई फसल का पर्व बनने में है। नवधान्य आ
चुके होते हैं, जिनके व्यंजनों की संक्षिप्त चर्चा हो चुकी। परंतु प्रश्न यह उठता है कि
उसमें तिल और गुड़ की इतनी महत्ता क्यों है। यह इस समय उत्पादित हो चुके होते हैं,
यह एक बात है, परंतु उन्हें विशेष महत्व दिया
जाना दूसरी बात है। शीतकाल में वसा की आवश्यकता सभी को होती है। किसी कालखंड में
जब मानव को वसा के अन्य स्रोत का ज्ञान नहीं रहा होगा, तब
संभवतया तिल ही सबसे बड़ा स्रोत रहा होगा। तिल शब्द से ही तैल शब्द बना है,
जो कालांतर में सभी प्रकार के तेलों का पर्याय बन गया। इस से इतना
तो पता लगता है कि भारतीय परंपरा में जो तेल सबसे पहले आया होगा, वह तिल का ही रहा होगा। अलसी का बीज क्षुमा के रूप में ज्ञात हो चुका होगा,
क्योंकि अलसी के रेशे से बने क्षौम वस्त्र प्रसिद्ध है, किंतु उसके तेल की विशेष प्रसिद्धि नहीं हो पाई। संभवत: इसी कारण तिल का
भोग और तिल के दान दोनों की परंपरा का विशेष महत्व हुआ होगा। इसी प्रकार इक्षु या
गन्ना हमारी शर्करा का सबसे प्रमुख स्रोत रहा है। शर्करा कार्बोहाइड्रेट का सबसे
इंस्टैंट और सरल रूप है और इस प्रकार वह सीधे ऊर्जा में परिणत होने में समर्थ है। यह
इक्षुरस किसी भी अन्य मधुरस से अधिक सरल सुलभ और महत्वपूर्ण रहा है। इस कारण गुड़
की चीजों को प्रधानता दी गई, ताकि शीतकाल में उनका उपयोग तन
की सुरक्षा में बेहतर रूप में किया जा सके।
मकर संक्रांति
तब आती है, जब शरद ऋतु घनीभूत होकर शिशिर ऋतु में परिवर्तित हो जाती है और फिर आगे
वसंत का मार्ग प्रशस्त कर रही होती है। दीपावली शरद का
का आरंभ है, इसलिए उसमें संचय का भाव है। मकर संक्रांति शीत के समापन का संकेत है, इसलिए
उसमें दान का भाव है। यहां उल्लेखनीय है कि शरद मूलतः
ऋतु है, किंतु जब वैदिक जन कहते हैं, "जीवेम शरद: शतम्" तब यहाँ शरद् वर्ष का
पर्याय मान ली गई है। कई तर्क हो सकते हैं- संभव है, शरद् को
वर्ष का सबसे प्रिय या पवित्र माना गया हो, या फिर सबसे कठिन।
यह प्रतीकात्मकता या तो मधुरतम ऋतु के रूप में रही होगी या फिर कठिनतम ऋतु के रूप
में और तर्कत: कठिनतम ऋतु का अर्थ ही अधिक उपयुक्त है। वैदिक ऋषि वर्ष के लिए
संवत्सर का प्रयोग करते हैं, वर्ष का नहीं, क्योंकि वर्ष शब्द मूलत: वर्षा का भाव लिए है और इसकी साल के लिए मुख्य
गणना तब प्रारंभ हुई होगी, जब वर्षा की महत्ता बढ़ी होगी अर्थात्
कृषि प्रमुख आजीविका हुई होगी। वस्तुत: शरद शब्द शर-द से बना है, क्योंकि इस मौसम में सरकण्डे तैयार होते थे। इनसे ही धनुष के तीर (शर)
बनते थे। शरद तक सरकण्डे पूरे श्वेत पुष्पों से भर जाते हैं। तुलसी कहते हैं- "वर्षा विगत शरद ऋतु आई, ...फूले कास सकल महि
छाई।" हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मकर संक्रांति तक
मृत्यु की प्रतीक्षा करने वाले भीष्म के शर शय्या पर होने की कहानी में उनके बाणों
की बजाय ऐसे ही सरकंडों की चटाई पर होने का भी तर्क दिया है।
यहाँ यह भी हो
सकता है कि शरद को वर्ष का आरंभ या अंत मानने से वर्ष का पर्याय मान लिया गया हो। वेदों
में वसन्त ऋतु को संवत्सर का मुख कहा गया है। इसलिए वसन्त ऋतु में वर्षारम्भ होना
चाहिए। हमारे व्रत, पर्वोत्सव का निर्धारण चन्द्रमान के अनुसार ही
होता है और 'चैत्र' मास से ही चन्द्र मासों
की गणना की जाती है, अत: 'चैत्र मास'
से ही वर्षारम्भ माना जाता है। इस प्रकार चैत्र से वर्ष का आरंभ
होने से चैत्र-वैशाख में वसंत ऋतु मानी गई। वैदिक मान्यता में वसंत मधुमास है। किंतु
ऋतुराज वसंत में ही ऋतुओं का सर्वाधिक व्यतिक्रम दिखता है, पौराणिक
परंपरा अनुसार वसंत पंचमी माघ की शुक्ल पंचमी को मनाया जाता है और वैदिक परंपरा
अनुसार वसंत को पड़ना चैत्र में चाहिए। रोचक है कि वसंत पंचमी मनाई तो माघ में
जाती है और ऋतुओं की गणना में चैत्र में दिखाई जाती है। कहीं तो चूक हुई है,
माघ के साथ।
यहाँ ध्यातव्य
है कि वैदिक काल में मास के नाम आज से बहुत अलग हैं। यजुर्वेद के अनुसार 12 मासों
के नाम निम्न हैं- मधु, माधव, शुक्र,
शुचि, नमस्, नमस्य,
इष, ऊर्ज, सहस्, सहस्र, तपस् तथा तपस्य। बाद में यही पूर्णिमा में
चंद्रमा के नक्षत्र के आधार पर चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, भाद्रपद,
आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष,
पौष, माघ तथा फाल्गुन हो गए।
मकर संक्रांति
शिशिर ऋतु में आती है, पर उसके वासंती होने के भी तर्क हैं। पहला यह कि
वैदिक काल में जिस मधुमास से वर्ष आरंभ हो रहा है, उसे
कालांतर का चैत्र मान लेना कोई भूल रही हो। दक्षिण भारतीय विद्वान टी वी शिवरमण का
मानना है कि वैदिक व उत्तरवैदिक मासों का क्रम मिलाने का आधार
विष्णुधर्मोत्तरपुराण है, परंतु यह वैदिक क्रम में कम से कम
एक मास के अंतराल की त्रुटि वाला है। ऐसे में एक तर्क मधुमास के माघमास होने का बन
सकता है, परंतु इसे भी अतिरिक्त पुष्टि चाहिए।
दो अन्य तर्क भी
जुड़ सकते हैं। संभव है, वैदिक जन जिस जगह पर मुख्यतया रहते हों, वहाँ सचमुच आज के माघ तक वसंत आ जाता रहा हो। तबकी जलवायु भी कुछ अलग रही
होगी। वैसे समस्त जगहों के लिए ऋतुक्रम एक नहीं हो सकता, उनके
मास व अवधि एक नहीं हो सकती, कहीं शीतकाल लंबा होगा, तो कहीं वृष्टिकाल और कहीं ग्रीष्मकाल। पूरा जम्बूद्वीप तो दूर, अकेला भारत ही इतना वृहत् है कि परंपरागत ऋतुक्रम को सटीक नहीं किया जा
सकता। उल्लेखनीय है कि चरक व सुश्रुत ने ऋतुओं की जो गणना की है, उनमें शिशिर का नाम नहीं आता। उन्होंने वर्षा के चातुर्मास के लिए आषाढ़ व
श्रावण में प्रावृट् नाम से अतिरिक्त वर्षा ऋतु का उल्लेख किया है। वहाँ चैत्र के
साथ वैशाख को नहीं, फाल्गुन को वसंत माना गया है। वहाँ
ऋतुसंधि की कल्पना है, जो वैज्ञानिक ही है। यह बात केवल
ऋतुओं के विरोधाभास को संकेतित करने के लिए रखी गई है। निष्पत्ति केवल यह है कि एक
संभावना है कि किसी कालखंड में मकर संक्रांति किसी संवत्सर का आरंभ रही होगी,
पर वह वैसे ही विलुप्त हो गई, जैसे दीपावली के
प्रारंभ होने वाले कुछ संवत्सर विलुप्त हो गए।
संस्कृति, धर्म,
विज्ञान व ज्योतिष के बाद पुनः संस्कृति की ओर लौटते हैं, क्योंकि वही तो प्रमुख है, सबका समाहार। मकर
संक्रांति में एक और समाहार है, वह है पतंगों का। पतंगें
अपने मूल में भारतीय नहीं हैं, अत: वे इस पर्व में बाद में
शामिल हुई होंगी। समय के साथ संक्रांति पतंगों का पर्व
बनता गया है। वह दान का कम, उड़ान का पर्व अधिक हुआ है। पहले
लोग पतंगें उड़ाने और लूटने में गिरते मरते थे, अब राह चलते
मरने लगे हैं। जिस देश में पतंगें खोजी गईं, उसी देश के धागे
ने पतंगों को कातिल बना दिया। पतंगें, जो हवा के साथ भी
उड़ती हैं और हवा के खिलाफ़ भी उड़ती हैं, जो धागे से बँधना
भी जानती हैं और बँध कर उड़ना भी जानती हैं, जो अनजानों से
लड़ना भी जानती है और अनजाने पेंच लड़ाना भी जानती हैं, जिनमें
आसमाँ की कशिश भी है और आसमाँ का बादल बनने की कोशिश भी है, अब
परिंदों से उनका आसमान ही नहीं, उनकी जिंदगी भी छीनने लगे
हैं। जो हमरे मन की पंख बनकर आकाश में उड़ती हैं, वही आकाश
में पंखवालों को घायल कर रही हैं। ये पतंगें मन के
परवाने की तरह बन जाती हैं, वे उड़ती हैं, लहराती हैं, डगमगाती हैं, तिरती
और मँडराती हैं- किसी परवाने की तरह, किसी कश्ती की तरह। मन
कल्पना करता है कि एक तरह से पतंग और धागा, हृदय और मस्तिष्क
की तरह हैं। भावनाएँ विचारों के धागे में बँधकर उड़ान भरती हैं और वह कल्पना,
जो विचारों के सूत्र में ही उड़ान पाती है, पुन:
विचारों से ही नियंत्रित हो जाती है। भावना की पतंग का निर्बंध होना, अपने ही सूत्र का कट जाना है। पर्व हमें जोड़ते हैं, हमें हमारी धरती से भी, आकाश से भी। शरद का आकाश
बहुत निरभ्र होता है, दुनिया में मौसम न होते, तो शायद पता ही नहीं चलता कि सबके लिए धरती ही नहीं, आसमाँ भी अलग ही है। संसार संस्कृति से अधिक सफलता का हो चुका है। सफलता
भी घर बनाती है, पर यह बाद में पता लगता है, हमें खुली छत नहीं, बंद बेसमेंट मिली है। बाजार की
दौड़ में धरती के मेले खो से गये हैं। सोचता हूँ, मकर
संक्रांति के नवधान्य के बहाने क्या हम अपनी थोड़ी सी धरती और उसकी पतंगों के
बहाने अपना छोटा सा आकाश पा सकेंगे।
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